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काली पूजा 2025 : दीपावली की रात्रि में महाकाली उपासना का अर्थ, विधि और महात्म्य

कार्तिक अमावस्या, सोमवार 20 अक्टूबर 2025 को मनाई जाने वाली दीपावली की रात्रि महाकाली उपासना के लिए विशेष मानी गई है। इस दिन रात 11:45 बजे से 12:35 बजे तक का मध्यरात्रि मुहूर्त काली पूजा के लिए अत्यंत शुभ है।पौराणिक ग्रंथों के अनुसार यह रात्रि केवल लक्ष्मी पूजा की नहीं, बल्कि आत्मजागरण और भय से मुक्ति की साधना की बेला भी है। महाकाली की पूजा तंत्र, अध्यात्म और विज्ञान - तीनों का अद्भुत संगम है। इस विशेष लेख में पूजा का अर्थ, कथा, विधि, सामग्री और शुभ मुहूर्त सहित संपूर्ण विवरण दिया गया है।

  • दीपावली की अमावस्या को की जाने वाली महाकाली पूजा केवल तंत्र नहीं, बल्कि विज्ञान, अध्यात्म और आत्मबोध का अद्भुत संगम है।

भारत में दीपावली केवल दीपों का पर्व नहीं, बल्कि आत्मजागरण का उत्सव है। यह वह रात्रि है जब बाहर दीपक जलते हैं और भीतर चेतना का प्रकाश प्रकट होता है। इसी रात भारत के कुछ भागों में जहाँ माँ लक्ष्मी की पूजा होती है, वहीं बंगाल, ओडिशा, असम, नेपाल और काशी जैसे तीर्थों में महाकाली की उपासना की जाती है। यह पूजा भय, अंधकार या मृत्यु की नहीं, बल्कि जीवन के गूढ़ सत्य, चेतना और संतुलन की आराधना है। काली को शक्ति का वह रूप माना गया है जो सृष्टि के निर्माण, पालन और संहार – तीनों चरणों का संचालन करती हैं।

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, महाकाली का वर्णन सर्वप्रथम देवी महात्म्य (मार्कण्डेय पुराण) में मिलता है। जब चण्ड-मुण्ड, शुम्भ और निशुम्भ जैसे दैत्य देवताओं पर अत्याचार करने लगे, तब देवी दुर्गा के क्रोध से काली प्रकट हुईं। उनका रूप भयंकर था – कृष्णवर्णा, मुक्तकेशी, रक्तरंजित जिह्वा, गले में मुंडमाला और हाथों में खड्ग व खप्पर। उन्होंने राक्षसों का संहार किया और देवताओं को भयमुक्त किया। यह कथा भयावह प्रतीत होती है, परन्तु इसका अर्थ आध्यात्मिक है। काली वह चेतना हैं जो अज्ञान, लोभ, मोह और भय का नाश करती है।

देवी भागवत पुराण में काली को तीन प्रमुख शक्तियों में से एक बताया गया है – महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली। तीनों क्रमशः सत्त्व, रज और तम गुण की प्रतीक हैं। महाकाली वह शक्ति हैं जो तम अर्थात अंधकार में स्थित होकर प्रकाश की रचना करती हैं। कालिका पुराण में लिखा है कि अमावस्या की महानिशा बेला में काली की आराधना से मनुष्य पाप, भय और मोह से मुक्त होता है। तंत्र शास्त्रों जैसे कुलार्णव तंत्र और रुद्रयामल तंत्र में काली को योग की अधिष्ठात्री कहा गया है – जो भय को नष्ट कर साधक को निर्भय बनाती हैं।

काली की सबसे प्रसिद्ध कथा रक्तबीज असुर से जुड़ी है। जब देवी दुर्गा ने उससे युद्ध किया, तो उसके रक्त की प्रत्येक बूँद से एक नया असुर उत्पन्न हो जाता था। तब देवी के क्रोध से काली प्रकट हुईं और उन्होंने रक्तबीज का रक्त अपने मुख से पी लिया ताकि एक भी बूँद धरती पर न गिरे। इस प्रकार रक्तबीज का अंत हुआ। यह कथा प्रतीकात्मक है – जब तक अज्ञान की एक भी बूँद शेष रहती है, तब तक मन में भय और मोह पुनः जन्म लेते रहते हैं। काली उस अज्ञान को जड़ से नष्ट करती हैं।

काली की पूजा दीपावली की रात्रि में अमावस्या के मध्यकाल में की जाती है। यह समय महानिशा कहलाता है, जब सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा एक सीध में होते हैं और प्रकृति की ऊर्जा अपने उच्चतम संतुलन पर होती है। इस बेला में साधक ध्यान, जप और दीप आराधना के माध्यम से अपने भीतर की शक्ति को जागृत करता है। पूजा की विधि सरल किंतु गूढ़ है – स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करें, देवी काली का चित्र या मूर्ति स्थापित करें, दीप जलाएँ और मंत्र “ॐ क्रीं कालिकायै नमः” का 108 बार जप करें। इसके बाद पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य अर्पित कर आरती करें और हृदय में यह भावना रखें कि भीतर का अंधकार मिट रहा है।

काली पूजा की सामग्री में लाल पुष्प, जवा फूल, घी या तिल तेल के दीपक, काली हल्दी, कपूर, गूगल, पान-सुपारी, चावल और नैवेद्य प्रमुख हैं। पूजा की समाप्ति के बाद देवी से प्रार्थना की जाती है – “हे महाकाली, मेरे भीतर के भय और मोह का अंत करो, और आत्मबोध का प्रकाश दो।” काली की आरती में कहा गया है – “जय काली माता, जय महाकाली, भक्त जनों की तुम रखवाली।” यह भावना भय से नहीं, प्रेम और श्रद्धा से उपजती है।

काली के कई रूप हैं – दक्षिणा काली, शमशान काली, भद्रकाली, चामुण्डा, महाकाली आदि। इन सभी रूपों का अर्थ अलग-अलग साधना मार्गों से जुड़ा है। दक्षिणा काली भक्तवत्सला हैं, शमशान काली निर्भयता की अधिष्ठात्री, भद्रकाली न्याय की प्रतीक, और महाकाली समय व मृत्यु की शाश्वत शक्ति। तांत्रिक परंपरा में काली प्रथम महाविद्या हैं, जिनसे शेष नौ महाविद्याएँ प्रकट होती हैं। उनका काला रंग भय का नहीं, बल्कि अनंत चेतना का प्रतीक है – क्योंकि काला रंग वह है जो सभी रंगों को अपने भीतर समा लेता है।

वैज्ञानिक दृष्टि से भी काली पूजा अत्यंत अर्थपूर्ण है। अमावस्या की रात्रि में जब चंद्रमा नहीं होता, तब पृथ्वी के चुंबकीय और गुरुत्वीय क्षेत्र का संतुलन विशेष रूप से सक्रिय होता है। यह समय ध्यान और ऊर्जा साधना के लिए सबसे उपयुक्त माना गया है। घी या तिल तेल के दीप जलाने से वायुमंडल में नकारात्मक आयन उत्पन्न होते हैं, जो वायु को शुद्ध करते हैं। गूगल, कपूर और धूप जलाने से बैक्टीरिया नष्ट होते हैं। काली मंत्र “क्रीं” की ध्वनि 7 से 8 हर्ट्ज़ की तरंग उत्पन्न करती है, जो पृथ्वी की प्राकृतिक गूँज (Schumann Resonance) के अनुरूप है। यह मस्तिष्क की अल्फा वेव्स को स्थिर करती है और ध्यान की अवस्था उत्पन्न करती है।

ऐतिहासिक रूप से काली पूजा का संगठित रूप बंगाल में 17वीं शताब्दी में राजा कृष्णचन्द्र राय के काल में आरंभ हुआ। बाद में रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद ने इसे आध्यात्मिक आधार दिया। रामकृष्ण ने कहा था – “काली कोई अलग देवी नहीं, वह वही चेतना है जो तुम्हारे भीतर धड़कन बनकर जीवित है।” इस दृष्टि से काली पूजा भय का नहीं, बल्कि प्रेम और आत्मस्वीकार का पर्व बन गई।

भारत के विभिन्न भागों में काली पूजा के भिन्न रूप प्रचलित हैं। बंगाल में इसे श्यामा पूजा कहा जाता है और दीपावली की रात मध्यरात्रि तक अनुष्ठान चलता है। काशी में महाश्मशान घाट पर तांत्रिक साधक महानिशा साधना करते हैं। ओडिशा में मातृकाकाली की पूजा होती है, वहीं नेपाल में इसे कालरात्रि के नाम से जाना जाता है। इस विविधता में एक समान भाव है – अंधकार का आलिंगन और आत्मा का उदय।

काली और लक्ष्मी दोनों एक ही शक्ति के दो रूप हैं – एक सृजन की, दूसरी परिवर्तन की। दीपावली की रात जब लक्ष्मी का पूजन धन और समृद्धि के लिए होता है, उसी समय काली पूजा आत्मबल और निर्भयता का प्रतीक बन जाती है। तांत्रिक शास्त्र कहते हैं – “कालीं लक्ष्मीं च रूपे द्वे, शक्तेः सृष्टि-विनाशके।” अर्थात् लक्ष्मी और काली दोनों एक ही शक्ति हैं, जो सृष्टि और परिवर्तन दोनों का संचालन करती हैं।

समाजशास्त्रीय रूप से भी काली पूजा महत्वपूर्ण है। यह स्त्री शक्ति के पुनर्जागरण का प्रतीक है। काली का रौद्र रूप बताता है कि स्त्री केवल करुणा की नहीं, बल्कि न्याय और परिवर्तन की भी मूर्ति है। आधुनिक युग में काली पूजा ने तंत्र को अंधविश्वास से निकालकर चेतना विज्ञान का रूप दिया है। आज ध्यान शिविरों और मानसिक स्वास्थ्य केन्द्रों में “काली ध्यान” को Fear Detox के रूप में अपनाया जा रहा है।

आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार, हर व्यक्ति के भीतर एक Shadow Self होता है – अर्थात् उसका छिपा हुआ भय, अपराधबोध और असुरक्षा। काली पूजा इसी छाया से सामना कराती है। जब साधक काली का ध्यान करता है, तो वह अपने भय को स्वीकार करता है और उसे पार करता है। यह प्रक्रिया आधुनिक मनोचिकित्सा जैसी ही है, जिसमें व्यक्ति अपने भीतर के अंधकार से साक्षात्कार करता है। यही कारण है कि काली पूजा को “Shadow Integration Ritual” भी कहा जा सकता है।

वैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टि से काली ब्रह्मांड की ऊर्जा परिवर्तन की प्रतिमूर्ति हैं। उनका नृत्य ब्रह्मांड की गति, ग्रहों के परिक्रमण और ऊर्जा के प्रवाह का प्रतीक है। भौतिकी का सिद्धांत कहता है कि ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती, केवल रूप बदलती है। यही काली का संदेश है – विनाश वास्तव में नये निर्माण की तैयारी है।

काली पूजा का वास्तविक सार यही है कि मनुष्य अपने भीतर के अंधकार को स्वीकार करे। दीपावली का प्रकाश बाहरी जगत को रोशन करता है, परंतु काली साधना भीतर के जगत को। जब साधक अपने भीतर के भय, मोह और अहंकार को पहचानता है, तब ही वह आत्मबोध की अवस्था तक पहुँचता है। यही वह क्षण है जब अमावस्या का अंधकार आत्मा का सूर्य बन जाता है।

काली हमें सिखाती हैं कि मृत्यु अंत नहीं, बल्कि परिवर्तन की शुरुआत है। उनका काला स्वरूप यह बताता है कि अंधकार भी ब्रह्म का ही हिस्सा है। दीपावली की रात्रि में जब संसार प्रकाश की खोज में बाहर दीप जलाता है, तब काली उपासक भीतर दीप जलाते हैं। यह भीतर का दीप ही आत्मबोध का वास्तविक प्रकाश है।

दीपावली का पर्व इसलिए केवल लक्ष्मी की आराधना नहीं, बल्कि महाकाली की भी साधना है। यह बाहरी समृद्धि और आंतरिक शांति दोनों का संगम है। बाहरी दीप मिट्टी के बने होते हैं, भीतर का दीप चेतना से। जब यह भीतर का दीप प्रज्वलित होता है, तब मनुष्य भय, मृत्यु और मोह से परे होकर मुक्ति का अनुभव करता है। यही महाकाली उपासना का सर्वोच्च लक्ष्य है।

महाकाली अंधकार की देवी नहीं, बल्कि अंधकार में छिपे प्रकाश की प्रतीक हैं। उनका संदेश शाश्वत है – “अंधकार से मत डरो, क्योंकि उसी में ज्ञान का जन्म होता है।” दीपावली की रात हमें यही सिखाती है कि जब बाहर के दीप बुझने लगें, तब भीतर का दीप जलाना न भूलें। इस प्रकार दीपावली केवल दीपों का पर्व नहीं, बल्कि मानव चेतना की सबसे गूढ़ साधना का दिन है – जहाँ बाहर लक्ष्मी की आराधना होती है, और भीतर काली की। यही जीवन का संतुलन है, यही सृष्टि का सत्य।

महाकाली पूजा – विधि, सामग्री और शुभ मुहूर्त

तिथि : कार्तिक अमावस्या (दीपावली की रात्रि), वर्ष 2025 में पूजा की तिथि : सोमवार, 20 अक्टूबर 2025 , अमावस्या प्रारंभ : प्रातः 06:29 बजे ,अमावस्या समाप्त : 21 अक्टूबर, प्रातः 05:18 बजे मुख्य पूजन मुहूर्त :रात्रि 11:45 बजे से 12:35 बजे तक (मध्य रात्रि -महानिशा बेला )

पूजा सामग्री :

देवी काली की प्रतिमा या चित्र
लाल या काला वस्त्र (चौकी पर बिछाने हेतु)
घी या तिल का तेल (दीपक के लिए)
लाल पुष्प – विशेषकर जवा (हिबिस्कस)
चंदन, अक्षत (चावल), इत्र, धूप, दीप
कपूर, गूगल, लोहबान (वायुपवित्रक हेतु)
सिंदूर, काली हल्दी, काजल
पान, सुपारी, फल, मिठाई (नैवेद्य)
जल, अर्घ्य पात्र, नारियल, ताम्बूल

पूजा विधि (संक्षिप्त क्रम) :

1. रात्रि स्नान कर शुद्ध वस्त्र पहनें।
2. पूजा स्थल दक्षिण या पूर्व मुखी बनाएं, लाल वस्त्र बिछाएँ।
3. देवी काली का चित्र या मूर्ति स्थापित करें।
4. दीप जलाकर संकल्प लें – “मम भय नाश, आत्मबोध व शक्ति सिद्ध्यर्थं काली पूजनं करिष्ये।”
5. मंत्र जप करें – “ॐ क्रीं कालिकायै नमः” (108 बार)।
6. धूप, दीप, पुष्प, नैवेद्य अर्पण करें।
7. आरती करें – “जय काली माता, जय महाकाली।”
8. अंत में प्रसाद वितरित करें और देवी से आशीर्वाद माँगें।

विशेष ध्यान दें :

  • पूजा अमावस्या की रात्रि 11:45 से 12:35 बजे के बीच करना सर्वोत्तम है।
  • घी या तिल तेल के दीप अवश्य जलाएँ।
  • पूजा के बाद ध्यान या मौन साधना करने से मानसिक शांति प्राप्त होती है।
  • यह साधना भय, असुरक्षा और अज्ञान से मुक्ति देती है।

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डिस्क्लेमर : इस लेख में प्रस्तुत जानकारी धार्मिक ग्रंथों, पुराणों, तंत्र शास्त्रों और प्रचलित परंपराओं पर आधारित है। इसका उद्देश्य केवल सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और आध्यात्मिक जानकारी प्रदान करना है। CMG TIMES / Banaras Times किसी भी प्रकार की तांत्रिक साधना, अनुष्ठान या व्यक्तिगत आस्था संबंधी क्रियाओं को प्रोत्साहित नहीं करता। पाठक अपनी धार्मिक मान्यताओं, परंपराओं और स्थानीय पुरोहितों की सलाह के अनुसार पूजा-विधि या अनुष्ठान करें। इस सामग्री का उद्देश्य केवल ज्ञानवर्धन और परंपरागत लोक आस्था का प्रस्तुतीकरण है।

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