Opinion

गोमाता और योगीजी

के. विक्रम राव

महंत श्री योगी आदित्यनाथ ने अपना मातृ ऋण चुका दिया| उत्तर प्रदेश का पुराना गोवध बंदी वाला कानून तीव्रतर बनाकर सदियों से हिन्दुओं पर हो रहे भावनात्मक उत्पीड़न का अंत किया| अपने 48वें जन्मदिन (5 जून 1972) पर योगीजी ने यह नायाब तोहफ़ा प्रदेश को दिया| आखिर गाय चौपाया मात्र नहीं है| माता तुल्य है|

भाजपा के पिछले अवतार (भारतीय जनसंघ) में इसके पुरोधाओं ने गोवध बन्दी के संघर्ष से अपनी राजनीति शुरू की थी। तब जनसंघ के उदीयमान नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने लखनऊ में सत्याग्रही के रोल में जननायक बनने की मुहिम छेड़ी थी। तब स्कूली छात्र के नाते मैंने अटल जी को लालबाग चैराहे पर पुलिस की गाड़ी पर सवार होते देखा था। उनका नारा था: “कटती गौंवे करे पुकार, बन्द करो यह अत्याचार|” फिर वे जेल में रहे। तब मुख्यमंत्री थे पर्वतीय विप्र पण्डित गोविन्द वल्लभ पन्त जिन्होंने इस गोवध बन्दी के प्रदर्शनकारियों को “गांधी-हत्या के लिए दोषी-समूह द्वारा प्रेरित आन्दोलन” कहकर कुचल दिया था। उसी दिन से जनसंघ उरूज पर चढ़ता गया|

लेकिन अटल जी के बारे में एक संशय मेरा बना रहा कि केंद्र में छह वर्षों तक राज किया पर गोवध को नहीं रोका? एक बहाना जो मिल गया था। पशुधन पर कानून केवल राज्य बना सकते हैं। संविधान में यह विषय राज्य सूची में है। अचरज तो इस बात पर होता है कि गोपालक यादव राज में सिर्फ मुस्लिम वोट के खातिर गोवध की बंदी पर कड़ा कानून नहीं बनाया गया| अर्थात् मुख्यमंत्री योगीजी ने संविधान के नीतिनिर्देशक सिद्धांतों पर पूरा अमल किया|

संभवतः अटलजी गाय के मुद्दे पर अपने हीरो जवाहरलाल नेहरू से काफी प्रभावित रहे। नेहरू 6 अप्रैल 1938 को एक पार्टी अधिवेशन में घोषणा कर चुके थे कि आजादी मिलने पर कांग्रेस कभी भी गोवध पर पाबन्दी नहीं लगायेगी। जब आजाद भारत की संसद में गोवध बन्दी हेतु कानून का प्रस्ताव आया था तो नेहरू ने सदन में धमकी दी थी कि वे “प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे देंगे। सरकार गिर जाय तो उसकी भी परवाह नहीं करेंगे” तब जबलपुर के सांसद सेठ गोविन्द दास का विधेयक पेश (2 अप्रैल 1955) हुआ था। हालांकि गुलाम भारत में दो दावे किये जा चुके थे| गांधी जी ने कहा था कि “जो गाय बचाने के लिये तैयार नहीं है, उसके लिये अपने प्राणों की आहुति नहीं दे सकता, वह हिन्दू नही है|” उधर मुस्लिम लीगी नेता मोहम्मद अली जिन्ना से पूछा गया कि वे पाकिस्तान क्यों चाहते है ? उनका उत्तर था, “ये हिन्दू लोग हमसे हाथ मिलाकर अपना हाथ साबुन से धोते हैं और हमे गोमांस नहीं खाने देते। मगर पाकिस्तान में ऐसा नही होगा|”

गाय की उपादेयता पर सदियों से चर्चा, शोध कार्य तथा प्रमाण पेश किये जा चुके हैं। पैगम्बरे इस्लाम की मशहूर राय भी है कि “अकरमल बकर काइलहा सैय्यदुल बहाइम” अर्थात “गाय का आदर करों, क्योंकि वह चैपाये की सरदार है।“ भारत के इस्लामिक सेन्टर के वरिष्ठ सदस्य मौलाना मुस्ताक ने लखनऊ प्रेस क्लब में (14 फरवरी 2012) कहा था कि, “नबी ने गोमूत्र पीने की सलाह दी थी। इससे बीमार ठीक हो गया था|” काउंसिल ऑफ़ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (सीएसआईआर) ने अपनी सहयोगी सस्थाओं के साथ मिलकर गोमूत्र के पेटेंट हेतु आवेदन किया है। लोकसभा में एक प्रश्न के जवाब में तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री श्री गुलाम नबी आजाद ने बताया था कि शोध में पाया गया है कि पंचगव्य घृत पूरी तरह सुरक्षित तथा कैंसर के इलाज में बहुत प्रभावी है। पश्चिमी वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है कि कार्बोलिक एसिड होने के कारण गोमूत्र कीटनाशक होता है। अमरीकी वैज्ञानिक मैकफर्सत ने 2002 में गोमूत्र का पेटेन्ट औषधि के वर्ग में करा लिया था। (क्रमांक संख्या 6410059 है)। चर्म रोग के उपचार में यह लाभप्रद पाया गया है। गाय को सचल दवाखाना कहा गया है। मेलबोर्न विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक मैरिट क्राम्स्की द्वारा हुये शोध से निष्कर्ष निकला कि गाय के दूध को फेंटकर बने क्रीम से एचआईवी से सुरक्षा होती है। पंचगव्य पदार्थों के गुण सर्वविदित हैं। मसलन गोबर से लीपी गई जमीन मच्छर मक्खी से मुक्त रहती है। महान नृशास्त्री वैरियर एल्विन ने निजी प्रयोग द्वारा कहा था कि दही से बेहतर पेट दर्द शान्त करने का उपचार नहीं है। एल्विन ने सारा जीवन पूर्वोत्तर के आदिवासियों के बीच बिताया। उनकी पत्नी भी भारतीय आदिवासी थी। अफ्रीकी इस्लामी राष्ट्र नाईजीरिया ने भारत के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की सरकारी यात्रा पर अनुरोध किया था कि पूर्वी उत्तर प्रदेश की तीन हजार गंगातीरी गाय को भेज दें। उस नस्ल की गाय का दूध, दही और मक्खन स्वास्थ्यवर्धक होता है। ये सारे तथ्य उन प्रगतिवादी भारतीयों के लिए हैं जिनकी मानसिकता अभी भी मध्ययुगीन है। नई सदी की दहलीज तक नहीं पहुंची है। वे लोग गोरक्षा के मुद्दे को हिन्दु संप्रदायवाद तथा कदीमी सोच की धुरी समझते हैं।

मुसलमानों का गाय के प्रति नजरिये का पूर्वाभास मुंशी प्रेमचंद को सौ साल पहले हो गया था जब उनके उपन्यास में एक मुस्लिम ने अपनी गाय को इस्लामी कसाई के हाथ बेचने से साफ मना कर दिया था क्योंकि वह उसका गोश्त बेच देता। उसने हिन्दू के हाथ गाय दे दी, सुरक्षा हेतु। कुरान के कुछ जानकार इब्नेसनि और हाकिम अबू नईम खुद पैगम्बर की उक्ति की चर्चा करते हैं कि, “लाजिम कर लो कि गाय का दूध पीना है, क्योंकि वह दवा है। गाय का घी शिफा है, और बचो गाय के गोश्त से चूंकि वह बीमारी पैदा करता है|” हजरत इमाम आजम अबु अनीफा ने (हदीस क्रमांक: 494.4) लिखा है कि, “तुम गाय का दूध पीने के पाबन्द हो जाओ। चूंकि गाय अपने दूध के अन्दर सभी तरह के पौधों के सत्व को रखती है|”

गत एक दशक पूर्व की वाणिज्यीय दृष्टि से गो-धन की दशा का विश्लेषण करें तो सत्तासीन लोगों की नफा कमाने की लोलुपता जगजाहिर होती है। मनमोहन सिंह सरकार के योजना आयोग ने बारहवीं पंच-वर्षीय योजना में बूचडखानों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि का लक्ष्य तय किया था। सरदार मान्टेक सिंह अहलूवालिया पशु कत्लगाहों के आधुनिकीकरण हेतु अरबों रूपयों की राशि आवंटित कर चुके थे। लाइसेंस में भी बढ़ोत्तरी का आदेश दे दिया था। वे भूल गये कि उनके गुरू तेगबहादुर ने गोरक्षा हेतु अपना सर कटवा दिया था जो दिल्ली के चाँदनी चौक में गुरूद्वारा सीसगंज में आराध्य हैं। अतः अब मंथन करना होगा कि गाय अथवा कुत्ता पालना और (रेस के घोड़ो का) तबेला या गौशाला बनाना ? कौन सा होगा भारत की संस्कृति के विकास का मानक ? राष्ट्र को जवाब चाहिए|

K Vikram Rao
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