
- अतीत की चमक और वर्तमान की धुंध
भोजपुरी सिनेमा का सफर एक बार फिर संकट से गुजर रहा है। कभी “गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ाइबो” (1963), “बिदेसिया” (1965) और “नदिया के पार” (1982) जैसी फिल्मों ने इसे परिवारों का पसंदीदा बनाया था। इन फिल्मों में गांव की माटी, बोली की मिठास और लोक संस्कृति की गहराई थी।
लेकिन 2004 के बाद जब भोजपुरी फिल्मों की नई लहर चली, तो शुरुआत में मनोज तिवारी, रवि किशन और निरहुआ जैसे सितारों ने इसे नई पहचान दी। फिल्में हिट भी हुईं—ससुरा बड़ा पइसावाला (2004), बिदाई (2008), बलिदान (2009), ससुरा बड़ा धनवाला (2011) और गंगा जमुना सरस्वती (2012)। लेकिन इस सफलता के बीच इंडस्ट्री में धीरे-धीरे फूहड़ता, अश्लीलता और उथली कहानियों का कब्जा बढ़ता गया। नतीजा यह हुआ कि भोजपुरी सिनेमा बार-बार फ्लॉप फिल्मों की मार झेलता रहा और 2012 से 2025 तक यह संकट और गहराता गया।
2004 से 2025 तक का सफरनामा: हिट और फ्लॉप का खेल
हिट फिल्मों की झलक
ससुरा बड़ा पइसावाला (2004) – मनोज तिवारी की ब्लॉकबस्टर, जिसने भोजपुरी को फिर से खड़ा किया।
बिदाई (2008) – रिंकू घोष और रवि किशन की भावनात्मक कहानी, उस दौर की सबसे बड़ी हिट।
बलिदान (2009) – देशभक्ति पर आधारित, जिसमें जैकी श्रॉफ का कैमियो भी था।
गंगा जमुना सरस्वती (2012) – मल्टीस्टारर, ब्लॉकबस्टर।
निरहुआ हिंदुस्तानी (2014) – दिनेश लाल यादव निरहुआ का करियर बदलने वाली फिल्म।
ससुरा बड़ा सटावेला और *कुली नंबर 1* – खेसारी लाल यादव की लोकप्रिय फिल्में।
बॉर्डर (2018) – देशभक्ति पर आधारित बड़ी फिल्म, जिसने बॉक्स ऑफिस पर कमाई की।
फ्लॉप फिल्मों की लंबी कतार
ससुरो कभी दामाद रहल (2012) – सबसे बड़ी असफलता।
देवता (2012) – नाम बड़ा, लेकिन काम शून्य।
भाई हमरा दयावान (2012) – दर्शकों ने नकार दिया।
अचल रहे सुहाग (2012) – पूरी तरह पिटी।
लोहा पहलवान (2016) – भारी प्रमोशन लेकिन फूहड़पन की वजह से असफल।
गुलामी (2015) – स्टारकास्ट के बावजूद असफल।
लव के लिए कुछ भी करेगा, हॉट मसाला, लव एक्सप्रेस जैसी कई फिल्में – अश्लील गीत-संवाद और खराब कहानी की वजह से फ्लॉप।
राम लखन (2017) और सिपाही – उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी।
जिला चंपारण (2017) – औसत से भी नीचे।
2020 के बाद OTT के दबाव में बनी फिल्में—अधिकांश औंधे मुँह गिरीं।
2012: भोजपुरी सिनेमा का सबसे काला साल
अगर सबसे बड़ी असफलता की बात की जाए तो 2012 वह साल था जिसने इंडस्ट्री का कचूमर निकाल दिया।
- ससुरो कभी दामाद रहल को मीडिया ने “Epic Failure” बताया।
- थिएटर खाली रहे, गाने भद्दे निकले, संवाद फूहड़।
- निर्माण लागत लाखों में थी, लेकिन कमाई मुश्किल से खर्च भी नहीं निकाल पाई।
- निर्माता-निर्देशक को करोड़ों का नुकसान हुआ।
साथ ही देवता, भाई हमरा दयावान और अचल रहे सुहाग जैसी फिल्में भी बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुँह गिरीं।
संक्षिप्त कहानी: ससुरो कभी दामाद रहल
फिल्म ससुर-दामाद के रिश्ते पर हास्य आधारित थी। लेकिन हास्य भद्दा निकला। संवेदनशील रिश्ते को अश्लीलता और द्विअर्थी संवाद में बदल दिया गया। नतीजा—दर्शकों ने इसे ठुकरा दिया।
आलोचनात्मक विश्लेषण: असफलताओं के जिम्मेदार
निर्माता
जल्दी पैसा बनाने के चक्कर में कम निवेश और घटिया कंटेंट।
प्रोफेशनलिज़्म का अभाव, ज्यादातर लोकल स्तर के निवेशक।
निर्देशक
तकनीकी दृष्टि कमजोर।
बिना स्क्रिप्ट डेवलपमेंट और बिना रिसर्च फिल्म बनाना।
अभिनेता
ओवरएक्टिंग, कृत्रिम ऐक्शन और अश्लील डायलॉग।
कुछ सितारे राजनीति में चले गए, इंडस्ट्री को समय नहीं दिया।
दर्शक
परिवार वर्ग पूरी तरह दूर हो गया।
ग्रामीण दर्शक भी अब YouTube और OTT पर मनोरंजन खोजने लगे।
सबसे खराब फिल्में (2004–2025 सूचीबद्ध)
1. ससुरो कभी दामाद रहल (2012) – सबसे खराब, Epic Failure।
2. देवता (2012) – धार्मिक नाम, लेकिन फूहड़ कंटेंट।
3. भाई हमरा दयावान (2012) – कहानी कमजोर।
4. अचल रहे सुहाग (2012) – पारिवारिक फिल्म के नाम पर अश्लीलता।
5. गुलामी (2015) – बड़े सितारे, लेकिन घटिया पटकथा।
6. लोहा पहलवान (2016) – प्रमोशन में दम, कंटेंट में खोखलापन।
7. राम लखन (2017) – अपार उम्मीदों पर खरा नहीं उतरी।
8. जिला चंपारण (2017) – बुरी तरह पिटी।
9. लव एक्सप्रेस (2018) – नाम रोमांटिक, कंटेंट फूहड़।
10.लव के लिए कुछ भी करेगा (2019) – बेतुकी कहानी, असफल।
नुकसान का आंकड़ा
- 2012 अकेले में इंडस्ट्री को 5–7 करोड़ रुपये का नुकसान।
- 2015 से 2020 के बीच लगभग हर साल 10–15 फिल्में फ्लॉप रहीं।
- 2020 के बाद OTT युग में बनी फिल्मों का 90% बॉक्स ऑफिस पर असफल।
अभिनेता बनाम नेता
मनोज तिवारी – राजनीति में सफल, फिल्म से दूरी।
रवि किशन – संसद तक पहुँचे, फिल्मों में स्थिरता नहीं।
दिनेश लाल यादव निरहुआ – सांसद बने, फिल्मों की गुणवत्ता घटी।
खेसारी लाल यादव – आज सबसे ज्यादा मांग, लेकिन विवाद और अश्लील गानों के आरोप भी।
रास्ता क्या है?
- साफ-सुथरी पारिवारिक फिल्में: परिवार फिर से थिएटर आएंगे।
- लोकगीत और संस्कृति: भोजपुरी की पहचान लौटे।
- प्रोफेशनल निवेश: बड़े प्रोडक्शन हाउस को जोड़ना होगा।
- नई सोच: युवा लेखक-निर्देशक को मौका।
- तकनीकी सुधार: कैमरा, वीएफएक्स, म्यूजिक सबमें निवेश।
भोजपुरी सिनेमा की सबसे बड़ी असफलता केवल फिल्मों के पिटने की कहानी नहीं है। यह एक मानसिकता की विफलता है—जहां मुनाफे की भूख, फूहड़ता और राजनीति ने इंडस्ट्री का भविष्य अंधेरे में धकेल दिया। लेकिन रास्ता अभी भी है। अगर भोजपुरी सिनेमा अपने स्वर्णिम अतीत से प्रेरणा लेकर परिवार, संस्कृति और गुणवत्ता की ओर लौटे तो यह इंडस्ट्री फिर से चमक सकती है। यह रिपोर्ट सिर्फ आलोचना नहीं, बल्कि एक मुहिम है—भोजपुरी सिनेमा को बचाने की।
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