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सनातन धर्म में दान की परंपरा : काशी में दान क्यों माना जाता है अक्षय?

सनातन धर्म में दान को सर्वोच्च धर्म माना गया है। धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य दान के माध्यम से पापों से मुक्त होकर मोक्ष की ओर अग्रसर होता है। महाभारत में वर्णित 14 महादानों में अन्नदान, गौदान, भूमि दान, जलदान, वस्त्रदान, दीपदान, रत्न दान, धान्यदान, औषधि दान, ज्ञानदान, आश्रय दान और जीवदान जीवन के संतुलन और समाज के उत्थान का आधार हैं। काशी में दान को विशेष फलदायक माना गया है क्योंकि स्कंद पुराण में वर्णन है कि काशी में किया गया दान सौ गुना फल देता है। काशी की भूमि आज भी सेवा और मानवता के दीप से प्रकाशित है।

  • अन्नदान से जीवदान तक-14 महादानों की पवित्र परंपरा और आध्यात्मिक शक्ति

सनातन धर्म में दान को मानव जीवन का सबसे ऊँचा गुण माना गया है। भारतीय संस्कृति में यह धारणा गहराई से स्थापित है कि मनुष्य जितना देता है, उससे कहीं अधिक पाता है। यही कारण है कि भारत के हर तीर्थस्थल पर दान की परंपरा जीवित दिखाई देती है, किंतु काशी को इस परंपरा का सर्वोच्च केंद्र माना जाता है। माना जाता है कि काशी में किया गया दान केवल पुण्य ही नहीं देता, बल्कि उसकी फल-शक्ति कई गुना बढ़ जाती है। स्कंद पुराण में लिखा है कि काशी में दान सौ गुना फलदायी होता है और मृत्यु के बाद भी साथ जाता है। इस विशेष रिपोर्ट में दान के इतिहास, महत्व, धार्मिक आधार, समाज पर प्रभाव और 14 महादानों की विस्तृत परंपरा को समझने का प्रयास किया गया है।

विश्व की सबसे प्राचीन नगरी कही जाने वाली काशी में दान की संस्कृति इतनी गहराई से स्थापित है कि यहाँ हर दिन हजारों लोग विभिन्न रूपों में दान करते दिखाई देते हैं। घाटों पर भोजन वितरण, अस्पतालों में दवाइयों की सहायता, मंदिरों में जलसेवा, छात्रों को शिक्षा-सहायता, साधु-संतों को वस्त्रदान, रात में कंबल वितरण – यह सब दृश्य काशी के दैनिक जीवन का हिस्सा हैं। दान केवल सामाजिक सहायता का साधन नहीं बल्कि आध्यात्मिक ऊर्जा का स्रोत माना जाता है।

धार्मिक ग्रंथ बताते हैं कि मनुष्य जन्म से तीन प्रकार के ऋण लेकर जन्म लेता है- देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। इन तीनों से मुक्ति का मार्ग दान, सेवा और यज्ञ माना गया है। यही कारण है कि धर्मशास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है कि धर्म का मूल दान है और दान के बिना व्यक्ति का जीवन अधूरा रहता है। ऋग्वेद में लिखा गया है कि देवता दान करने वालों के मित्र होते हैं। यजुर्वेद मनुष्य को आदेश देता है कि वह अपने हाथों से दान करे और उसे अपना परम कर्तव्य माने। तैत्तिरीय उपनिषद में गुरु अपने शिष्य को विदा करते समय जो अंतिम वाक्य बोलता है, उनमें से एक है-दान को प्रिय रखना।

भगवद्गीता में दान का विस्तृत वर्गीकरण किया गया है। गीता दान को तीन भागों में विभाजित करती है-सात्त्विक, राजसिक और तामसिक दान। सात्त्विक दान वह है जो उचित पात्र को, उचित समय पर, बिना किसी प्रत्याशा और विनम्रता के साथ दिया जाए। राजसिक दान वह है जो दिखावे और नाम-प्रतिष्ठा के लिए दिया जाए। तामसिक दान अपात्र को, अनादर भावना के साथ या नशे, क्रोध या अज्ञान में दिया जाता है। ग्रंथ कहते हैं कि केवल सात्त्विक दान ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।

महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को दान के चौदह महादानों का विस्तृत वर्णन किया। इनमें अन्नदान को सर्वोत्तम बताया गया है। भूखे को भोजन कराना किसी भी पूजा, यज्ञ या तप से बड़ा माना गया है। काशी में मां अन्नपूर्णा की पूजा इसी भाव का प्रमाण है। गौदान को मोक्ष के लिए सबसे शक्तिशाली दान बताया गया है। गरुड़ पुराण में उल्लेख है कि गौदान करने से जन्मों-जन्मों के पाप नष्ट होते हैं और मृत आत्मा वैतरणी पार करती है। भूमि दान को अनंत पुण्य का स्रोत कहा गया है। मंदिर निर्माण, धर्मशाला और गौशाला हेतु भूमि देना सर्वोत्तम सेवा मानी गई है।

जलदान को जीवनदान का दर्जा दिया गया है, विशेष रूप से गर्मी के दिनों में प्याऊ लगाना महान पुण्य माना जाता है। वस्त्रदान शीत से पीड़ित लोगों को राहत देता है और दीपदान जीवन और मन के अंधकार को दूर करने का प्रतीक है। स्वर्ण दान, रत्न दान, धान्य दान, तांबूल दान, औषधि दान, ज्ञानदान, आश्रय दान और जीवदान को भी अत्यंत पवित्र माना गया है। इनमें जीवदान-अर्थात प्राण की रक्षा-सबसे उच्च माना गया है, जिसके आधुनिक रूप रक्तदान और अंगदान हैं।

काशी में दान का महत्व इसलिए और बढ़ जाता है क्योंकि यहाँ का दान आध्यात्मिक ऊर्जा से युक्त माना गया है। गंगा के तट पर किये गये दान को पितृदोष निवारण और आत्मिक शांति का साधन माना जाता है। गंगा की धारा, कालभैरव की सुरक्षा, विश्वनाथ का आशीर्वाद और मृत्युंजय काशी का आध्यात्मिक वातावरण दान को अक्षय और प्रभावी बनाता है। मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट पर अंतिम संस्कार सहायतार्थ संस्थाएँ बिना किसी लालच के दिन-रात सेवा करती हैं। यहाँ जल, लकड़ी, अंतिम सेवा, वस्त्र और चिता-सेवा के रूप में दान किया जाता है। कहा जाता है कि काशी में अंतिम सेवा का दान मनुष्य को सीधे मोक्ष का मार्ग प्रदान करता है।

काशी के मंदिरों में अन्न वितरण की व्यवस्था निरंतर चलती है। अन्नपूर्णा रसोई और मंदिर में भोजन वितरण का धार्मिक और सामाजिक महत्व दोनों है। गंगा सेवा समितियाँ घाटों पर जल और दीपदान की परंपरा को जीवित रखती हैं। शहर की कई संस्थाएँ शिक्षा सहायता, निःशुल्क इलाज और गरीबों के लिए दवा सहायता का दायित्व निभाती हैं। हर साल हजारों तीर्थयात्री काशी में दान करके ही अपने धार्मिक संकल्प पूरे करते हैं।

दान केवल धार्मिक कर्तव्य ही नहीं, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यंत प्रभावी माना जाता है। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार जब मनुष्य दान करता है तो उसके भीतर खुशी के हार्मोन-सेरोटोनिन, ऑक्सिटोसिन और डोपामीन-उत्पन्न होते हैं। इससे मानसिक तनाव कम होता है, मन हल्का होता है और व्यक्ति को संतोष मिलता है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि दान मन में नकारात्मक विचारों, भय और असुरक्षा की भावना को मिटाता है और आत्मविश्वास बढ़ाता है। योगिक दृष्टि से दान अनाहत चक्र को सक्रिय करता है और मनुष्य की चेतना को शुद्ध बनाता है।

दान केवल आर्थिक सहायता नहीं, बल्कि दिल का भाव है। दान में वस्तु से अधिक महत्त्व भावना का होता है। धर्मग्रंथ कहते हैं कि दान ऐसा होना चाहिए जिसमें दाता के मन में अहंकार न हो। दान का वास्तविक उद्देश्य सामाजिक जरूरतों को पूरा करना और मानवता को जीवित रखना है।

समय के साथ दान के रूप भी बदले हैं। आज रक्तदान शिविर, नेत्रदान संकल्प, अंगदान प्रतिज्ञाएँ, डिजिटल सेवा, मेडिकल सहायता, आपदा सहयोग और शिक्षा-प्रायोजन आधुनिक समाज में दान के नए आयाम बने हैं। महामारी के समय ऑक्सीजन और भोजन सहायता योजनाओं ने दान की शक्ति को और प्रमाणित किया।

सनातन दर्शन कहता है कि जब तक इस दुनिया में दान का दीप जलता रहेगा, तब तक मानवता कभी समाप्त नहीं होगी। काशी की धड़कन आज भी उसी भावना से धड़क रही है। यहाँ दान केवल हाथ से दी गई चीज़ नहीं, बल्कि आत्मा से दिया गया भाव है। यही कारण है कि कहा जाता है कि काशी में दान करना केवल पुण्य कमाना नहीं, बल्कि ईश्वर के चरणों में अर्पण करना है। काशी आज भी दुनिया को यही संदेश देती है कि दान ही धर्म है, दान ही कर्तव्य है, दान ही मानवता है और दान ही मोक्ष का मार्ग है। क्योंकि जहाँ दान होता है, वहीं शिव की उपस्थिति होती है।

महाभारत में वर्णित 14 महादानों का महत्व

अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को दान के 14 महादानों का विस्तृत वर्णन किया-जिन्हें मनुष्य के लिए अनिवार्य धार्मिक कर्तव्य बताया गया।

(1) अन्नदान – सर्वोत्तम दान और महापुण्य : अन्न को “ब्रह्म” कहा गया है। भूखे को भोजन कराना यज्ञ, तप या पूजा से भी श्रेष्ठ बताया गया। अन्नपूर्णा देवी ने काशी में अन्नदान की परंपरा स्थापित की। अन्नदान घर में अन्न सम्पन्नता, पितृ तृप्ति और ग्रहदोषों से राहत देता है।

(2) गौदान – मोक्ष का सेतु : गौ माता धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का मूल मानी गई। गरुड़ पुराण में लिखा है कि गौदान से मृतात्मा वैतरणी पार करती है।

(3) भूमि दान – अनंत पुण्य का द्वार : धर्मशालाएँ, मंदिर, गौशालाएँ या गरीबों के लिए भूमि दान श्रेष्ठ माना गया।

(4) जलदान – जीवन की रक्षा : कुएँ, प्याऊ, गंगा जल, प्यासे जीवों को जल-पुण्य अनेक गुना फल देता है।

(5) वस्त्र दान : शीत ऋतु में वस्त्रदान को “सहस्रगुना फलदायक” कहा गया।

(6) दीपदान : दीपदान से जीवन में प्रकाश, राहु-केतु दोष शांत और मानसिक शांति मिलती है।

(7) स्वर्ण दान : धन और व्यापार वृद्धि का मार्ग खुलता है।

(8) रत्न दान : ग्रहदोषों के नाश और दुर्भाग्य निवारण हेतु श्रेष्ठ कहा गया।

(9) ताम्बूल दान : शुभ कार्यों में सफलता और संतोष का भाव।

(10) धान्य दान : गरीबों की जीवनरेखा और गृहस्थी में भरपूरता।

(11) औषधि दान : दवाइयाँ, मेडिकल सहायता-आज के समय का सबसे पवित्र दान।

(12) ज्ञानदान : सबसे बड़ा दान-यह मानवता का निर्माण करता है, पीढ़ियाँ बनाता है।

(13) आश्रय दान : अनाथ, विधवा, रोगी, वृद्ध-इनकी सहायता को सर्वश्रेष्ठ माना गया।

(14) जीव दान : प्राणों की रक्षा-परम दान। रक्तदान, अंगदान, संकट में सहायता इसका स्वरूप।

काशी में दान का पौराणिक, सामाजिक और आध्यात्मिक महत्व

काशी वह भूमि है जहाँ मृत्यु भी मोक्ष का द्वार बनती है। स्कंद पुराण में कहा गया – “काश्यां दत्तं शतगुणं भवति।” अर्थ: काशी में दान सौ गुना बढ़कर फल देता है।“काशी में दान इसलिए विशेष माना जाता है क्योंकि यहाँ दान केवल दाता और पात्र के बीच नहीं, बल्कि दाता और शिव के बीच होता है।”

सेवा का असली अर्थ तब समझ आता है जब कोई व्यक्ति बिना नाम, बिना प्रचार और बिना किसी अपेक्षा के समाज के लिए समर्पित हो जाए। काशी की धरती पर ऐसे ही एक प्रेरक व्यक्तित्व हैं संकल्प संस्था के संरक्षक अनिल कुमार जैन, जिन्होंने पिछले 14 वर्षों से अधिक समय तक हजारों क्षय रोगियों को नि:शुल्क दवा उपलब्ध कराकर अनेक परिवारों को नई जिंदगी दी है। बीमारी की मार झेल रहे उन रोगियों के लिए यह दान सिर्फ दवा नहीं, बल्कि उम्मीद, आशीर्वाद और जीवन का पुनर्जीवन था।

सेवा की यह यात्रा यहीं थमी नहीं। अनिल जैन आज भी लगातार चौक क्षेत्र में प्रत्येक शनिवार को खिचड़ी और जलेबी का वितरण कर रहे हैं। गर्माहट भरी थाली के साथ लोगों के चेहरे पर मुस्कान लौटाना ही उनका सबसे बड़ा धर्म बन गया है। काशी की गलियों में हर शनिवार उन सैकड़ों भूखे लोगों की आँखों में कृतज्ञता चमकती है, जिनके पेट में भोजन और दिल में सम्मान भरने का कार्य यह संस्था कर रही है।

बाबा गणिनाथ भक्त मण्डल के संरक्षक राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता का कहना है कि काशी में दान की परंपरा अत्यंत समृद्ध है और यहाँ असंख्य लोग हैं जो समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं, बस उन्हें उचित दिशा और मंच की आवश्यकता है। संस्था की ओर से जल्द ही कई सेवा योजनाएँ प्रारंभ की जा रही हैं, ताकि और अधिक लोगों तक सहायता पहुँचे और मानवता का दीप और प्रज्वलित हो।

दान का वास्तविक अर्थ यही है – किसी के आंसू पोंछना, किसी के जीवन में प्रकाश जगाना और किसी भूखे को भोजन देना। काशी में सेवा का यह स्वरूप सिर्फ सामाजिक कार्य नहीं, बल्कि जीवित धर्म है, जो मानवता को सबसे ऊँचे स्थान पर स्थापित करता है।

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डिस्क्लेमर : इस लेख में प्रस्तुत ऐतिहासिक, धार्मिक और पौराणिक जानकारी विभिन्न धर्मग्रंथों, परंपराओं, लोक मान्यताओं एवं उपलब्ध स्रोतों पर आधारित है। लेख में व्यक्त विचार लेखक के अध्ययन एवं विश्लेषण पर आधारित हैं। इनसे पोर्टल, संपादकीय टीम या किसी संस्था की सहमति आवश्यक रूप से प्रदर्शित नहीं होती। पाठकों से अपेक्षा है कि वे किसी भी धार्मिक, आध्यात्मिक या सामाजिक निर्णय से पूर्व अपने विवेक से परामर्श लें। किसी भी व्यक्ति, संस्था या समुदाय की भावनाओं को आहत करना इस सामग्री का उद्देश्य नहीं है।

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