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भोजपुरी फिल्मों का घटिया तकनीकी स्तर: गुणवत्ता से समझौता, इंडस्ट्री की बदनामी

  • घटिया कैमरा, कमजोर एडिटिंग और नकली एक्शन ने फिल्म की चमक छीनी
  • दर्शक कहते हैं – “भोजपुरी फिल्म का मतलब घटिया प्रोडक्शन”
  • तकनीकी सुधार के बिना इंडस्ट्री का भविष्य अंधकारमय

भोजपुरी सिनेमा की बदनामी की वजह सिर्फ अश्लील गाने या फूहड़ कहानी ही नहीं है, बल्कि तकनीकी स्तर की कमजोरी भी है। कैमरा वर्क, एडिटिंग, साउंड और एक्शन सीक्वेंस इतने कमजोर होते हैं कि दर्शक थिएटर में बैठकर कह उठते हैं—“ये तो लोकल सीडी फिल्म जैसी लग रही है।” कभी हिंदी और दक्षिण भारतीय फिल्मों के तकनीकी स्तर से प्रेरणा लेने की बजाय भोजपुरी निर्माता शॉर्टकट अपनाते हैं। नतीजा यह है कि फिल्म की पूरी पैकेजिंग घटिया लगती है। फिल्म की रिलीज़ पोस्टर से लेकर पर्दे पर प्रस्तुति तक, हर जगह क्वालिटी की कमी साफ दिखती है।

आज जब हिंदी, तेलुगु, तमिल और यहाँ तक कि मराठी सिनेमा भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तकनीकी उत्कृष्टता के लिए पहचाने जा रहे हैं, भोजपुरी सिनेमा अभी भी 90 के दशक की तकनीकी दुनिया में अटका हुआ लगता है। दर्शक टिकट लेकर हॉल में बैठते हैं, लेकिन फिल्म के दृश्य और ध्वनि उन्हें मोबाइल पर बने यूट्यूब वीडियो जैसे लगते हैं। युवा दर्शक खुलेआम कहते हैं—“भोजपुरी फिल्म का मतलब घटिया प्रोडक्शन।” यह धारणा इंडस्ट्री की जड़ों को खोखला कर रही है।

तकनीकी स्तर का गिरता इतिहास

1960–80 का दौर:

  • सीमित साधन थे, लेकिन ईमानदारी और मेहनत से फिल्में बनती थीं।
  • उस दौर की कैमरा वर्क और गीत-संगीत आज भी जीवंत लगते हैं।

2004 के बाद:

  • फिल्में बड़ी संख्या में बनने लगीं, लेकिन तकनीकी सुधार नहीं हुआ।
  • निर्माता मानने लगे कि “गाना और हीरो-हीरोइन काफी हैं, तकनीक पर खर्च क्यों करें।”

कैमरा और सिनेमेटोग्राफी की हालत

  • सस्ते कैमरों से शूटिंग।
  • फ्रेमिंग और एंगल का ज्ञान न रखने वाले कैमरामैन।
  • रोशनी और लोकेशन का सही इस्तेमाल नहीं।
  • नतीजा: फिल्म का दृश्य टीवी सीरियल से भी कमजोर दिखता है।

एडिटिंग और वीएफएक्स की कमजोरी

एडिटिंग इतनी जल्दबाज़ी में होती है कि दृश्य आपस में जुड़ते ही नहीं।
वीएफएक्स सस्ते सॉफ्टवेयर से बनाए जाते हैं, जो मज़ाक बनकर रह जाते हैं।
लड़ाई के सीन में खून और धमाके ऐसे लगते हैं जैसे बच्चों का खेल।

साउंड और डबिंग की समस्या

  • ध्वनि रिकॉर्डिंग बेहद कमजोर।
  • कई बार संवाद सुनाई तक नहीं देते।
  • डबिंग इतनी खराब कि होंठ और आवाज़ मेल नहीं खाते।
  • गानों का मिक्सिंग बेसुरा और कानफाड़ू।

एक्शन का घटिया स्तर

  • रस्सी से लटकते हीरो, लेकिन एडिटिंग इतनी खराब कि दर्शक हँसने लगते हैं।
  • गोली चलती है, लेकिन धुआँ और असर गायब।
  • मारधाड़ के दृश्य नकली लगते हैं।

दर्शकों की प्रतिक्रिया

  • दर्शक थिएटर छोड़कर मोबाइल पर हिंदी-दक्षिण भारतीय फिल्में देखना पसंद करते हैं।
  • सोशल मीडिया पर भोजपुरी फिल्मों का मज़ाक उड़ाया जाता है।
  • दर्शक कहते हैं—“हम टिकट खरीदकर शर्मिंदगी क्यों उठाएँ?”

निर्माता की मानसिकता

  • तकनीकी सुधार पर खर्च नहीं करना चाहते।
  • मानते हैं कि “भोजपुरी दर्शक सस्ता भी पसंद कर लेंगे।”
  • अल्पकालिक बचत, लेकिन दीर्घकालिक नुकसान।

बॉक्स आइटम – सरकारी सहयोग की कमी

  • अन्य भाषाई सिनेमा को सरकारी सहयोग और सब्सिडी मिलती है।
  • भोजपुरी सिनेमा को गंभीरता से नहीं लिया गया।
  • तकनीकी संस्थानों और प्रशिक्षण की कमी।

समाधान क्या है?

  • तकनीकी उन्नयन पर निवेश करना होगा।
  • युवा फिल्म निर्माताओं को आधुनिक उपकरणों और ट्रेनिंग से जोड़ा जाए।
  • अच्छे सिनेमेटोग्राफर और एडिटरों को मौका दिया जाए।
  • सरकार और समाज मिलकर तकनीकी सुधार में सहयोग दें।

भोजपुरी सिनेमा का संकट सिर्फ विषयवस्तु का नहीं, बल्कि तकनीकी स्तर का भी है। जब तक कैमरा, एडिटिंग, साउंड और एक्शन का स्तर नहीं सुधरेगा, तब तक भोजपुरी फिल्मों की छवि “लोकल और घटिया” से ऊपर नहीं उठेगी।

“भोजपुरी सिनेमा बचाओ” मुहिम का छठा दिन इसी चेतावनी के नाम— “तकनीकी स्तर सुधारिए, तभी सिनेमा की साख लौटेगी।”

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