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संकट के समय सरकार, समाज, सिनेमा, सहाफत “चार जान-एक जिस्म” की तरह काम करते हैं-नकवी

दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर प्रोफेशनल डेवलपमेंट इन हायर एजुकेशन के कार्यक्रम में केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्य मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी का सम्बोधन

केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्य मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने आज यहाँ कहा कि समाज के किसी हिस्से का सुधार “नियमों में जकड़” से नहीं बल्कि “नियत की पकड़” से मुमकिन हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर प्रोफेशनल डेवलपमेंट इन हायर एजुकेशन के कार्यक्रम में “राष्ट्र एवं पीढ़ी के निर्माण में पत्रकारिता, मीडिया और सिनेमा की भूमिका” पर अपने सम्बोधन में नकवी ने कहा कि सरकार, सियासत, सिनेमा और सहाफत, समाज के नाजुक धागे से जुड़े हैं, साहस, संयम, सावधानी, संकल्प एवं समर्पण इन संबंधों को मजबूत बनाने का “जांचा-परखा-खरा” मंत्र हैं।

श्री नकवी ने कहा कि संकट के समय सरकार, समाज, सिनेमा, सहाफत “चार जिस्म, एक जान” की तरह काम करते हैं, इतिहास इस बात का गवाह है कि आजादी से पहले या बाद में जब भी देश पर संकट आया है, सब ने मिल कर राष्ट्रीय हित और मानव कल्याण के लिए अपनी-अपनी जिम्मेदारी पूरी ईमानदारी के साथ निभाई है। श्री नकवी ने कहा कि आज सदियों के बाद कोरोना महामारी के रूप में दुनिया भर में जिस तरह का संकट है, ऐसी चुनौती कई पीढ़ियों ने नहीं देखी है। फिर भी एक परिपक्व समाज, सरकार, सिनेमा और मीडिया की भूमिका निभाने में हमनें कोई कमीं नहीं छोड़ी, खासकर भारत में इन वर्गों ने “संकट के समाधान” का हिस्सा बनने में अपनी-अपनी भूमिका निभाने की कोशिश की।

श्री नकवी ने कहा कि पिछले 6 महीनों में सरकार, समाज, सिनेमा और मीडिया के करैक्टर, कार्यशैली और कमिटमेंट में बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। बदलाव और सुधार के लिए हालात पैदा नहीं किये जा सकते बल्कि खुद ही हो जाते हैं। आज समाज के हर हिस्से की कार्यशैली और जीवनशैली में बड़े बदलाव इस बात का प्रमाण है। श्री नकवी ने कहा कि महीनों अख़बारों के प्रिंट बंद रहे, सिनेमा बड़े परदे की जगह छोटे परदे पर दिखने लगा, कुछ देश ऑनलाइन ख़बरों के आदी हो चुके थे, पर भारत की बड़ी आबादी जब तक सुबह के चाय के साथ अख़बार के पन्नों को नहीं खंगालती थी तब तक उसे दिन का कोई भी जरूरी काम अधूरा लगता था, इस दौरान भी अधिकांश भारतीयों को ऑनलाइन खबरें संतुष्ट नहीं कर पाई।

श्री नकवी ने कहा कि यही हाल सिनेमा का रहा, टेलीविजन पर सिनेमा की भरमार है, हर दिन एक नई पिक्चर या वेब सीरीज देखने को मिलती है, ना कहानी में दम ना डायरेक्शन में कोई क्रिएटिविटी। आज भी भारतीय समाज बड़े परदे की जानदार, भरपूर सबक-सन्देश, मायने और मनोरंजन वाली फिल्मों का दीवाना है। यानी फिल्म और मीडिया हमारे जीवन का अटूट हिस्सा ही नहीं है बल्कि यह समाज को प्रभावित करने की ताकत भी रखता है। श्री नकवी ने कहा कि इस कोरोना संकट के समय भी लोगों ने पूरा नहीं तो आधा-चौथाई फिल्म-मीडिया से अपना गुजरा कर लिया पर उसे अलविदा नहीं कहा। हाँ इलेक्ट्रॉनिक एवं डिजिटल मीडिया का बोल बाला जरूर रहा, वह अलग बात है कि इनमें से अधिकांश चैनलों या डिजिटल प्लेटफार्म पर खबर के बजाय हंगामा और हॉरर परोसने पर ज्यादा जोर रहा, लोगों को इस दौरान जो सकारात्मक सन्देश-सबक देना चाहिए था, वह उस जिम्मेदारी की कसौटी पर खरे नहीं उतरे।

श्री नकवी ने कहा कि इतिहास गवाह है कि चुनौतियों के समय मीडिया-सिनेमा हमेशा बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। 60 और 70 के दशक में युद्ध के दौरान राष्ट्रभक्ति के जज़्बे से भरपूर सिनेमा आज भी लोगों के जेहन में ताजा है, उस दौरान मीडिया की देशभक्ति से भरपूर भूमिका आज भी वर्तमान पीढ़ी के लिए आदर्श हैं। “हकीक़त”, “सात हिंदुस्तानी”, “आक्रमण”, “मदर इंडिया”, “पूरब और पश्चिम”, “नया दौर” जैसी फ़िल्में आज भी राष्ट्रभक्ति के जुनून-जज़्बे को धार देती हैं। “ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी”, “भारत का रहने वाला हूँ, भारत की बात सुनाता हूँ”, “ये देश है वीर जवानों का”, “कर चले हम फ़िदा जान और तन साथियों”, “हर करम अपना करेंगे, ऐ वतन तेरे लिए” जैसे गीत आज हर पीढ़ी का पसंदीदा नगमा हैं, इनके बोल देशभक्ति के जुनून को जगाते हैं।

श्री नकवी ने कहा कि देश के निर्माण में मीडिया की भूमिका किसी भी संवैधानिक संस्था से ज्यादा है। आज प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, डिजिटल मीडिया की पहुँच देश की लगभग 80 प्रतिशत आबादी तक है। अखबारों, टेलीविजन, रेडियो, डिजिटल प्लेटफार्म ने देश के सुदूरवर्ती इलाकों तक सूचना के प्रसार में जो भूमिका निभाई वह काबिल-ए-तारीफ है। इनका दायरा चौक-चौराहों-चौपालों, खेत-खलिहानों, पहाड़ों और जंगलों तक फैला हुआ है। डिजिटल मीडिया ने भी हमारे जीवन में धमाकेदार उपस्थिति दर्ज करा ली है। श्री नकवी ने कहा कि मीडिया, विभिन्न सूचनाओं एवं जानकारी से न केवल जनमानस को जागरूक करता है अपितु रचनात्मक आलोचना के माध्यम से व्यवस्था को आगाह भी करता है।

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