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चुपचाप बढ़ता खतरा: मोटापा और फैटी लिवर की महामारी

भारत में तेजी से बढ़ रही मोटापा और फैटी लिवर की समस्या अब हर उम्र और तबके के लोगों को प्रभावित कर रही है। बदलती जीवनशैली, शारीरिक गतिविधि में कमी, बाहर का तला-भुना खाना और स्क्रीन-टाइम बढ़ने से Non-Alcoholic Fatty Liver Disease (NAFLD) का खतरा लगातार बढ़ रहा है। शुरुआत में कोई विशेष लक्षण नहीं दिखते, इसलिए लोग इसे नज़रअंदाज़ कर देते हैं। लेकिन समय रहते ध्यान न दिया जाए तो यह लिवर कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों में बदल सकता है। नियमित जांच, व्यायाम और संतुलित भोजन से इसे रोका जा सकता है। स्वस्थ लिवर, स्वस्थ जीवन का आधार है।

  • बदलती जीवनशैली, जंक-फूड की आदत और बढ़ता स्क्रीन-समय हमारे लिवर को गंभीर नुकसान पहुँचा रहे हैं – पहचान और जागरूकता ही बचाव का पहला कदम है।

जब हम “मोटापा”, “टीवी-स्क्रीन”, “ऑफिस-लाइफ” और “जंक-फूड” जैसे शब्द सुनते हैं, तो शायद सबसे पहले हमें दिल-मधुमेह-उच्च-रक्तचाप आता है। लेकिन एक ऐसा अंग है – हमारा लिवर (यकृत) – जिसे हम बहुत कम सोचते हैं, और वह आज हमारी बदलती जीवनशैली का खामोशी से (silent) शिकार बन रहा है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि भारत में लगभग एक तिहाई वयस्कों और बच्चों में Non‑Alcoholic Fatty Liver Disease (NAFLD) या उसके रूपांतर पाए जा रहे हैं। यह सिर्फ एक “लिवर की चर्बी बढ़ना” नहीं है – बल्कि आगे चलकर यकृत सूजन, फाइब्रोसिस, ज़हर-असर और यहाँ तक कि लिवर कैंसर का जोखिम भी बन सकती है।

राष्ट्रीय तस्वीर: आंकड़े बतलाते क्या हैं?

भारत में NAFLD का बड़ा बोझ है। एक विश्लेषण के अनुसार, वयस्कों में इसका अनुमानित संयुक्त प्रसार 38.6 % है। बच्चों में भी यह लगभग 35.4 % पाया गया है। हालांकि विभिन्न अध्ययन-रिपोर्ट में प्रसार 8-9 % से लेकर 50 % से ऊपर तक भी पाया गया है – यानी स्थिति राज्य-क्षेत्र, शहरी-ग्रामीण, चुनिंदा-उच्च-जोखिम समूह पर काफी निर्भर है।

उदाहरण के लिए: एक अध्ययन में उत्तरी भारत के ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में यह पाया गया कि NAFLD का प्रसार ग्रामीण में 29.2 % तथा शहरी में लगभग 40.0 % था। इसके अलावा, यह पाया गया है कि मोटापे/ओवरवेट, मधुमेह, मेटाबॉलिक सिंड्रोम जैसे जोखिम-कारकों वाले लोगों में इसका प्रसार काफी अधिक है – उच्च-जोखिम समूह में अनुमानित 52.8 % तक भी पाया गया।

इसे समझना इसलिए जरूरी है क्योंकि इसका अर्थ यह नहीं कि “हममें से एक-तीस है” मात्र एक सांख्यिकीय मामला है – बल्कि यह हमारे समुदाय, परिवार, दोस्तों में नजर आने वाला वास्तविक स्वास्थ्य-क्राइसिस बनता जा रहा है।

जीवनशैली-परिवर्तन और कारण

NAFLD का कारण पारंपरिक रूप से शराब-अल्कोहल-निर्भर लिवर समस्या से अलग है। यह “गैर-शराबी फैटी लिवर” नामक स्थिति है जिसमें व्यक्ति शराब नहीं पी रहा होता या बहुत कम शराब ले रहा होता है, लेकिन उसके लिवर में चर्बी जमा हो जाती है। इसके पीछे मुख्य रूप से मेटाबॉलिक (चयापचयी) जोखिम-कारक काम करते हैं।

मुख्य कारण नीचे दिए जा सकते हैं:

  • मोटापा / ओवरवेट, विशेषकर पेट की चारों ओर चर्बी (सेंट्रल ऑबेसिटी) – शोध बताते हैं कि जितना अधिक BMI या कमचल जीवनशैली होगी, उतना ही जोखिम बढ़ता है।
  • इन्सुलिन-रोधीता (Insulin resistance), मधुमेह (type 2) का विकास, उच्च रक्तचाप, असमान रक्त-लिपिड (डिस्लिपिडेमिया) – ये सारे मेटाबॉलिक सिंड्रोम के घटक NAFLD के प्रमुख सह-कारक बने हुए हैं।
  • खान-पान के रुझान: अधिक तला-भुना भोजन, जंक-फूड, अतिरिक्त मीठा, उच्च कैलोरी, सफेद कार्बोहाइड्रेट का अधिक सेवन आदि।
  • कम-शारीरिक सक्रियता: मॉडर्न जीवन में कार्यालय-काम, स्क्रीन-स्मार्टफोन-टीवी समय में वृद्धि, चलने-फिरने का कम होना।
  • शहरीकरण और जीवनशैली बदलाव: शहरों में सुविधाएँ बढ़ीं, लेकिन साथ-ही साथ जीवनशैली ऐसी हुई कि जोखिम-फैक्टर बढ़ गए – यह ग्रामीण-शहरी दोनों जगह महसूस हो रहा है।

इन कारणों के चलते, लिवर अब सिर्फ “शराबी अंग” नहीं रहा – बल्कि हमारे मेटाबॉलिक स्वास्थ्य, जीवनशैली-चयन, खान-पान-शेड्यूल के सीधे नतीजे का अंग बन गया है।

उत्तर-भारत/उत्तर-प्रदेश-संदर्भ में स्थिति

जहाँ राष्ट्रीय आंकड़े चिंताजनक हैं, वहाँ उत्तर-भारत में स्थितियां विशेष रूप से असरदार हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, जैसे-जैसे शहरों-गाँवों में जीवनशैली बदल रही है – बाहर खाने-पीने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, मोबाइल/टीवी-स्क्रीन का समय बढ़ा है, sedentary (कमचल) काम बढ़ा है – वहीं स्वास्थ्य-जागरूकता और जांच-सेवाओं की पहुँच अभी उतनी व्यापक नहीं है जितनी कि महानगरों में।

एक उत्तर-भारतीय अध्ययन में पाया गया कि शहरी व ग्रामीण आबादी में NAFLD का प्रसार काफी है – “Rural-Urban differentials in prevalence…” नामक अध्ययन में यह निष्कर्ष मिला कि ग्रामीण व शहरी वयस्कों में NAFLD मौजूद है और मेटाबॉलिक जोखिम-कारकों के साथ जुड़ी है।  इसका मतलब यह है कि उत्तर-प्रदेश-के शहर-गाँवों में यह समस्या बहुत दूर नहीं है – बल्कि यह हमारे पाठकों के-बीच-होने योग्य है।

उत्तर-प्रदेश जैसे राज्य में, जहाँ स्वास्थ्य-सुविधा, जागरूकता व जीवनशैली-परिवर्तन की गति कुछ पीछे हो सकती है, वहां यह अवसर और चुनौती दोनों हैं। उदाहरण के लिए: —

  • पारंपरिक भोजन-संस्कृति अब बदल रही है – घर-में बनाने के बजाय बाहर का भोजन, तली-भुनी-व शुगर-युक्त वस्तुओं का बढ़ना।
  • परिवार-का-समय कम रह गया है – काम-स्थल, ट्रैफिक-स्मार्टफोन-स्क्रीन-घंटे बढ़ गए हैं।
  • स्वास्थ्य-जांच प्रति सक्रियता कम हो सकती है – “मुझे तो कुछ नहीं हुआ”, “थोड़ा आराम कर लूँगा” जैसे रवैये हो सकते हैं।
  • ग्रामीण-शहरी सम्पर्क बढ़ने से जीवनशैली-रुझान गाँवों-में भी पहुँच रहे हैं – जिससे ये समस्या सिर्फ शहरों-की नहीं रही।

इन सब कारणों से, आपके कॉलम के पाठक-समुदाय (काशी/वाराणसी/उत्तर-प्रदेश) में यह विषय “मेरा-मेरा जीवन-मे” जुड़ने योग्य रहेगा – क्योंकि यह दूर-की बीमारी नहीं बल्कि आज-के हमारी जीवनशैली-चयन का प्रतिफल है।

समस्या की परिणति: चुप्पी के साथ बढ़ना

यह समस्या अक्सर चुप होती है – यानी शुरुआत में लक्षण बहुत हल्के होते हैं, इसलिए लोग इसे अनदेखा करते हैं। जब तक हालत यह तक न पहुँच जाए कि यकृत को स्थायी नुकसान हो रहा हो, तब तक अक्सर समझ नहीं आता। उदाहरण के लिए, केवल लिवर-एंजाइम्स सामान्य रह सकते हैं, लेकिन भीतर-ही-भीतर चर्बी, सूजन, फाइब्रोसिस बढ़ सकती है।

इसके परिणामस्वरूप —

  • यकृत फाइब्रोसिस (scarring) हो सकती है, जिससे लिवर कार्यक्षमता कम हो जाती है।
  • आगे चलकर सायरा (cirrhosis), लिवर-कैंसर का जोखिम बढ़ जाता है।
  • साथ-ही, NAFLD का संबंध अन्य रोगों से भी है — जैसे हृदय-रक्तवाहिनी रोग, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, गुर्दा रोग आदि।

एक स्वास्थ्य-कार्यशाला में Sanjay Gandhi Postgraduate Institute of Medical Sciences (SGPGIMS), लखनऊ के प्रो. गौरव पांडेय ने स्पष्ट किया कि लिवर फाइब्रोसिस कैंसर का जोखिम 3-4 गुना तक बढ़ा सकती है।  इसी तरह, मध्य प्रदेश के स्क्रिनिंग-प्रोग्राम में लाखों लोग “फैटी लिवर के संभावित जाल” में पाए गए थे।यह संकेत है कि समय रहते जागरूकता, पहचान और कार्रवाई करना बेहद महत्वपूर्ण है – क्योंकि “थोड़ा बढ़ी हुई चर्बी” किसी मजाक की बात नहीं बल्कि भविष्य-का गंभीर स्वास्थ्य-खतरा हो सकती है।

समय रहते पहचान: यह कैसे पता चले?

चूंकि शुरुआत में लक्षण अक्सर बेहद हल्के या गैर-विशिष्ट होते हैं, इसलिए “कहीं-कुछ ठीक नहीं है” की चेतना पैदा करना ज़रूरी है। नीचे कुछ संकेत दिए जा रहे हैं, जिन पर लोग खुद-पर ध्यान दे सकते हैं:

  • लगातार थकान, कुछ आराम करने के बाद भी ऊर्जा-घट जाना।
  • पेट के आसपास चर्बी का जमाव – विशेष रूप से “मिड-सेक्शन” (कमर) बढ़ जाना, अंदरूनी चर्बी का संकेत।
  • भोजन के बाद जल्दी भरा-भरा महसूस होना, दाएँ ऊपरी पेट में हल्की असहजता या भारीपन।
  • अचानक भूख बढ़ जाना, फिर अचानक थकान या ऊर्जा-क्रैश महसूस होना – जो इन्सुलिन-रोधीता का प्रमाण हो सकता है।
  • स्क्रीन-समय बहुत अधिक होना, व्यायाम-समय कम होना, बाहर-खाने का समय बढ़ना – ये प्रत्यक्ष रूप से जोखिम-वर्धक व्यवहार हैं।

हल-और-उपाय: हम क्या कर सकते हैं?

चूंकि यह समस्या जीवनशैली-संग जुड़ी है, इसलिए समाधान भी जीवनशैली-आधारित ही हैं – और अच्छी खबर यह है कि बदलाव से आरंभिक अवस्था में इसे पलटा जा सकता है या उसकी गति धीमी की जा सकती है।

खान-पान में बदलाव

  • तला-भुना, जंक-फूड, फ्राईड स्नैक्स, बीसिगरी-शुगरयुक्त पेय-पदार्थों का सेवन कम करें।
  • फाइबर-युक्त भोजन (फल, सब्जियाँ, पूरे अनाज) को प्राथमिकता दें।
  • मीठे/प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों की जगह घर-का खाना बढ़ाएँ।
  • संतुलित भोजन-शेड्यूल: नियमित समय पर खाना, अत्यधिक देर तक भूखा न रहना।
  • पानी पर्याप्त मात्रा में पिएँ, शराब-सेवानुवर्ती सामाजिक आदतों पर नियंत्रण रखें।

शारीरिक सक्रियता व व्यायाम

कम-से-कम प्रति सप्ताह 5 दिन, 30-45 मिनट की मध्यम गति-वाली गतिविधि (जैसे तेज-चलना, साइक्लिंग, तैराकी) बनाएँ।
यदि समय कम है, तो छोटे-छोटे ब्रेक-वॉक, सीढ़ियाँ चढ़ना- उतरना, ऑफिस-ब्रेक में हल्का व्यायाम करें।
स्क्रीन-समय (टीवी/मोबाइल) को सीमित करें – विशेष रूप से शाम-वक्त हल्की-हल्की गति-क्रिया करें।

समय-समय पर जांच-पड़ताल

  • BMI/कमर-माप (waist-circumference), रक्त-शक्कर, ट्राइग्लिसराइड/HDL आदि निगरानी में रखें।
  • यदि लक्षण या जोखिम-कारक मौजूद हों – तो डॉक्टर से सलाह लें, लिवर-एंजाइम-चेक, अल्ट्रासाउंड आदि पर विचार करें।
  • कंपनियों/कार्यस्थलों/सरकारी कार्यक्रमों में स्वास्थ्य-स्क्रीनिंग को बढ़ावा दें – जैसे मध्य प्रदेश में स्क्रीनिंग-प्रोग्राम था।

सामाजिक-समुदाय स्तर पर

  • स्कूल-कॉलेजों में जीवनशैली-शिक्षा शामिल करें – “शक्तिशाली लिवर” किस तरह बने, जंक-फूड-नियंत्रण, व्यायाम-आदतें।
  • कार्यस्थलों में स्वास्थ्य-ब्रेक, व्यायाम-ब्रेक, स्व-नियंत्रित लंच-शेड्यूल को बढ़ावा दें।
  • मीडिया/समाचार-पोर्टल्स में जागरूकता-प्रसार करें – यह सिर्फ डॉक्टर-का मामला नहीं है, यह आम-व्यक्ति-का मामला है।
  • स्थानीय स्वास्थ्य-केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य-कार्यकर्ता सक्रिय हों – ग्रामीण-क्षेत्रों में पहुँच बढ़ानी होगी, क्योंकि यहाँ जागरूकता कम हो सकती है।

चुनौतियाँ और असलियत

हल-उपाय मौजूद हैं, लेकिन इसे तपोबनी रिपोर्ट नहीं बताया जाना चाहिए – चुनौतियाँ भी पर्याप्त हैं:

  • लोगों की आदतें जल्दी नहीं बदलती – जंक-फूड-संस्कृति, “बहुत काम”, “कम समय” जैसे व्यवहार लम्बे समय से बिल्ट- इन हैं।
  • स्वास्थ्य-सेवाओं/स्क्रीनिंग-सेवाओं की पहुँच अभी भी राज्यों-व जिलों में असमान है – विशेषकर ग्रामीण-भागों में।
  • लक्षण कभी-कभी इतने हल्के होते हैं कि लोगों द्वारा अनदेखा किये जाते हैं – इसलिए “थोड़ी थकान” या “मोटापा बढ़ना” को नजरअंदाज किया जाता है।
  • “मोटापा”-बात तो चारों ओर है, लेकिन “लिवर-चर्बी” जैसे विषय कम चर्चा में है – इसलिए जागरूकता-अभाव मौजूद है।
  • आर्थिक-सामाजिक कारक भी काम करते हैं – समय कम है, बाहर-खाना सस्ता और सुविधाजनक है, व्यायाम-सुविधा हर जगह नहीं है।
  • राज्य-नीति/स्वास्थ्य-नीति में प्राथमिकता देना अभी बाकी है – उदाहरणस्वरूप, बहुत सारे लोग यह नहीं जानते कि NAFLD इतना आम हो गया है।

इन चुनौतियों के कारण, केवल “बताने” से काम नहीं चलेगा – बल्कि “किसी छोटे-परिवर्तन से शुरुआत” करना होगा, “समुदाय-में जागरूकता” बढ़ानी होगी।

उत्तर-प्रदेश, उन-लोगों के बीच जहाँ पारिवारिक जीवन, भोजन-संस्कृति और सामाजिक-समय का असर बहुत-है। इसलिए यह संदेश खास है:

  • यदि आपने महसूस किया है कि आपका कमर-माप बढ़ गया है, पेट चारों ओर चर्बी जमा हो रही है, भूख-शेड्यूल बिगड़ा है, ऊर्जा कम हो रही है – तो इसे ध्यान देने योग्य संकेत समझें।
  • अपने परिवार-सदस्यों, खासतौर-पर बच्चों/युवाओं में इस तरह की प्रवृत्तियों पर अभिरुचि रखें – “थोड़ा जंक-फूड”, “स्क्रीन-समय”, “कमचलना” देखकर कहने में संकोच न करें।
  • हमारे शहर-गाँव-परिसर में व्यायाम-सुविधाएं कम-हो सकती हैं – तो हल्के-चलने-फिरने-के तरीके अपनाएँ। घर के पास पार्क-घुमना, सुबह-जल्दी उठना, शाम-में हल्की-सैर आदि।
  • खान-पान-परिवार में चर्चा करें – बच्चा-युवाओं को समझाना कि ‘स्वस्थ लिवर’ क्या है, क्यों ज़रूरी है।
  • अपने डॉक्टर/स्वास्थ्य-कर्मी से पूछें: क्या मैं लिवर-चेक अप कराना चाहता/चाहती हूँ? कमर-माप, ब्लड-शुगर, ट्राइग्लिसराइड्स आदि जाँचना बेहद फायदेमंद हो सकता है।
  • याद रखें: अभी शुरुआत है – जब तक समस्या बहुत बढ़ी नहीं है, इसे हल्के में लेना नहीं चाहिए। आज छोटे-परिवर्तन कल बड़ा फर्क लाइएगा।

हमारी बदलती जीवनशैली – जिसमें जंक-फूड-भोजन, स्क्रीन-समय-बढ़ना, चलना-फिरना कम होना, काम-दबाव-बढ़ना आदि शामिल हैं – ने लिवर को सिर्फ “वहाँ रखा हुआ अंग” से “समय-कैच स्वास्थ्य-हॉटस्पॉट” बना दिया है। भारत में NAFLD जैसे मेटाबॉलिक-लिवर रोगों का प्रसार तेजी से बढ़ रहा है – और यह सिर्फ महानगरों की समस्या नहीं रहा। गाँव-शहर, युवा-बुज़ुर्ग, सब-को प्रभावित कर रहा है।

लेकिन अच्छी खबर यह है कि नियंत्रण संभव है। खान-पान-चयन, नियमित व्यायाम, समय-समय पर स्वास्थ्य-जांच – इन सरल कदमों से हम लिवर-स्वास्थ्य को बेहतर बना सकते हैं। यदि हम आज प्रयास करें, तो कल-का जोखिम कम होगा।

इसलिए – आइए हम अपने-अपने जीवन में एक स्वस्थ-लिवर विकल्प चुनें। छोटे-छोटे फैसले करें: शाम को एक सैर, दो कमर-माप-सेंटीमीटर कम करना, जंक-फूड-की जगह फल/सब्जी, टीवी-बदलकर चलना-फिरना। यह बड़े स्तर पर हमारे परिवार-समाज-प्रदेश के स्वास्थ्य को बदलने की दिशा में पहला कदम हो सकता है।

मोटापा सिर्फ दिखावट-मामला नहीं है – यह हमारे अंदरूनी स्वास्थ्य-क्राइसिस का संकेत है। और फैटी लिवर आज-कल की चुपचाप-बढ़ने वाली सफ़र में है। इसे अनदेखा न करें।

आज से शुरू करें – अपने-लिवर की रक्षा करें।

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डिस्क्लेमर:इस लेख में दी गई जानकारी केवल सामान्य स्वास्थ्य-जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित की गई है। यह किसी भी प्रकार की चिकित्सीय सलाह, निदान या उपचार का विकल्प नहीं है। यदि आपको अपने स्वास्थ्य या लक्षणों को लेकर कोई चिंता है, तो कृपया योग्य चिकित्सा विशेषज्ञ या डॉक्टर से परामर्श अवश्य करें। लेख में उल्लिखित डेटा व जानकारी विभिन्न शोध व सार्वजनिक स्रोतों पर आधारित है, जिनमें समय-समय पर परिवर्तन संभव है। प्रकाशक/लेखक किसी भी स्व-उपचार या गलत व्याख्या से होने वाली प्रत्यक्ष या परोक्ष क्षति के लिए उत्तरदायी नहीं होंगे।

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