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रसेल की किताब ने गढ़ी जाति की बेड़ियाँ, बिहार चुनाव में गूंज रहा औपनिवेशिक खेल

The Tribes and Castes of the Central Provinces of India : औपनिवेशिक चाल से राजनीति तक

  • “बिहार चुनाव में फिर उठी रसेल की किताब की गूंज, जाति की राजनीति तेज”

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की सरगर्मी के बीच जातिगत समीकरण सबसे चर्चित मुद्दा बन गया है। यह बहस अचानक की उपज नहीं है, इसकी जड़ें औपनिवेशिक दौर में गहरी धंसी हैं। अंग्रेजी शासन ने भारतीय समाज को खंड-खंड कर नियंत्रित करने की नीति अपनाई। 1901 की जनगणना में अहम भूमिका निभाने वाले अंग्रेज अफसर रॉबर्ट वैनिस्टार्ट रसेल ने अपनी बहुचर्चित किताब The Tribes and Castes of the Central Provinces of India (1916) में भारतीय समाज को जातियों में स्थायी रूप से बाँध दिया।

पुस्तक का सार और प्रभाव

रसेल की इस चार खंडों वाली कृति में 200 से अधिक जातियों और जनजातियों का विस्तार से विवरण है। उन्होंने हर जाति का पेशा, खानपान, विवाह संबंधी प्रथाएँ और धार्मिक आस्थाएँ दर्ज कीं। उनके अनुसार, समाज में जाति जन्म से तय होती है और पीढ़ियों तक अपरिवर्तित रहती है। यहीं से जाति को एक “स्थायी पहचान” का रूप मिला।

इतिहासकारों का कहना है कि रसेल ने जातियों को कठोर ढाँचों में बाँध दिया और भारतीय समाज की स्वाभाविक गतिशीलता को नज़रअंदाज़ किया। किसानों, कारीगरों और व्यापारियों के बीच पेशे बदलने या सामाजिक स्थिति सुधारने की संभावनाओं को उन्होंने दरकिनार कर दिया। यही औपनिवेशिक दृष्टि बाद में भारतीय समाज को गहरे विभाजन में ले गई।

औपनिवेशिक मकसद

रसेल की पुस्तक का असली उद्देश्य सिर्फ दस्तावेज़ीकरण नहीं था। इसे औपनिवेशिक मानसिकता की उपज माना जाता है। ब्रिटिश शासन ने इसे “फूट डालो और राज करो” की नीति का औज़ार बनाया। जातियों को स्थायी पहचान देकर प्रशासनिक सुविधा तो पाई, लेकिन इसके साथ समाज में गहरी दरार भी पैदा हुई।

आज़ादी के बाद भी गूंज

भारत की स्वतंत्रता के बाद भी रसेल की किताब से उपजी सोच राजनीति से गायब नहीं हुई। 1990 में मंडल आयोग लागू होने के साथ ही पिछड़े वर्गों को 27 प्रतिशत आरक्षण मिला और जाति-आधारित राजनीति ने नई रफ्तार पकड़ी। बिहार में लालू प्रसाद यादव ने “MY समीकरण” (मुसलमान + यादव) को सत्ता की चाबी बना दिया। आज भी हालिया बिहार जाति सर्वे 2022-23 बताता है कि राज्य की 63 प्रतिशत आबादी OBC और EBC वर्ग में है। यही आँकड़े चुनावी रणनीति की धुरी बन गए हैं।

रसेल और जाति जनगणना की कहानी

ब्रिटिश अफसर रॉबर्ट वैनिस्टार्ट रसेल ने देखा कि भारतीय समाज विविध पेशों, खानपान, विवाह और धार्मिक प्रथाओं के आधार पर बँटा हुआ है। उन्होंने इसे स्थायी पहचान मान लिया। यही सोच उनकी बहुचर्चित पुस्तक The Tribes and Castes of the Central Provinces of India  में सामने आई।

1901 की जनगणना के दौरान रसेल ने जातियों को व्यवस्थित रूप से दर्ज किया। इसमें 1,600 से अधिक जातियाँ और समुदाय सूचीबद्ध किए गए। रसेल का दावा था कि इससे समाज की संरचना को समझना आसान होगा, लेकिन असल में इसने जाति को स्थायी रूप में स्थापित कर दिया।इतिहासकार मानते हैं कि रसेल ने अपने अध्ययन और जनगणना के ज़रिये भारतीय समाज को संख्याओं और श्रेणियों में बाँट दिया। यही औपनिवेशिक तरीका था – “फूट डालो और राज करो।”

आलोचना और सवाल

पुस्तक की आलोचना हमेशा होती रही है। विद्वानों का कहना है कि रसेल का दृष्टिकोण भारतीय समाज को समझने के बजाय उसे श्रेणियों में बाँधने का था। समाज की जटिलता और लचीलापन इसमें नदारद है। यही वजह है कि The Tribes and Castes of the Central Provinces of India को केवल औपनिवेशिक दस्तावेज़ नहीं, बल्कि सामाजिक विभाजन का स्थायी आधार माना जाता है।

बिहार चुनाव और मतदाताओं से अपील

आज जब बिहार फिर एक चुनावी मोड़ पर खड़ा है, तो जाति बनाम विकास का सवाल निर्णायक बन गया है। रसेल की किताब ने जिस तरह समाज को जातियों में उलझाया, उसकी गूंज अब भी सुनी जा सकती है। लेकिन क्या मतदाता इस बार जातिगत राजनीति की बेड़ियों से ऊपर उठेंगे? बिहार का भविष्य जाति समीकरणों में नहीं, बल्कि शिक्षा, रोजगार, विकास और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर तय होगा। इसलिए अपील यही है ,इस बार वोट दीजिए जाति से ऊपर उठकर, बिहार के नव निर्माण के लिए।

संपादकीय टिप्पणी : जाति की जंजीरों से बाहर निकलने का समय

ब्रिटिश शासन का सबसे बड़ा खेल यही था कि उसने भारतीय समाज को जातियों में बाँधकर उसकी एकजुटता तोड़ दी। रॉबर्ट वैनिस्टार्ट रसेल की किताब The Tribes and Castes of the Central Provinces of India इस विभाजन की जीवंत गवाही है। औपनिवेशिक अधिकारियों ने समाज की गतिशीलता को स्थायी ढाँचों में जकड़ दिया और इसे प्रशासनिक सुविधा तथा सत्ता की मजबूती का साधन बना लिया।

आज़ादी के बाद भी जाति की यह छाया भारतीय राजनीति पर छाई रही। बिहार इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहाँ चुनावी गणित जातीय समीकरणों पर खड़ा रहा। मंडल बनाम कमंडल की राजनीति से लेकर हालिया जाति सर्वे तक—सब कुछ इस औपनिवेशिक विरासत का विस्तार है।लेकिन सवाल यह है कि क्या 2025 का बिहार चुनाव भी उसी पुराने घेरे में घूमेगा? या जनता जाति की जंजीरों को तोड़कर विकास, रोजगार और शिक्षा को अपनी प्राथमिकता बनाएगी?

बिहार की असली ताकत उसकी जनता है। यह जनता अगर जाति से ऊपर उठकर वोट करेगी, तभी राज्य का नव निर्माण संभव होगा। इतिहास को याद रखना ज़रूरी है, लेकिन भविष्य गढ़ना और भी ज़रूरी है।

डिस्क्लेमर: यह सामग्री ऐतिहासिक स्रोतों और रॉबर्ट वैनिस्टार्ट रसेल की पुस्तक The Tribes and Castes of the Central Provinces of India (1916) पर आधारित है। यदि किसी तथ्य में त्रुटि या छूट हो तो कृपया सूचित करें। उचित संशोधन कर दिया जाएगा। 

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