छप्पन भोग का रहस्य : क्यों अर्पित किए जाते हैं भगवान कृष्ण को 56 व्यंजन
गोवर्धन पूजा के अवसर पर छप्पन भोग अर्पित करना केवल भक्ति नहीं, बल्कि विज्ञान और संस्कृति का अद्भुत संगम है। भगवान श्रीकृष्ण को 56 व्यंजन अर्पित किए जाते हैं, जो सात दिन तक उठाए गए गोवर्धन पर्वत के सात प्रहरों का प्रतीक हैं। इस परंपरा में स्वाद के छह रस और अन्न के विविध रूप जीवन के संतुलन का संदेश देते हैं। छप्पन भोग हमें यह सिखाता है कि भोजन केवल पेट भरने का साधन नहीं, बल्कि कृतज्ञता और समर्पण का उत्सव है।
- गोवर्धन पूजा के दिन भगवान श्रीकृष्ण को 56 तरह के भोग अर्पित करने की परंपरा सदियों पुरानी है। यह सिर्फ धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि भोजन, प्रकृति और विज्ञान के गहरे संबंध की जीवंत मिसाल है।
छप्पन भोग शब्द का अर्थ- “छप्पन” अर्थात् 56 और “भोग” अर्थात् भोग-भोजन या अर्पित सामग्री। इस प्रथा के अंतर्गत 56 प्रकार के व्यंजन भगवान के समक्ष अर्पित किये जाते हैं। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा के रूप में मनाया जाता है। इस त्यौहार में विशेष रूप से भगवान श्रीकृष्ण (कृष्ण) की लीला-कथा के संदर्भ में पर्व मनाया जाता है, जिसमें उन्होंने गोवर्धन पर्वत को उँचा उठाकर ग्रामवासी और अपने गोकुली पशुधन को बारिश-तूफान से बचाया था। इस अवसर पर बड़े पैमाने पर अन्नकूट (खाद्य सामग्री का ढेर) तैयार किया जाता है, जिसमें अनेक प्रकार के पकवान भगवान को अर्पित किए जाते हैं। उसी अन्नकूट आयोजन का एक प्रमुख अंग है छप्पन भोग – अर्थात् ५६ प्रकार के व्यंजन-भोजन।
व्यंजन-सामग्री तथा स्वादों की विविधता
विभिन्न स्रोतों के अनुसार, इन ५६ व्यंजनों में निम्नलिखित प्रकार की चीजें शामिल होती हैं-
- विभिन्न प्रकार के अन्न, चावल, खिचड़ी, दाल, सब्जी
- नमकीन पकवान, पापड़-चिप्स-नमकीन सामग्री
- मिठाइयाँ-प्रकार, जैसे रसगुल्ला, जलेबी, घेवर, पेडा आदि
- पेय-वस्तुएँ जैसे बादाम दूध, नारियल पानी, लस्सी आदि
- फल-सूखे मेवे-आचार-मुरब्बे-चटनी आदि
छप्पन भोग के पीछे ‘छह रस’ का सिद्धांत
एक प्रमुख व्याख्या के अनुसार, इस भोग की व्यवस्था छः रसों – मीठा, खट्टा (अम्ल), नमकीन, कड़वा, कसैला (सख्त-कड़क), तीखा – के संतुलन पर आधारित है। इन छः स्वादों का विविध संयोजन विभिन्न प्रकार के व्यंजन तैयार करने का आधार माना जाता है। उदाहरणस्वरूप, “कड़वा, तीखा, अम्ल, नमकीन, मीठा और कसैला” – इस प्रकार के छह भावात्मक/स्वाद-संग्रह से ५६ प्रकार के व्यंजन निकलते हैं। बताया गया है कि इस संख्या-५६ का एक धार्मिक कारण यह भी माना जाता है कि दिव्य कमल की पंखुड़ियाँ ५६ थीं और उन पंखुड़ियों पर भगवान कृष्ण विभिन्न रूपों में विराजमान थे; इसलिए प्रत्येक पंखुड़ी के लिए एक भोग अर्पित किया जाता है।
गोवर्धन पूजा में छप्पन भोग का महत्व
गोवर्धन पूजा के मुख्य तत्वों में शामिल है – गोवर्धन पर्वत (या उसके प्रतीक) की पूजा, अन्नकूट-भोजन अर्पण और पशु-पशुधन (गाय) की पूजा।
छप्पन भोग : भक्ति, अन्न और संतुलन की थाली
यह वही दिन होता है जब मंदिरों के द्वार पर रसोई के बर्तन खनकते हैं, महकती है तुलसी के पत्तों की सुगंध और भक्तगण श्रद्धा से “अन्नकूट” तैयार करते हैं। गोवर्धन पूजा के इस पावन अवसर पर भगवान श्रीकृष्ण को “छप्पन भोग” अर्पित करने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। इस आयोजन का अर्थ केवल भोग नहीं, बल्कि आस्था, विज्ञान और संस्कृति का संगम है।
मथुरा, वृंदावन, नाथद्वारा या पुरी- जहां भी कृष्ण मंदिर हैं, वहां इस दिन भोग का दृश्य अद्भुत होता है। रसोई में दर्जनों व्यंजन एक साथ तैयार होते हैं- दालों की सुगंध, सब्ज़ियों का स्वाद, मिठाइयों की मिठास और पेयों की ठंडक सब मिलकर ऐसा भाव रचते हैं मानो पूरा ब्रजभूषण उस अन्नकूट में समाहित हो गया हो।
पौराणिक मान्यता कहती है कि जब भगवान कृष्ण ने इंद्र के प्रकोप से गोकुलवासियों को बचाने के लिए सात दिन और सात रात तक गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठिका पर उठाए रखा, तब ग्रामीणों ने उन दिनों में कोई भोजन उन्हें नहीं कराया। जब वर्षा रुकी, तब भक्तों ने हर प्रहर (दिन के आठ भाग) के भोजन की भरपाई करने के लिए 8 प्रहर × 7 दिन = 56 प्रकार के व्यंजन बनाए। यही परंपरा आज “छप्पन भोग” के नाम से जानी जाती है।
इस छप्पन भोग में क्या-क्या होता है, यह जानना स्वयं में एक रस-यात्रा है। शुरुआत होती है अन्न से- भात, खिचड़ी, मूंग की दाल, अरहर की दाल, कढ़ी, और विभिन्न प्रकार की रोटियां- पूरी, पराठा, मिस्सी रोटी। हर अन्न का दाना प्रतीक है श्रम और समर्पण का। इन व्यंजनों के साथ मिलती हैं सब्ज़ियां- आलू-टमाटर, लौकी, भिंडी, कद्दू, बैंगन का भरता, मटर पनीर और गाजर मटर की सब्ज़ी। यह रंगीन थाल जीवन की विविधता का संदेश देती है।
दुग्ध उत्पादों का स्थान इसमें विशेष है। दही, छाछ, मक्खन, लस्सी और दूध-ये केवल स्वाद ही नहीं, बल्कि सात्विकता के प्रतीक हैं। कहा जाता है कि श्रीकृष्ण को “माखन मिश्री” अत्यंत प्रिय था, इसलिए इसे भोग में विशेष रूप से रखा जाता है।
मिठाइयों का संसार तो मानो छप्पन भोग का हृदय है। रसगुल्ला, गुलाबजामुन, जलेबी, पेडा, लड्डू, घेवर, मालपुआ, खीर, सेमीया पायस, हलवा, बर्फी, मिठाई के रूप में सजी थालें देखकर ऐसा लगता है जैसे भक्ति का मधुर रूप स्वयं साकार हो उठा हो।
इसके साथ स्वाद को संतुलन देने वाले तत्व-पापड़, नमकीन सेव, मिक्सचर, चिप्स, मूंगफली, और सूखे मेवे जैसे काजू-बादाम-किशमिश-भी इस भोग का हिस्सा हैं। फल भी प्रसाद में सम्मिलित होते हैं-केला, सेब, अमरूद, अनार, संतरा और नारियल। पेयों में दूध, शरबत, बादाम दूध, गन्ने का रस, सत्तू पेय और तुलसी जल के साथ भोग पूर्ण होता है।
कहा जाता है कि छप्पन भोग में स्वाद के छह रस-मीठा, खट्टा, नमकीन, कड़वा, कसैला और तीखा-सभी संतुलित रूप में होते हैं। यह संतुलन केवल स्वाद का नहीं, जीवन का भी प्रतीक है। हर स्वाद अपने में एक मनोभाव छिपाए रहता है-मीठा आनंद का, खट्टा उत्साह का, नमकीन अपनत्व का, कड़वा संयम का, कसैला ज्ञान का और तीखा जोश का। छप्पन भोग इन सभी भावों को एक थाल में समेट देता है।
गोवर्धन पूजा में इस भोग का महत्व केवल धार्मिक नहीं, वैज्ञानिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। भोजन के इतने विविध स्वरूप शरीर को समग्र पोषण देते हैं-अनाज और दालें प्रोटीन व कार्बोहाइड्रेट, सब्ज़ियां विटामिन और मिनरल्स, दूध व घी कैल्शियम और ऊर्जा, फल प्राकृतिक शर्करा और फाइबर प्रदान करते हैं। इस प्रकार अन्नकूट भोजन केवल भक्ति नहीं, एक संतुलित आहार विज्ञान भी है।
यह पर्व पर्यावरण और पशुधन के सम्मान का भी प्रतीक है। कृष्ण ने स्वयं कहा था-“वृक्ष, अन्न और गौ-इनसे जीवन चलता है।” इसलिए इस दिन गाय की पूजा की जाती है, और अन्नकूट पर्वताकार रूप में सजाया जाता है ताकि गोवर्धन पर्वत का प्रतीक बन सके। यह हमें याद दिलाता है कि अन्न और प्रकृति हमारे जीवन के आधार हैं।
भोजन को पहले भगवान को अर्पित करने की परंपरा एक गहरी मनोवैज्ञानिक शिक्षा देती है-कृतज्ञता का भाव। जब मनुष्य अपने भोजन का पहला अंश ईश्वर को समर्पित करता है, तो उसमें लोभ की जगह विनम्रता आती है। यह भावना व्यक्ति को मानसिक रूप से संतुलित करती है और सामूहिक जीवन में स्नेह व साझा भावना जगाती है।
छप्पन भोग केवल व्यक्तिगत पूजा नहीं, सामाजिक उत्सव भी है। गांवों और नगरों में इस दिन मंदिरों में सामूहिक भोग लगाया जाता है। महिलाएं घरों में विशेष पकवान बनाती हैं, पुरुष मंडल सजावट करते हैं और बच्चे उत्साह से प्रसाद वितरण में जुटे रहते हैं। यह केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सामाजिक एकता का पर्व है।
आज के दौर में जब फास्ट-फूड संस्कृति बढ़ रही है, तब छप्पन भोग की यह परंपरा हमें सिखाती है कि भोजन केवल पेट भरने का साधन नहीं, बल्कि संस्कृति, संबंध और श्रद्धा का प्रतीक है। हर पकवान एक कहानी कहता है-किसी मां के हाथ की मिठास, किसी किसान के परिश्रम का अंश, किसी गोपालक की भक्ति और किसी भक्त की भावना।
इस पर्व के पीछे गहरा वैज्ञानिक संदेश भी छिपा है। स्वाद की विविधता हमारे स्वादेंद्रियों को सक्रिय करती है, जिससे पाचन क्रिया सुधरती है। प्रसाद साझा करने से सामूहिकता और आनंद की भावना बढ़ती है, जो मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। इसलिए जब भी अन्नकूट की वह थाली सजी होती है, तो वह केवल पकवानों का समूह नहीं होती-वह मनुष्य, प्रकृति और ईश्वर के बीच का एक सेतु होती है।
आज जब हम गोवर्धन पूजा में छप्पन भोग अर्पित करते हैं, तो यह केवल एक परंपरा का निर्वाह नहीं, बल्कि एक संदेश है-कि जीवन में स्वाद की तरह संतुलन आवश्यक है,भक्ति की तरह विनम्रता आवश्यक है,और अन्न की तरह प्रकृति के प्रति कृतज्ञता आवश्यक है। छप्पन भोग इसीलिए कहा गया-क्योंकि इसमें केवल अन्न नहीं, बल्कि जीवन के छप्पन रूप समाए हैं- श्रम, समर्पण, स्वाद, विज्ञान, भावना और संस्कार। यही है गोवर्धन पूजा की आत्मा, और यही वह अदृश्य सूत्र है जो हमारे हर उत्सव को संस्कृति से जोड़ता है।
कथा
पौराणिक रूप से, ग्रामवासी पहले इंद्र की वर्षा-देवता के रूप में पूजा करते थे। पर कृष्ण ने सुझाव दिया कि प्रकृति, अन्न, पशुधन – अर्थात् गोवर्धन-पर्वत से ही जीवन चल रहा है, इसलिए उसे पूजा जाए। जब इंद्र क्रोधित होकर भारी वर्षा कर देते हैं, तब कृष्ण गोवर्धन पर्वत को अपनी मुठ्ठी पर उठा लेते हैं और लोग-पशु सुरक्षित रहते हैं। इंद्र अंततः हार स्वीकारते हैं। यह कथा हमें यह संदेश देती है – प्रकृति, अन्न-धान्य, पशुधन की महत्ता, निर्भरता तथा संयमित भक्ति की ओर।
भोग-अर्पण का सांकेतिक अर्थ
इस पूजा में अन्नकूट तैयार किया जाता है – भोजन-प्रस्तुति की एक विशाल “पहाड़ी” निर्माण की जाती है, जिसे पर्वत-प्रतीक माना जाता है। इस अन्नकूट में छप्पन-भोग का समावेश होता है, यानी ५६ प्रकार के पकवान भगवान को अर्पित किए जाते हैं। इस तरह के विशाल भोग-प्रदर्शन का उद्देश्य अपने आनंद-भोजन को भगवान को अर्पित करना, प्रकृति-पारिस्थितिकी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना तथा सामूहिक पूजा-भक्ति का अनुभव जनाना है।
सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व
इस दिन परिवार-समूह मिलकर भोजन तैयार करते हैं, मंदिरों में भोग परोसे जाते हैं, भक्त-भजन-कीर्तन होते हैं। यह लोक-संस्कृति को सजीव रखता है, समुदाय में मेल-जोल बढ़ाता है और मानव-प्रकृति-सम्बंधों को पुष्ट करता है।
आज-कल यह प्रतीकरीति केवल धार्मिक नहीं रही – इसे पर्यावरण-साक्षरता, खाद्य-सुरक्षा, पशुधन-संरक्षण के सन्दर्भ में भी देखा जा रहा है। उदाहरणस्वरूप, एक वेब लेख में कहा गया है कि गोवर्धन पूजा की कथा हमें याद कराती है कि प्रकृति हमारा आश्रय है, और हमें उसे अर्पित श्रद्धा व संरक्षण देना चाहिए।
वैज्ञानिक व मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
परंपरा-रहित किसी धार्मिक क्रिया को सिर्फ आडंबर समझना संभव है पर यदि हम उसे वैज्ञानिक व मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें, तो निम्न-पहलू सामने आते हैं:
पोषण, विविधता व भोजन-मानसिकता
छप्पन भोग में अनेक प्रकार के व्यंजन शामिल होते हैं – दाल-अनाज-फल-मिठाई-पेय-नमकीन आदि। इस तरह की विविधता भोजन-वर्गों का संकेत देती है – जैसे अनाज-दाल से कार्बोहाइड्रेट-प्रोटीन, फल-सूखे मेवे से विटामिन-मिनरल्स, दूध-दही-घी से कैल्शियम-वसा, मिठाई-पेय से सरल शर्करा-ऊर्जा। इस तरह भोजन-विविधता ने पौष्टिकता-संतुलन का संकेत देता है। इसके अतिरिक्त, भोजन को पहले अर्पित करना – यानी भगवान-मुख पर देना – यह क्रिया भोजन के प्रति उदारता-विनम्रता का मनोवैज्ञानिक संदेश देती है, जो आदतः मानसिक रूप से भोजन-आभार उत्पन्न करती है।
स्वादों की विविधता व मनोभाव
जैसा कि पिछले भाग में छः रस-सिद्धांत बताया गया – मीठा, नमकीन, खट्टा, कड़वा, कसैला, तीखा – इन सभी को शामिल करना यह संकेत है कि जीवन-स्वाद, अनुभव-विविधता, संतुलन का संदेश देता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, स्वाद-विविधता खाने की क्रिया को अधिकतम संलग्न करती है, जिससे भोजन-सम्बंधी आनंद, संतुष्टि तथा सामाजिक-आनंद उत्पन्न होता है।
सामाजिक-समुदाय व सामूहिकता
भोजन-बनाना, एक साथ बैठकर पूजा-भोजन करना, प्रसाद-वितरण करना – ये सभी क्रियाएं सामाजिक बन्धन को मजबूत करती हैं। मनोवैज्ञानिक रूप से यह लगता है कि व्यक्ति अकेले नहीं है, ‘भोग-प्रसाद’ के माध्यम से साझा होने वाला अनुभव उसे सामूहिकता-संबद्धता का अनुभव देता है, जिससे सामाजिक रिश्ते, समूह-पहचान की अनुभूति बढ़ती है।
प्रतीकात्मकता व पर्यावरण-संदेश
गोवर्धन पूजा की कथा में जहाँ प्राकृतिक-पर्वत-गोवर्धन का सम्मान है, वहीं छप्पन भोग-प्रथा में भोजन-धन्य-प्रसाद-भक्ति का मेल है। यह खाद्य-संवेदनशीलता का एक प्रतीक-कार्य है – कि हम जो खा रहे हैं, वह केवल व्यक्तिगत आनंद नहीं है, बल्कि प्रकृति-देवता-समुदाय-पशुधन द्वारा सम्भव हुआ है। इसलिए इसे अर्पित करना, उसे साझा करना, इसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करना – यह एक तरह से आज के समय में खाद्य-वेस्टेज-संकट, पशुधन-संरक्षण, पर्यावरण-सुरक्षा के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण बना सकता है। एक लेख में भी कहा गया है कि यह पर्व केवल पूजा-भक्ति नहीं, बल्कि “प्रकृति-कृतज्ञता, भरोसे-प्रकाश” का माध्यम बन सकती है।
संस्कृति-स्वास्थ्य-सम्बंध
जब हम ‘हत्या-मांसाहार’ कम करने वाले सात्विक -शाकाहारी-प्रसाद की बात करते हैं, जैसे इस अवसर पर अधिकांश जगह शाकाहारी-भोजन ही तैयार होता है, तो यह स्वास्थ्य-विज्ञान की दृष्टि से भी लाभदायी हो सकता है – पौष्टिकता-विविधता, कम मोटापा-संक्रमण-रोकथाम के दृष्टिकोण से। इसके साथ-साथ, भोजन को पहले अर्पित कर बाद में भक्तों में प्रासादित करना यह दर्शाता है कि भोजन केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि साझा-विविध अनुभव है – जो सामाजिक स्वास्थ्य को भी बढ़ावा देता है।
पौराणिक-कथा-संदर्भों से लेकर आज-के समय की सामाजिक-विज्ञान-भोजन-पर्यावरण-दृष्टि तक – छप्पन भोग और गोवर्धन पूजा एक समृद्ध धार्मिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। 56-भोजन-अर्पण की यह परंपरा केवल भौतिक भोजन नहीं, बल्कि श्रद्धा-समर्पण-विविधता-प्रकृति-भक्ति-समुदाय-संतुलन का अनुभव है। भोजन-विविधता द्वारा संतुलित पोषण-संदेश, स्वाद-विविधता द्वारा जीवन-विविधता-संदेश, अर्पण-प्रसाद द्वारा सामाजिक-संबंध-संदेश तथा प्रकृति-आश्रय-कृतज्ञता द्वारा पर्यावरण-संदेश – ये सभी इस धार्मिक क्रिया में समाहित हैं।
इस प्रकार, जब इस वर्ष आप गोवर्धन पूजा अथवा छप्पन-भोग तैयार कर रहे हों, तो यह समझ लें कि आप केवल व्यंजन नहीं बना रहे हैं, बल्कि एक संस्कृति को आगे ले जा रहे हैं – जिसमें भोजन को देवत्व, समुदाय को संबंध, प्रकृति को आदर और मन को वृहद्-संतुष्टि का भाव मिलता है।
डिस्क्लेमर : इस लेख में उल्लिखित धार्मिक मान्यताएं, परंपराएं और कथाएं पौराणिक ग्रंथों, पुराणों तथा लोक परंपराओं पर आधारित हैं। इसका उद्देश्य केवल सांस्कृतिक और सूचना-प्रसार है। इसमें वर्णित धार्मिक या आध्यात्मिक विचार किसी व्यक्तिगत आस्था या मत का प्रतिनिधित्व नहीं करते। पाठकों से अनुरोध है कि वे इसे श्रद्धा, अध्ययन और परंपरा की दृष्टि से देखें। इस लेख का वैज्ञानिक या ऐतिहासिक विश्लेषण केवल जानकारी के विस्तार हेतु प्रस्तुत किया गया है।
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