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पितृपक्ष 2025 : पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता का महापर्व

श्राद्ध और तर्पण का महात्म्य, नियम, आचार-विचार और परंपराएँ

मानव जीवन केवल भौतिक सुख-साधनों से संचालित नहीं होता, बल्कि उसकी जड़ें उस अदृश्य परंपरा और उन पूर्वजों से जुड़ी होती हैं, जिन्होंने पीढ़ी-दर-पीढ़ी संस्कार, संस्कृति और जीवन-मूल्य सौंपे। हिन्दू धर्म में यह मान्यता है कि मनुष्य तीन प्रकार के ऋणों के साथ जन्म लेता है— देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। इनमें से पितृ ऋण चुकाने के लिए ही वर्ष में एक विशेष कालखंड निर्धारित किया गया है, जिसे पितृपक्ष या श्राद्ध पक्ष कहा जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर आश्विन अमावस्या तक चलने वाला यह पक्ष 15 दिनों तक पूर्वजों के तर्पण, श्राद्ध और पिंडदान को समर्पित रहता है। इसे “महालय पक्ष” भी कहते हैं।

पितृपक्ष केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट करने का काल है। माना जाता है कि इस दौरान पितृ लोक के द्वार खुल जाते हैं और पितर अपने वंशजों के श्राद्ध और तर्पण की प्रतीक्षा करते हैं। श्राद्ध में जल, तिल, पुष्प और पिंडदान के माध्यम से उन्हें संतुष्ट किया जाता है। यह विश्वास है कि श्राद्ध करने से पितृ प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं और परिवार की रक्षा करते हैं। वैदिक साहित्य, महाभारत, पुराणों और धर्मशास्त्रों में पितृपक्ष का महत्व स्पष्ट रूप से उल्लेखित है।

पितृपक्ष क्यों होता है और क्यों करना चाहिए?

मनुष्य जन्म से ही अपने माता-पिता और पूर्वजों पर आश्रित होता है।
शास्त्र कहते हैं: “ऋणानुबन्धेन पितृभिः सह संबंधः” यानी जन्म पूर्वजों के ऋण से ही संभव है।
पितृ ऋण से मुक्ति का मार्ग श्राद्ध और तर्पण है।
इस कालखंड में किए गए कर्म सीधे पितरों तक पहुँचते हैं।
पूर्वजों के आशीर्वाद से परिवार में सुख-समृद्धि और संतान वृद्धि होती है।

वैदिक और पौराणिक महात्म्य

1. ऋग्वेद और यजुर्वेद में पितृ यज्ञ का वर्णन है।
2. महाभारत में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को श्राद्ध का महत्व समझाया।
3. गरुड़ पुराण में कहा गया है कि श्राद्ध से पितरों को तृप्ति, और श्राद्धकर्ता को पुण्य की प्राप्ति होती है।
4. विष्णु धर्मसूत्र और मनुस्मृति में श्राद्ध के नियम वर्णित हैं।
5. कथा है कि पितरों के आशीर्वाद से ही दानवों पर देवताओं की विजय संभव हुई।

पितृपक्ष कब और कैसे शुरू हुआ?

पौराणिक कथा के अनुसार, महाभारत युद्ध के बाद जब भीष्म पितामह तीरों की शैय्या पर लेटे थे, तब उन्होंने युधिष्ठिर को श्राद्ध पक्ष का महात्म्य बताया। इसी काल से इसे नियमित रूप से करने की परंपरा मानी जाती है। अन्य मान्यता है कि जब करुणानिधान पितरों ने यमराज से प्रार्थना की कि उन्हें अपने वंशजों से मिलने का अवसर मिले, तब यम ने भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक का काल निर्धारित किया।

तर्पण की विधि और सामग्री

मुख्य सामग्री:

* जल
* काले तिल
* कुशा (दरभा घास)
* पुष्प
* पका हुआ अन्न (खीर, पूरी, कचौड़ी आदि)
* पिंडदान हेतु चावल और जौ
* ब्राह्मण भोजन की व्यवस्था

विधि:

1. सूर्योदय से पूर्व स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण करें।
2. पितरों का ध्यान कर कुशा का आसन लगाएँ।
3. जल, तिल और कुशा के साथ “ॐ पितृभ्यः स्वधा” मंत्र का उच्चारण करें।
4. पिंडदान करके ब्राह्मण को भोजन कराएँ।
5. दक्षिणा और वस्त्र देकर आशीर्वाद लें।

पितृपक्ष के नियम (शास्त्रों के अनुसार)

श्राद्ध कर्म हमेशा दिन में करना चाहिए, रात्रि में नहीं।
श्राद्ध अमावस्या और तिथि अनुसार ही करना चाहिए।
ब्राह्मण भोजन और तृप्ति सर्वोपरि मानी जाती है।
गाय, कौवा, कुत्ते और चींटी को अन्नदान अवश्य करें।
श्रद्धा और भक्ति सबसे महत्वपूर्ण है।

इस दौरान क्या करना चाहिए?

पितरों का स्मरण, तर्पण और पिंडदान।
ब्राह्मण, साधु और जरूरतमंद को भोजन कराना।
दान करना — अन्न, वस्त्र, दक्षिणा।
मंदिर और तीर्थ में स्नान।
घर में पवित्रता बनाए रखना।

इस दौरान क्या नहीं करना चाहिए?

विवाह, सगाई, गृह प्रवेश जैसे मांगलिक कार्य नहीं होते।
नए कपड़े या आभूषण खरीदना अशुभ माना जाता है।
मद्यपान, मांसाहार और तामसिक भोजन वर्जित है।
झूठ बोलना, हिंसा और अपशब्द वर्जित।

पितृपक्ष में खानपान के नियम

क्या खाना चाहिए:

सात्विक भोजन — खिचड़ी, दाल, चावल, रोटी, दूध, खीर।
मौसमी फल।
तिल और गुड़ का प्रयोग।

क्या नहीं खाना चाहिए:

प्याज, लहसुन, बैंगन, मांस-मछली, शराब।
*टहल, चना, मसूर की दाल।
तामसिक भोजन।

सावधानियाँ

श्राद्ध काल में घर में कलह और झगड़ा न करें।
तर्पण करते समय शुद्ध आसन और पात्र का प्रयोग करें।
ब्राह्मण भोजन कराते समय शुद्धता रखें।
दिखावा न करें, सच्ची श्रद्धा ही फल देती है।
यदि संभव न हो तो किसी पवित्र तीर्थ में जाकर पिंडदान करें।

पितृपक्ष केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि पूर्वजों को स्मरण करने, उनके आशीर्वाद से भविष्य को उज्ज्वल बनाने का अवसर है। शास्त्रों में कहा गया है— “श्राद्धेन पितरः तृप्ताः, तृप्ताः पितरः यदा सदा।” यानी श्राद्ध से पितर तृप्त होकर वंशजों को हर प्रकार से आशीर्वाद देते हैं।

डिस्क्लेमर : यह लेख सामान्य धार्मिक जानकारियों और शास्त्रों में वर्णित मान्यताओं पर आधारित है। पाठकों से निवेदन है कि किसी भी धार्मिक अनुष्ठान को करने से पहले अपने परिवार के पुरोहित या योग्य विद्वान से परामर्श अवश्य लें।

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