Opinion

भारत की दवा उद्योग में भरोसे की जंग: कफ सिरप त्रासदी के बाद सख्त गुणवत्ता नियंत्रण की नई चुनौती

भारत का दवा उद्योग दुनिया का भरोसेमंद केंद्र माना जाता है, पर हाल की कफ सिरप त्रासदियों ने इसकी विश्वसनीयता पर गहरी चोट पहुंचाई है। WHO की चेतावनियों और बच्चों की मौतों के बाद केंद्र सरकार ने उत्पादन इकाइयों को सख्त गुणवत्ता मानकों के अनुरूप काम करने का निर्देश दिया है। संशोधित ‘शेड्यूल-M’ में बड़े उद्योगों को 2024 से और छोटे निर्माताओं को 2025 तक अनुपालन अनिवार्य किया गया है। सवाल यह है कि क्या भारत अपने फार्मा सेक्टर को सस्ती दवा से आगे बढ़ाकर सुरक्षित दवा का पर्याय बना पाएगा?

  • गाम्बिया से उज्बेकिस्तान और अब भारत तक – दूषित कफ सिरप की घटनाओं ने देश की ‘फार्मेसी ऑफ द वर्ल्ड’ छवि पर सवाल उठाए हैं। सरकार ने संशोधित ‘शेड्यूल-M’ के तहत सख्त गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिस लागू कर दी है, पर असली चुनौती छोटे-मझोले उद्योगों के अनुपालन और निगरानी की है।

नवीनतम कफ सिरप त्रासदी के बाद भारत सरकार ने छोटे-मझोले दवा निर्माताओं के लिए उत्पादन संयंत्रों को उन्नत करने की समयसीमा पर नरमी से इनकार कर दिया है। नियामकों का कहना है कि सार्वजनिक सुरक्षा सर्वोपरि है और WHO-समकक्ष मानकों का पालन अब टाला नहीं जा सकता। हालिया मामलों में मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा व आसपास के जिलों में हुई बच्चों की मौतों ने देश में दवा सुरक्षा और निरीक्षण व्यवस्था पर तीखे सवाल खड़े कर दिए हैं।

घटनाक्रम: त्रासदियाँ, परीक्षण और अलर्ट

पिछले तीन वर्षों में, कफ सिरप में डाइएथिलीन ग्लाइकॉल (DEG) और एथिलीन ग्लाइकॉल जैसी विषाक्त रसायनों की मौजूदगी से जुड़े मामले बार-बार सामने आए हैं – पहले गाम्बिया (2022), फिर उज्बेकिस्तान (2022–23), और अब भारत में खुद बच्चों की मौतें दर्ज हुईं। WHO ने 5 अक्टूबर 2022 के अलर्ट में हरियाणा स्थित एक कंपनी के चार उत्पादों के बारे में देशों को सतर्क किया था, जबकि 11 जनवरी 2023 के अलर्ट में उज्बेकिस्तान में सामने आए दो सिरप मामलों का उल्लेख है।

हाल में 13 अक्टूबर 2025 को WHO ने भारत में पहचानी गई तीन संदूषित ओरल लिक्विड दवाओं पर नया अलर्ट जारी किया। ये घटनाएँ बताती हैं कि गुणवत्ता खामियों का जोखिम केवल निर्यात बाज़ार तक सीमित नहीं, घरेलू स्तर पर भी मौजूद है।  WHO ने 23 जनवरी 2023 की अपनी सार्वजनिक अपील में देशों से कहा था कि संदूषित/मापदंड-विरुद्ध चिकित्सा उत्पादों को रोकने के लिए सुदृढ़ निगरानी, परीक्षण और आपूर्ति शृंखला में पारदर्शिता अनिवार्य है ।

नवीनतम भारतीय संदर्भ: ‘कोल्डरिफ’ केस और राज्यों की कार्रवाई

अक्टूबर 2025 में सामने आए ‘कोल्डरिफ’ ब्रांड के कफ सिरप के नमूनों में DEG की मात्रा अनुमेय सीमा (0.1%) से सैकड़ों गुना ज्यादा पाई गई। इसके बाद देश में 17 से 24 तक बच्चों की मौतों की खबरें रिपोर्ट हुईं; संबंधित निर्माता के लाइसेंस रद्द किए गए, कंपनी के संस्थापक की गिरफ्तारी हुई और आपूर्ति शृंखला में शामिल डीलरों पर कार्रवाई तेज हुई। पंजाब सरकार ने तमिलनाडु स्थित निर्माता की सभी फॉर्मुलेशनों पर राज्य में प्रतिबंध लगाया, जबकि मध्य प्रदेश के जबलपुर में एक डीलर का लाइसेंस रद्द कर भंडारगृह सील कर दिए गए। यह कार्रवाई दर्शाती है कि राज्य-स्तर पर प्रवर्तन अब सख्त दिशा में बढ़ रहा है।

केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (CDSCO) ने भी समानांतर रूप से ‘स्प्यूरियस’/अमानक दवाओं पर अलर्ट जारी किए और सितंबर 2025 के गुणवत्ता अलर्ट में 100 से अधिक दवाओं की विफलता का संकेत दिया- यह इशारा करता है कि समस्या बिखरे हुए अनुपालन और लैब-टेस्टिंग की खामियों से भी जुड़ी है।

नीति-परिवर्तन: संशोधित ‘शेड्यूल-M’ और समयसीमाएँ

भारत सरकार ने 28 दिसम्बर 2023 को ड्रग्स रूल्स, 1945 में संशोधन कर संशोधित ‘शेड्यूल-M’ अधिसूचित किया, जिसमें GMP (गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिसेस) की कड़ी अपेक्षाएँ, प्रीमाइसेज़-प्लांट-इक्विपमेंट की अनिवार्यताएँ और गुणवत्ता-प्रणाली (Pharmaceutical Quality System) को मजबूत करने की रूपरेखा स्पष्ट है। 29 जून 2024 से 250 करोड़ रुपये से अधिक टर्नओवर वाले निर्माताओं पर ये मानक लागू हो चुके हैं, जबकि छोटे/मझोले निर्माताओं को अनुपालन हेतु 12 माह का समय मिला था। 2025 में, सरकार ने इस समयसीमा में ढील की मांग ठुकराते हुए कहा कि अब और टाला नहीं जा सकता।

स्वास्थ्य मंत्रालय/PIB के बयानों के अनुसार, संशोधित शेड्यूल-M का उद्देश्य केवल उपकरण अपग्रेड नहीं बल्कि ‘क्वालिटी बाय डिजाइन’ सोच को मजबूत करना है- यानी विकास से लेकर कमर्शियल निर्माण और उत्पाद-जीवनचक्र के दौरान सतत सुधार। यह वैश्विक विनियामकीय अपेक्षाओं- खासकर WHO और परिपक्व बाज़ारों के समतुल्य-के अनुरूप है।

नियामकीय गैप और क्षमता-निर्माण की चुनौती

अक्टूबर 2025 में WHO/रॉयटर्स रिपोर्टिंग ने इंगित किया कि भारत में घरेलू बाजार के लिए बिकने वाले सिरपों की स्क्रीनिंग/बैच-टेस्टिंग में ‘रेगुलेटरी गैप’ है। उद्योग के भीतर यह स्वीकार किया गया कि हर बैच में सक्रिय घटकों से लेकर ‘एक्ससिपिएंट्स’ तक की व्यापक जाँच अपेक्षित है, लेकिन व्यावहारिक स्तर पर हर जगह ऐसा नहीं होता। कुछ निरीक्षणों में यह भी पाया गया कि ‘इन-हाउस’ व ‘स्वतंत्र’ लैब परीक्षण की रूटीन क्षमता और दस्तावेज़ीकरण में कमी रही है।

राज्य औषधि-नियंत्रकों के खाली पद, सीमित संसाधन, और लैब्स की क्षमता-वृद्धि जैसे मुद्दे अक्सर कमजोर कड़ी बन जाते हैं। देश भर में 10,000 से अधिक दवा-कारखानों वाले इकोसिस्टम में एक समान सख्ती लागू करना तभी संभव है जब निरीक्षण-ढाँचा, डिजिटल ट्रेल (ट्रेस-एंड-ट्रैक), और क्रॉस-स्टेट समन्वय साथ-साथ बढ़ें।

उद्योग-पक्ष: लागत, अनुपालन और बाज़ार-प्रभाव

छोटे-मझोले निर्माताओं की दलील है कि WHO-ग्रेड अपग्रेड पर बड़ी पूंजी लगेगी- HVAC, क्लीन-रूम, ऑटोमेशन, डेटा-इंटीग्रिटी सिस्टम, वैलिडेशन, और प्रशिक्षण पर व्यय बढ़ेगा- जिससे कई इकाइयों का व्यवसायिक मॉडल प्रभावित होगा। सरकार का तर्क है कि बड़े निर्माता पहले ही अनुपालन में आ चुके हैं; संभावित अल्पकालिक आपूर्ति-झटकों के बावजूद सार्वजनिक स्वास्थ्य सर्वोपरि रहेगा और बड़ी कंपनियाँ गैप को भर सकती हैं। नियामकीय सख्ती के बीच, वैश्विक कंपनियों के भारत में निवेश-रुचि – क्वालिटी हब, कॉन्ट्रैक्ट मैन्युफैक्चरिंग – भी बढ़ रही है, जो लंबे समय में गुणवत्ता-संस्कृति को मजबूत कर सकती है।

आपूर्ति शृंखला और प्रवर्तन: राज्य-केंद्र समन्वय

छिंदवाड़ा/बेतुल मामले में आपूर्ति शृंखला के नोड्स – निर्माता (तमिलनाडु), वितरक/डीलर (मध्य प्रदेश), और रिटेल-बिक्री – की कड़ियाँ खंगाली गईं।जबलपुर स्थित डीलर का लाइसेंस रद्द होना और अवैध/अनधिकृत भंडारण पर कार्रवाई दिखाती है कि प्रवर्तन केवल निर्माता-स्तर तक सीमित नहीं रहेगा। अन्य राज्यों – जैसे पंजाब – का राज्य-स्तरीय ‘कंपनी-वाइड’ प्रतिबंध यह संकेत देता है कि अंतरराज्यीय समन्वय वाले मामलों में भी त्वरित संकल्पना बन रही है।

केंद्र सरकार ने 2022 की घटनाओं के बाद से ही राज्यों के साथ समन्वय बढ़ाया था। हरियाणा के अधिकार क्षेत्र वाले एक प्रमुख मामले में CDSCO ने स्टेट रेगुलेटर के साथ जांच समन्वित की- यह पैटर्न अब नवीन मामलों में भी अपनाया जा रहा है। कानूनी ढाँचा और दंडात्मक प्रावधान

ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940 तथा इसके तहत बने नियमों का उल्लंघन संज्ञेय अपराध है। लाइसेंस निरस्तीकरण, जब्ती, अभियोजन – ये सभी विकल्प नियामकों के पास हैं। ताजा मामलों में लाइसेंस रद्दीकरण के साथ आपराधिक धाराओं में गिरफ्तारी भी हुई है। नई नीति-बहस में ‘क्रिमिनल लायबिलिटी बनाम प्रशासनिक दंड’ का विमर्श भी उठ रहा है- ताकि जानलेवा लापरवाही पर कठोरतम संदेश जाए, साथ ही अनुपालन को ‘प्रोसेस-ड्रिवन’ तरीके से बढ़ाया जाए।

अंतरराष्ट्रीय मानक और तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य

अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों- अमेरिका/यूरोप/जापान- में cGMP, डेटा इंटीग्रिटी, और ‘बॅच-रिलीज़’ प्रणाली बहुत कठोर है। भारत का संशोधित शेड्यूल-M इन्हीं मानकों के करीब जाने का प्रयास है: क्लीन-रूम क्लासेस, HVAC व प्रेशर डिफरेंशियल्स, वैलिडेशन/क्वालिफिकेशन, क्वालिटी रिस्क मैनेजमेंट (QRM), और कंप्लायंस ऑडिट का स्पष्ट रोडमैप। WHO के एमपीए (Medical Product Alerts) और ‘ग्लोबल मेडिकल प्रोडक्ट क्वालिटी रिपोर्टिंग’ तंत्र के साथ डेटा-शेयरिंग बढ़ने से सीमा-पार घटनाओं का पता पहले से तेजी से चल पाता है- पर घरेलू बाजार के लिए भी समान कठोरता आवश्यक है।

 जन-स्वास्थ्य का असर: भरोसा, उपयोग और सूचना-प्रणाली

कफ सिरप जैसी ओवर-द-काउंटर श्रेणी के उत्पाद बच्चों में व्यापक रूप से इस्तेमाल होते हैं। संदूषण-घटनाएँ केवल तत्काल मौतों/गंभीर बीमारियों तक सीमित नहीं  – वे लंबे समय तक जनता के भरोसे और उपचार-अनुशासन को चोट पहुँचाती हैं। WHO की अपील का केंद्रीय संदेश यही है कि सुरक्षा केवल फैक्ट्री-गेट पर नहीं, पूरी वैल्यू-चेन में सुनिश्चित होनी चाहिए – खासकर जब उत्पाद छोटे बच्चों और संवेदनशील समूहों तक पहुँचते हों।

विशेषज्ञ-दृष्टि: परीक्षण-व्यवस्था और डेटा इंटीग्रिटी

स्वतंत्र विशेषज्ञों के अनुसार, DEG/EG का जोखिम अक्सर ‘एक्ससिपिएंट’ (जैसे ग्लिसरीन/प्रोपिलीन ग्लाइकॉल) की शुद्धता से जुड़ता है। यदि सप्लायर-क्वालिफिकेशन, इनकमिंग-क्वालिटी-कंट्रोल (IQC), और प्रत्येक बैच का गैस-क्रोमैटोग्राफी/अन्य विधियों से परीक्षण कठोर न हो तो संदूषण का जोखिम बना रहता है। मीडिया और उद्योग-विश्लेषणों में यह भी सामने आया कि कुछ मामलों में हर बैच की समुचित टेस्टिंग दस्तावेज़ी आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं पाई गई। नियामकों का कहना है कि यह ड्रग्स रूल्स की स्पष्ट अवहेलना है।

क्या बदल रहा है: अनुपालन-संस्कृति, प्रशिक्षण और डिजिटल ट्रैकिंग

संशोधित शेड्यूल-M के बाद अब जोर ‘क्वालिटी कल्चर’ और ‘डेटा इंटीग्रिटी’ पर है- ALCOA+ सिद्धांत, इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड-प्रबंधन, ऑडिट ट्रेल, और विचलन/डिविएशन की समयबद्ध जाँच-रिपोर्टिंग अनिवार्य होगी। इसके साथ ‘सप्लायर-क्वालिफिकेशन’ और ‘कच्चे माल’ की एंड-टू-एंड वैलिडेशन पर निवेश बढ़ेगा। राज्य/केंद्र प्रयोगशालाओं की क्षमता-वृद्धि, NABL-अक्रीडिटेशन, और ऑन-साइट/रैंडम सैंपलिंग को डिजिटल प्लेटफॉर्म से जोड़कर ‘ट्रेस-एंड-ट्रैक’ की पारदर्शिता बढ़ाई जा सकती है। (मंत्रालय/PIB दस्तावेज़ संशोधित शेड्यूल-M के प्रावधानों में इन पहलुओं को रेखांकित करते हैं।

उद्योग-परिदृश्य: निवेश, निर्यात-छवि और दीर्घकालिक प्रतिस्पर्धा

भारत की वैश्विक ‘जनरिक फार्मेसी’ छवि हाल की त्रासदियों से दबाव में आई है। पर समानांतर रूप से, भारत के पास विशाल निर्माण-आधार, प्रशिक्षित मानव संसाधन और लागत-प्रतिस्पर्धा के कारण दीर्घकाल में नेतृत्व कायम रखने की क्षमता है। वैश्विक कंपनियाँ भी भारत में क्वालिटी-हब और निर्माण-क्षमता बढ़ाने की घोषणा कर रही हैं- जो आपूर्ति शृंखला में ‘बेस्ट-प्रैक्टिस’ प्रसारित करने में सहायक हो सकता है। उद्योग के जानकारों का मानना है कि अल्पकाल में अनुपालन-लागत और समेकन (consolidation) बढ़ेगा; दीर्घकाल में उच्च-गुणवत्ता वाले भारतीय ब्रांडों के लिए वैश्विक बाज़ार और खुल सकते हैं।

आगे की राह: सुदृढ़ निरीक्षण, पारदर्शिता और शून्य-सहनशीलता

नवीन त्रासदी के बाद केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर संदेश स्पष्ट है- अमानक दवाओं के लिए शून्य-सहनशीलता। सरकार की सख्त समयसीमाएँ और लाइसेंस-स्तरीय कार्रवाई बताती है कि ‘अनुपालन या परिणाम’ का युग शुरू हो चुका है। पर टिकाऊ समाधान के लिए तीन समानांतर धुरी अनिवार्य हैं –

1. क्षमता-निर्माण: राज्य-औषधि निरीक्षकों की संख्या/प्रशिक्षण, सरकारी-निजी लैब नेटवर्क का विस्तार, समयबद्ध परीक्षण।
2. डिजिटल निगरानी: बैच-स्तरीय ट्रैक-एंड-ट्रेस, सप्लाई-चेन पारदर्शिता, और राष्ट्रीय-स्तर पर इंटरऑपेरेबल डेटा-प्लेटफॉर्म।
3. क्वालिटी-कल्चर: फैक्ट्री-फ्लोर से लेकर टॉप-मैनेजमेंट तक ‘कंप्लायंस इज़ नॉन-नेगोशिएबल’ का संदेश; इनाम-और-दंड—दोनों की स्पष्टता।

WHO के ताज़ा अलर्ट और भारत सरकार के संशोधित शेड्यूल-M का संयोजन संकेत देता है कि भारत अपने दवा-मानकों को वैश्विक सर्वश्रेष्ठ प्रथाओं के अनुरूप ढालने की प्रक्रिया में है- मगर यह दौड़ लंबी है और हर चरण में सतर्कता की मांग करती है। कफ सिरप त्रासदी ने कीमत बहुत भारी दिलवाई है; अब सुधारों का क्रियान्वयन उतनी ही कठोरता से होना चाहिए, ताकि ‘मेड इन इंडिया’ का पर्याय सिर्फ ‘सस्ती दवा’ नहीं, बल्कि ‘सुरक्षित और भरोसेमंद दवा’ बने।

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डिस्क्लेमर:यह लेख लेखक के व्यक्तिगत अध्ययन, अनुसंधान और प्राप्त समाचार-स्रोतों पर आधारित विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। इसमें व्यक्त विचार लेखक के हैं, आवश्यक नहीं कि यह प्रकाशन संस्था या संपादकीय टीम की राय को दर्शाते हों। लेख का उद्देश्य किसी कंपनी, व्यक्ति या संगठन के प्रति पूर्वाग्रह प्रकट करना नहीं, बल्कि जन-स्वास्थ्य और औषधि-गुणवत्ता से जुड़ी चुनौतियों पर रचनात्मक विमर्श को प्रोत्साहित करना है। प्रस्तुत तथ्य उपलब्ध सार्वजनिक अभिलेखों और प्रामाणिक रिपोर्टों से संकलित हैं; पाठकों को किसी भी चिकित्सा निर्णय से पहले विशेषज्ञ सलाह लेने की सलाह दी जाती है।

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