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भोजपुरी सिनेमा का पतन: जहाँ कभी गूंजते थे बिरहा-भजन, वहाँ अब अश्लीलता का बोलबाला

  • भोजपुरी फिल्में अब परिवार के साथ देखना नामुमकिन
  • कला और संस्कृति की जगह सस्ती लोकप्रियता का खेल

भोजपुरी सिनेमा… कभी यह नाम सुनते ही मन में गाँव-देहात की सादगी, लोकगीतों की मिठास और संस्कृति की सुगंध ताजा हो उठती थी। 1963 में पहली भोजपुरी फिल्म गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ाइबो रिलीज़ हुई थी। इस फिल्म ने एक नए क्षेत्रीय सिनेमा का रास्ता खोला। इसके बाद बिदेसिया, हमार संसार, नदिया के पार और दहेज जैसी फिल्मों ने भोजपुरी समाज को गर्व का अहसास कराया। लेकिन आज वही इंडस्ट्री अश्लील गानों, फूहड़ दृश्यों और भद्दे संवादों का पर्याय बन गई है। हालात यह हैं कि लोग परिवार के साथ भोजपुरी फिल्म देखना तो दूर, मोबाइल पर गाना बजाने से भी कतराने लगे हैं। इस रिपोर्ट में हम जानेंगे कि भोजपुरी सिनेमा कहाँ से चला, कहाँ पहुँचा और किस दलदल में फँस गया।

स्वर्णिम दौर (1963–1980): संस्कृति और संवेदना का आईना

1963: गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ाइबो से भोजपुरी सिनेमा का जन्म हुआ। इस फिल्म में आस्था, रिश्तों की मजबूती और सामाजिक संदेश था। यह फिल्म आज भी भोजपुरी समाज में आस्था का प्रतीक मानी जाती है. 1965: बिदेसिया रिलीज़ हुई, जिसने लोकनायक भिखारी ठाकुर की परंपरा को परदे पर जीवंत कर दिया। 1970–80 का दशक: हमार संसार, गंगा किनारे मोरा गाँव हो जैसी फिल्मों ने गाँव की जिंदगी और लोक संस्कृति को परदे पर सजाया। 1982 में नदिया के पार ने इतिहास रच दिया। यह फिल्म इतनी सफल हुई कि बाद में हिंदी में भी हम आपके हैं कौन जैसी सुपरहिट फिल्म इसी की रीमेक बनी।

उस दौर की विशेषताएँ:

  • परिवार और समाज की कहानियाँ।
  • संवादों में मिठास।
  • गानों में लोकगीतों की झलक।
  • कलाकार: सुजीत कुमार, पद्मा खन्ना, कुमकुम आदि ने अपनी पहचान बनाई।

1990 का दशक: संकट और ठहराव

90 के दशक में भोजपुरी फिल्मों की रफ्तार थम गई। नई कहानियों और विषयों की कमी। निवेशक पीछे हटने लगे। दर्शकों का झुकाव हिंदी और साउथ फिल्मों की ओर बढ़ गया। कई फिल्में बनीं, लेकिन उनका असर फीका रहा। भोजपुरी सिनेमा हाशिए पर पहुँच गया। दर्शकों और निर्माताओं को लगा कि शायद अब यह इंडस्ट्री ज़िंदा नहीं रह पाएगी।

2004: मनोज तिवारी और पुनर्जागरण

भोजपुरी सिनेमा के लिए 2004 ऐतिहासिक साल साबित हुआ। फिल्म ससुरा बड़ा पइसावाला रिलीज़ हुई। यह फिल्म कम बजट में बनी, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर धमाका कर गई। करोड़ों की कमाई कर इसने भोजपुरी सिनेमा को फिर से चर्चा में ला खड़ा किया। मनोज तिवारी रातों-रात सुपरस्टार बने। इसके बाद रवि किशन, दिनेश लाल यादव ‘निरहुआ’, पवन सिंह जैसे सितारों ने इंडस्ट्री को नई ऊर्जा दी। यह दौर भोजपुरी फिल्मों के पुनर्जन्म जैसा था। लोगों को लगा कि अब भोजपुरी सिनेमा फिर से अपनी खोई हुई पहचान पा लेगा।

2010 के बाद: फूहड़पन का बोलबाला

लेकिन 2010 के बाद से इंडस्ट्री की दिशा एक बार फिर बदल गई। निर्माता जल्दी पैसा कमाने की होड़ में पड़ गए। फिल्मों से ज्यादा गानों पर जोर दिया जाने लगा। यूट्यूब पर अश्लील गाने डालकर करोड़ों व्यूज़ पाने का नया बिज़नेस मॉडल तैयार हुआ। पारिवारिक फिल्में धीरे-धीरे गायब होती गईं।

गानों में अश्लीलता

भोजपुरी गाने कभी सोहर, कजरी, बिरहा, चैता से पहचाने जाते थे। लेकिन आज की स्थिति यह है कि— गानों के बोल में दोअर्थी शब्द और भद्दे इशारे होते हैं। अश्लील डांस और आइटम नंबर फिल्मों की अनिवार्यता बन गए हैं। सोशल मीडिया पर रिलीज़ गाने करोड़ों व्यूज़ पाते हैं, लेकिन उनमें संगीत और संस्कृति का नामोनिशान नहीं होता। संगीतज्ञ कहते हैं—“भोजपुरी गानों ने संगीत की मर्यादा तोड़ दी है। बच्चे तक इन गानों को गुनगुनाते हैं, जिनमें परिवार के सामने बोलना भी शर्म की बात है।”*

संवादों में गाली-गलौज

पहले संवाद फिल्मों की जान होते थे। लेकिन अब— खलनायक का किरदार गालियों से भरा होता है। हीरो–हीरोइन की नोकझोंक भी अश्लील मजाक में बदल गई है। कॉमेडी का मतलब फूहड़ हरकतें और गंदे मजाक रह गया है।

सिनेमा हॉल से गायब दर्शक

80–90 के दशक तक भोजपुरी फिल्मों के शो हाउसफुल होते थे। आज हालत यह है कि हॉल खाली पड़े रहते हैं। ज्यादातर लोग यूट्यूब पर गाने देखना पसंद करते हैं, लेकिन वहाँ भी गुणवत्ता नहीं, अश्लीलता बिक रही है।

निर्माता-निर्देशक की मानसिकता

जल्दी मुनाफा कमाने की सोच। पारिवारिक फिल्मों को जोखिम भरा मानना। “जो बिकता है वही बनाओ” की नीति। फिल्म समीक्षक डे कहते हैं—“आज के निर्माता मानते हैं कि अगर गाने अश्लील होंगे तो व्यूज़ आएंगे, और व्यूज़ आएंगे तो पैसा आएगा। लेकिन वे यह भूल गए हैं कि इससे इंडस्ट्री की जड़ खोखली हो रही है।”

दर्शकों का आक्रोश

भोजपुरी समाज खुद नाराज़ है। बुजुर्ग: *“भोजपुरी फिल्म हमारी संस्कृति की हत्या कर रही है।” महिलाएँ: “घर में मोबाइल पर भी गाना बजाना मुश्किल हो गया है।” युवा: “भोजपुरी का नाम आते ही लोग मजाक उड़ाते हैं।”

बॉक्स आइटम – कानून और सेंसर की कमजोरी

सेंसर बोर्ड का नियंत्रण कमजोर।
यूट्यूब पर अश्लील गाने बिना रोकटोक।
पोस्टर और थंबनेल खुलेआम भड़काऊ।
नतीजा: इंडस्ट्री की साख और भी गिरती जा रही है।

समाज पर असर

छोटे बच्चे गंदे बोल गुनगुनाते हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर भोजपुरी मजाक का विषय बन गई है।
प्रवासी भोजपुरी समाज विदेशों में शर्मिंदगी महसूस करता है।

इंडस्ट्री को बचाने की ज़रूरत

कलाकारों को जिम्मेदारी लेनी होगी। निर्माताओं को साफ-सुथरी फिल्मों में निवेश करना होगा। समाज को अश्लील फिल्मों का बहिष्कार करना होगा।

भोजपुरी सिनेमा का पतन सिर्फ एक इंडस्ट्री की हार नहीं, बल्कि पूरे समाज और संस्कृति के लिए खतरे की घंटी है। 1963 में शुरू हुआ सफर 2004 में पुनर्जीवित हुआ, लेकिन 2010 के बाद जिस तरह फूहड़पन ने कब्जा कर लिया, वह चिंताजनक है। “भोजपुरी सिनेमा बचाओ” मुहिम इसी चेतावनी की शुरुआत है। आज अगर इसे नहीं बचाया गया, तो कल की पीढ़ी भोजपुरी भाषा को सिर्फ अश्लीलता से जोड़ेगी।

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