गौ-सेवा का वैज्ञानिक आधार : पद्मगंधा गाय से पंचगव्य तक का सत्य
भारत में गौ-सेवा अब केवल धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि वैज्ञानिक शोध का विषय बन चुकी है। वैदिक युग से लेकर आज तक गाय को जीवन, स्वास्थ्य और पर्यावरण संतुलन का केंद्र माना गया है। पद्मगंधा गाय की कथा से लेकर पंचगव्य के औषधीय प्रयोगों तक, विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि गाय का हर अंश उपयोगी और जीवनदायी है। यह रिपोर्ट बताती है कि गौ-संस्कृति न केवल श्रद्धा, बल्कि पृथ्वी के जैविक और मानवीय संतुलन का आधार है - जहाँ धर्म और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं।
- जहाँ आस्था और अनुसंधान एक साथ चलते हैं – पद्मगंधा गाय की पौराणिक कथा से लेकर गोमूत्र, गोबर और पंचगव्य के आधुनिक वैज्ञानिक परीक्षण तक, भारत में गौ-सेवा धर्म से आगे बढ़कर विज्ञान का रूप ले चुकी है।
भारत की आत्मा में बसी ‘गौ-संस्कृति’ : भारत की सभ्यता का कोई भी पन्ना पलटिए, गाय (गौ) का उल्लेख हर युग, हर ग्रंथ और हर जन-स्मृति में मिलता है। गाय यहाँ केवल पशु नहीं, बल्कि जीवन का प्रतीक है – अन्न, अर्थ, आरोग्य, अध्यात्म और आत्मा का स्रोत। वैदिक युग से लेकर आधुनिक भारत तक, गौ-संरक्षण और गौ-सेवा केवल धार्मिक कर्म नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का आधार रही है। कृष्ण-युग से लेकर महात्मा गांधी तक, गाय के प्रति प्रेम और सम्मान को राष्ट्र-आत्मा की संवेदना माना गया है। गांधीजी ने कहा था – “गाय भारतीय संस्कृति का सबसे जीवित प्रतीक है।”
वैदिक युग में गाय का स्वरूप : ‘अन्नस्य माता’
ऋग्वेद में कहा गया है – “गावो विश्वस्य मातरः।” अर्थात् – गायें सम्पूर्ण विश्व की माता हैं। अथर्ववेद में गाय को “धन की जननी” कहा गया है, वहीं यजुर्वेद में उल्लेख है कि गाय के दूध से यज्ञ-होम और औषधि दोनों संभव हैं। वैदिक समाज में गायें संपत्ति का प्रमुख मापदंड थीं। युद्धों और वाणिज्यिक आदान-प्रदान में ‘गावः’ का ही उल्लेख होता था। ‘गविष्टि’ शब्द का अर्थ था – गायों के लिए युद्ध। सप्तऋषियों के आश्रमों में गौ-पालन एक अनिवार्य कर्तव्य था। हर गृहस्थ के पास गाय होना आवश्यक माना गया।
पौराणिक ग्रंथों में गौ-सेवा का महात्म्य
स्कंद पुराण, पद्म पुराण, नारद पुराण, गरुड़ पुराण, और ब्रह्मवैवर्त पुराण – सभी में गौ-सेवा और गौ-दान का विस्तार से वर्णन मिलता है। स्कंद पुराण में कहा गया है – “गवां मध्ये वसत्येषां सर्वदेवानां समागमः।” अर्थ – गायों में सभी देवताओं का वास है। गरुड़ पुराण कहता है कि जो व्यक्ति मृत्यु से पूर्व गौ-सेवा करता है, उसे मोक्ष प्राप्त होता है। महाभारत के अनुशासन पर्व में भी भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं कि – “गौः सर्वदेवमयी, सर्वतीर्थमयी च।” श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णन है कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने गोकुल और वृंदावन की गोचारण-भूमि पर गायों के बीच अपना बचपन बिताया।
पद्मगंधा गाय : भगवान श्रीकृष्ण की प्रिय गौ माता
ब्रज-क्षेत्र की परंपराओं में एक विशेष गाय का नाम मिलता है – “पद्मगंधा”। मान्यता है कि यह वही दिव्य गाय थी जिसका दूध भगवान श्रीकृष्ण पीते थे। कथानुसार, जब नंदबाबा के गोशाला में सवा लाख गायें थीं, उनमें सबसे पवित्र और दुग्ध-संपन्न गाय पद्मगंधा थी। उसका शरीर श्वेत, सींग और खुर काले रंग के थे, और उसकी सुगंध दूर-दूर तक फैलती थी। लोककथाओं के अनुसार, पद्मगंधा पूर्व जन्म में एक देवी थीं जिन्हें वरदान मिला था कि वे कृष्णावतार में भगवान को मातृवत् दूध पिलाने का सौभाग्य पाएँगी। भागवत महापुराण में कृष्ण-लीलाओं में यह प्रसंग “गो-संवर्धन” के रूप में आता है, जहाँ कृष्ण स्वयं गायों के साथ खेलते, उनका दूध दुहते और उन्हें नामों से पुकारते थे – “गंगा, यमुना, पद्मा, सुरभी, पद्मगंधा…” पद्मगंधा का उल्लेख इस भाव से किया जाता है कि उसकी सेवा से समस्त ब्रजभूमि सुगंधित और पवित्र होती थी।
पद्मगंधा गाय : पौराणिक कथा और वैज्ञानिक संकेत
ब्रज-क्षेत्र की कथा में पद्मगंधा गाय का नाम प्रमुखता से आता है। कहा जाता है कि यही वह दिव्य गाय थी जिसका दूध भगवान श्रीकृष्ण पीते थे। उसकी सुगंध, पवित्रता और पोषण-शक्ति के कारण उसे “पद्मगंधा” कहा गया – अर्थात् कमल जैसी सुगंध वाली गाय। आज के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो गाय का दूध वास्तव में एक “न्यूट्रास्यूटिकल” (औषधीय गुणों वाला भोजन) है। नेशनल डेयरी रिसर्च इंस्टीट्यूट (NDRI), करनाल के वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में पाया कि देसी गायों (खासकर गिर और साहीवाल नस्ल) के दूध में A2 बीटा-केसीन प्रोटीन पाया जाता है, जो मानव शरीर के लिए अत्यंत लाभकारी है। यह A2 दूध हृदय रोग, डायबिटीज और ऑटिज्म जैसे रोगों में लाभदायक माना जाता है। यही गुण संभवतः उस “पद्मगंधा गाय” की विशिष्टता का प्रतीक है, जिसे श्रीकृष्ण ने मातृवत् आदर दिया।
पद्मगंधा कथा का आधुनिक सन्देश
पद्मगंधा गाय केवल पौराणिक कथा नहीं, बल्कि प्रतीक है – शुद्धता, पोषण और करुणा का। आज जब दूध उत्पादन एक उद्योग बन चुका है, यह कथा हमें याद दिलाती है कि गाय “उपयोग की वस्तु” नहीं, “जीवित परंपरा” है। विज्ञान कहता है – यदि हर गाँव में पाँच देसी गायों का समूह रखा जाए, तो उससे गाँव की खाद्य-स्वावलंबन, ऊर्जा-संतुलन और जल-संरक्षण में 20% तक सुधार संभव है।
गौ-सेवा : कर्म, धर्म और आत्म-साधना का संगम
धर्मशास्त्रों में गौ-सेवा को तीन रूपों में बांटा गया है –
1. दैव-कृत्य – देवताओं की कृपा हेतु सेवा।
2. मानव-कल्याण – लोक-कल्याण और समाज-समृद्धि हेतु।
3. आत्म-साधना – मोक्ष-मार्ग के रूप में।
मनुस्मृति में कहा गया है – “गावो हि लोकपालाश्च लोकानां च हि सौख्यदम्।” अर्थ – गायें लोक-पालक हैं, वे सुख-समृद्धि प्रदान करती हैं। गौ-सेवा करने से मन की शांति, पाप-क्षय, ग्रह-दोष शमन, और आयु-वृद्धि जैसे फल बताए गए हैं।
पंचगव्य : गौ-सेवा का वैज्ञानिक आयाम
गाय से प्राप्त पाँच पदार्थ – दूध, दही, घी, गोमूत्र और गोबर – मिलकर पंचगव्य कहलाते हैं। यह न केवल धार्मिक अनुष्ठानों का भाग है, बल्कि आयुर्वेद में औषधि के रूप में वर्णित है। चरक संहिता और सुश्रुत संहिता दोनों में पंचगव्य से रोग-निवारण के सैकड़ों प्रयोग बताए गए हैं। गोबर से बने कंडे और गोमूत्र में रोगाणु-नाशक गुण सिद्ध किए गए हैं।
गोशाला परंपरा : समाज का आत्मीय केंद्र
भारत में गोशाला केवल गायों का आश्रय नहीं, बल्कि सेवा-साधना का केंद्र है। राजाओं और संतों द्वारा स्थापित प्राचीन गोशालाओं में – द्वारका की ‘सुदामा गौशाला’, मथुरा की ‘श्रीनंद गोशाला’, बनारस की ‘काशी गोशाला’, जयपुर की ‘हिंगोनिया गोशाला’, और बिहार की ‘श्रीकृष्ण गौसेवा निकेतन’ प्रमुख रही हैं। गोशाला ग्राम-आर्थिक इकाई का अंग रही है – जहाँ से दूध, गोबर, खाद और ऊर्जा के संसाधन मिलते हैं। ग्राम पंचायतों में गोशाला को सामूहिक संपत्ति माना गया। यह स्थान वह माना गया जहाँ मनुष्य “निस्वार्थ सेवा” का अभ्यास करता है। गाय की सेवा को भक्ति-योग का एक रूप कहा गया।
गौ-सेवा और आधुनिक भारत
आज भारत में लगभग 5300 से अधिक पंजीकृत गोशालाएँ सक्रिय हैं। कई स्वयंसेवी संस्थाएँ, मठ, और ट्रस्ट इस दिशा में काम कर रहे हैं। प्रधानमंत्री ग्रामोद्योग योजना और कृषि विज्ञान केंद्रों में “गौ-संवर्धन” एक शोध-विषय बन चुका है। जैविक खेती, बायोगैस उत्पादन और औषधीय उत्पादों में गाय के उपादानों का पुनरुत्थान हो रहा है। गौरक्षा आंदोलन ने धार्मिक भावना को सामाजिक सुधार से जोड़ा है। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात और मध्य प्रदेश में विशेष गौ-अभयारण्य बनाए गए हैं जहाँ वृद्ध और बेसहारा गायों को सेवा दी जाती है।
पौराणिक कथाएँ : गाय और देवत्व का अद्भुत संगम
- सुरभि गौ माता : ब्रह्मा के यज्ञ से उत्पन्न हुईं, सभी गायों की आदि माता मानी जाती हैं।
- कामधेनु : महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में निवास करती थीं, जो इच्छानुसार वस्तु देने वाली थीं।
- गोवर्धन पूजा : श्रीकृष्ण द्वारा इंद्र-अभिमान के नाश और गौ-संरक्षण की घोषणा का प्रतीक।
- गौ-दान प्रसंग : रामायण में जनक ने सीता-राम विवाह के समय हजारों गौदान किए थे।
इन कथाओं का सार यही है – जहाँ गौ का सम्मान है, वहाँ देवत्व और समृद्धि दोनों विद्यमान हैं।
गौ-सेवा रेमेडी : जीवन में सुख और शांति के उपाय
धार्मिक-ज्योतिषीय मान्यता के अनुसार, कुछ विशेष उपायों को “गौ-सेवा रेमेडी” कहा गया है –
1. प्रत्येक सोमवार या शुक्रवार को किसी गाय को गुड़-रोटी खिलाएँ, इससे पितृदोष शांत होता है।
2. गौ-दान करने से शनि-दोष का शमन होता है।
3. गौ-मूत्र से घर का शुद्धिकरण करने से नकारात्मकता कम होती है।
4. गोशाला-दान – चारा, अनाज, या आर्थिक सहयोग देना – शुभ फल देता है।
5. गौ-दूध का सेवन सात्विकता और मानसिक शांति लाता है।
ये उपाय केवल आस्था नहीं, बल्कि समाज में संवेदना जगाने के माध्यम भी हैं।
गौ-सेवा रेमेडी और न्यूरोसाइंस
मनुष्य का मन जब करुणा और सेवा से जुड़ता है, तब उसका मस्तिष्क ऑक्सिटोसिन और सेरोटोनिन हार्मोन छोड़ता है। गौ-सेवा या गोशाला में समय बिताना वैज्ञानिक रूप से तनाव घटाता है, चिंता और अवसाद के लक्षणों को कम करता है। इसे “काउ थेरपी” या “गोथेरपी” कहा जाता है – यूरोप और भारत दोनों में इसके क्लिनिकल ट्रायल हुए हैं। गाय के साथ समय बिताने से बच्चों में सहानुभूति और वृद्धों में मनोबल बढ़ता है।
समाज, अर्थ और सेवा
वाराणसी के ज्योतिषाचार्य पंडित उमंग नाथ शर्मा कहते हैं – “गौ-सेवा में केवल धर्म नहीं, बल्कि जीवन-मूल्य छिपे हैं। जो समाज गाय की रक्षा नहीं करता, वह अपनी संस्कृति खो देता है।” “पंचगव्य उत्पाद आने वाले वर्षों में जैविक अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनेंगे। गाय केवल पूजा की नहीं, विज्ञान की भी विषय है।” “जब हम गायों की सेवा करते हैं, तो समाज में सेवा-भाव बढ़ता है। बुजुर्ग और बच्चे दोनों इससे जोड़ते हैं – यह ‘सेवा का संस्कार’ है।”
चुनौतियाँ और समाधान
गौ-सेवा की भावना बढ़ी है, पर चुनौतियाँ भी उतनी ही गंभीर हैं –
- आवारा गायों की संख्या में वृद्धि
- गोशालाओं की आर्थिक तंगी
- आधुनिक नस्ल-सुधार बनाम देसी नस्लों का संरक्षण
- और नकली गौ-उत्पादों का व्यापार
सरकार और समाज के समन्वय से ही इन चुनौतियों का हल संभव है। हर नागरिक का कर्तव्य है कि वह “गौ-सेवा” को दान या धर्म नहीं, “सामाजिक जिम्मेदारी” समझे।
गौ-सेवा – भारतीयता की धड़कन
गाय भारतीय जीवन की मूल संवेदना है। यह संस्कृति का स्तंभ, कृषि का आधार और आध्यात्मिकता की जड़ है। जब भगवान श्रीकृष्ण ने पद्मगंधा गाय का दूध ग्रहण किया, तब उन्होंने यह संदेश दिया कि “सेवा ही साधना है, और साधना ही सुख का मार्ग।” आज जब मानव-समाज पर्यावरणीय संकट, मानसिक तनाव और सामाजिक विघटन से गुजर रहा है, तब गौ-सेवा केवल परंपरा नहीं – एक उपचार, एक रेमेडी, एक आत्म-साक्षात्कार का माध्यम बन सकती है। गाय के रंभाने की ध्वनि आज भी भारत के गांवों में आशीर्वाद की तरह गूंजती है – “गावो विश्वस्य मातरः” – गायें समस्त जगत की माता हैं। और जहाँ माता की सेवा होती है, वहाँ सृष्टि में संतुलन और समाज में करुणा बनी रहती है।
भारत की आत्मा और विज्ञान का संगम – गाय
भारत में गाय को माता कहा जाता है – यह केवल धार्मिक भाव नहीं, बल्कि जीवन की जैविक और सामाजिक परिभाषा भी है। गाय भारतीय संस्कृति का हृदय है, और आज विज्ञान भी मानने लगा है कि गाय केवल भावनाओं का नहीं बल्कि पारिस्थितिकी, स्वास्थ्य और कृषि-संतुलन का भी केंद्र है।
वैदिक और वैज्ञानिक दृष्टि : ‘गावो विश्वस्य मातरः’ ऋग्वेद कहता है – “गावो विश्वस्य मातरः।” (गायें समस्त जगत की माता हैं) यह कथन केवल धार्मिक प्रतीक नहीं, बल्कि एक पारिस्थितिक सत्य है। वेदों में कहा गया कि गाय धरती को समृद्ध करती है, खेतों को उर्वर बनाती है और वायु को शुद्ध रखती है – आज वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हुआ है कि गाय का गोबर और गोमूत्र वातावरण में ऑक्सीजन-संतुलन, मिट्टी की उर्वरता और सूक्ष्मजीव संरक्षण में उपयोगी हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) की रिपोर्ट (2022) के अनुसार, देसी गाय का गोबर 5 से 7% नाइट्रोजन, 3% फॉस्फोरस और 1% पोटाश रखता है – जो किसी भी केमिकल फर्टिलाइज़र से अधिक टिकाऊ और पर्यावरण-सुरक्षित है।
गौ-सेवा : धर्म, समाज और विज्ञान का त्रिवेणी संगम
धर्मशास्त्र कहता है – “गौः सर्वदेवमयी, सर्वतीर्थमयी च।” (गाय में सभी देवताओं और तीर्थों का वास है). विज्ञान कहता है- “गाय में जीवन-संतुलन का संपूर्ण तंत्र निहित है।” गौ-सेवा केवल पूजा नहीं बल्कि जैव-विज्ञान, समाज-विज्ञान और अर्थशास्त्र की संयुक्त क्रिया है।
- धार्मिक रूप से: गाय सभी यज्ञों का मूल है।
- सामाजिक रूप से: यह सेवा, करुणा और दान की भावना का केंद्र है।
- वैज्ञानिक रूप से: यह बायोडायवर्सिटी, फूड-सेक्योरिटी और हेल्थ-न्यूट्रिशन का स्रोत है।
पंचगव्य और औषधीय अनुसंधान
आयुर्वेद में पंचगव्य का उल्लेख हजारों वर्षों से है – दूध, दही, घी, गोबर और गोमूत्र। आधुनिक अनुसंधानों ने इन तत्वों के औषधीय गुणों को भी प्रमाणित किया है।
- गोमूत्र: इसमें यूरेस, फिनोलिक यौगिक, यूरिक एसिड और अमोनिया जैसे घटक पाए गए हैं जो एंटीबैक्टीरियल, एंटिफंगल और एंटीऑक्सीडेंट गुण रखते हैं।
- गोबर: इसमें मेथेन, कार्बन डाइऑक्साइड और सल्फर यौगिक होते हैं, जो प्राकृतिक फ्यूएल के रूप में प्रयोग हो सकते हैं।
- दूध: देसी गाय का दूध “A2 प्रोटीन” आधारित है, जो यूरोपीय नस्लों के A1 दूध की तुलना में अधिक पाच्य और न्यूरो-सेफ है।
गुजरात कृषि विश्वविद्यालय (GAU) की एक प्रयोगशाला ने सिद्ध किया कि पंचगव्य का 5% घोल पौधों में रोग प्रतिरोधकता बढ़ाता है और मिट्टी की सूक्ष्मजीव विविधता को सुरक्षित रखता है।
गोशाला : धर्मस्थल नहीं, ‘लाइफ साइंस सेंटर’
भारत में लगभग 5300 से अधिक पंजीकृत गोशालाएँ हैं, जिनमें से कई ने आधुनिक ‘गौ-बायोटेक्नोलॉजी’ को अपनाया है। गोशाला अब “पर्यावरण प्रयोगशाला” का रूप ले चुकी है –
- गोबर गैस से बिजली उत्पादन
- गोमूत्र से कीटनाशक निर्माण
- गोबर से जैव-प्लास्टिक और ईंटें
- पंचगव्य से कॉस्मेटिक और हर्बल उत्पाद
पौराणिक ग्रंथों में गौ-विज्ञान की अवधारणा
पौराणिक ग्रंथ केवल आस्था नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि का आधार भी रखते हैं। स्कंद पुराण में कहा गया है – “गवां मध्ये वसत्येषां सर्वदेवानां समागमः।” गाय को ‘चलती-फिरती प्रयोगशाला’ कहा गया है क्योंकि उसके शरीर में 33 प्रकार के देवत्व या तत्व हैं — जिन्हें आज हम जैविक एंजाइम, प्रोटीन, सूक्ष्मजीव और ऊर्जा तत्व के रूप में पहचानते हैं। भागवत पुराण के दशम स्कंध में, गो-सेवा को ‘भू-संरक्षण’ से जोड़ा गया है। कृष्ण का गोवर्धन पर्वत उठाना केवल धार्मिक नहीं, बल्कि पर्यावरणीय प्रतीक था – वर्षा, भूमि और पशु का संतुलन बनाए रखने का संदेश।
गाय और पर्यावरण : वैज्ञानिक दृष्टि से सहजीवन
नेशनल एनवायरनमेंट रिसर्च सेंटर (2023) के एक अध्ययन में पाया गया कि जिन क्षेत्रों में देसी गायों का गोबर जैविक खाद के रूप में प्रयोग किया गया, वहाँ मिट्टी की कार्बन उत्पादकता में 35% की वृद्धि हुई। गाय का गोबर “ग्रीन कार्बन सिंक” की तरह कार्य करता है – यह मिट्टी में कार्बन को स्थिर करता है और वातावरण से CO₂ को अवशोषित करता है। इसके अलावा, गायों की उपस्थिति ग्रामीण पारिस्थितिकी में कीट-नियंत्रण, जैव-विविधता और जल-संतुलन बनाए रखने में सहायक है।
समाज और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
गौ-संवर्धन का सीधा संबंध ग्रामीण अर्थव्यवस्था से है –
- जैविक उत्पादों से स्थानीय रोजगार
- गोशालाओं से महिला समूहों को आय
- पंचगव्य उत्पादों से निर्यात
2024 में भारत का गौ-आधारित उत्पाद उद्योग लगभग 34,000 करोड़ रुपये का हो गया है। आयुर्वेदिक औषधियों में गो-घृत और गो-दुग्ध का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है।
चुनौतियाँ और समाधान
यद्यपि वैज्ञानिक और सांस्कृतिक दोनों पहलू स्पष्ट हैं, फिर भी चुनौतियाँ मौजूद हैं –
- आवारा गायों की संख्या 1.1 करोड़ से अधिक
- देसी नस्लों की संख्या घट रही है
- कई गोशालाओं में पोषण और चिकित्सा की कमी
समाधान है –
1. वैज्ञानिक प्रजनन नीति (A2 जीन आधारित नस्ल संवर्धन)
2. सरकारी अनुदान के साथ सामुदायिक गोशाला मॉडल
3. पंचगव्य उद्योग को MSME श्रेणी में लाना
4. युवाओं को “गौ-उद्यम” से जोड़ना
शास्त्र और विज्ञान का एकीकृत संदेश
शास्त्र कहता है – “यः पिबेत् गोदुग्धं, स जीवेत् शतसंवत्सरम्।” (जो व्यक्ति गाय का दूध पीता है, वह दीर्घायु होता है) विज्ञान कहता है – “गाय जीवन का जैविक संतुलन बनाए रखने वाला प्राणी है।” पद्मगंधा से लेकर आधुनिक गोशालाओं तक, यह परंपरा केवल आस्था की नहीं, बल्कि अस्तित्व की कहानी है। जहाँ गाय की रक्षा होती है, वहाँ मानवता और प्रकृति दोनों का कल्याण होता है। भारत की मिट्टी में अब भी वही स्वर गूंजता है – “गावो विश्वस्य मातरः” – और यही वह मंत्र है जो शास्त्र, समाज और विज्ञान को एक सूत्र में बाँधता है।
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डिस्क्लेमर : इस लेख में प्रस्तुत सामग्री शास्त्रीय, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक स्रोतों पर आधारित है। गौ-सेवा, पंचगव्य या गोमूत्र से संबंधित सभी उल्लेख पारंपरिक भारतीय ज्ञान और प्रचलित अनुसंधानों के संदर्भ में दिए गए हैं। यह लेख किसी चिकित्सीय या उपचार संबंधी दावे का प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। पाठक किसी भी स्वास्थ्य या औषधीय प्रयोग से पहले प्रमाणित विशेषज्ञ की सलाह अवश्य लें। CMG TIMES इस विषय पर किसी उत्पाद, संस्था या उपचार पद्धति का प्रचार नहीं करता; इसका उद्देश्य केवल जागरूकता और सूचना प्रदान करना है।



