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इम्फाल घाटी में वैज्ञानिकों की ऐतिहासिक खोज,हिमयुग में बांस के अस्तित्व का प्रमाण

मणिपुर की इम्फाल घाटी में चिरांग नदी की गाद से वैज्ञानिकों को 37,000 वर्ष पुराना बांस का तना मिला है, जिसमें कांटों के स्पष्ट निशान पाए गए हैं। बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान के शोधकर्ताओं द्वारा खोजा गया यह जीवाश्म बांस में कांटेदार संरचना का दुनिया का पहला प्रमाण है। यह खोज दर्शाती है कि हिमयुग के दौरान शाकाहारी जीवों से बचने के लिए बांस में कांटे विकसित हुए थे। उस समय कठोर जलवायु के कारण यूरोप में बांस विलुप्त हो गया, जबकि पूर्वोत्तर भारत ने इसे सुरक्षित आश्रय दिया। यह शोध जैव विविधता और पुराजलवायु अध्ययनों में नया आयाम जोड़ता है।

नयी दिल्ली : विज्ञान जगत में एक नई सनसनीखेज खोज सामने आई है। मणिपुर की इम्फाल घाटी में शोधकर्ताओं को चिरांग नदी की गाद से एक ऐसा बांस का तना मिला है, जो लगभग 37,000 वर्ष पुराना है और आश्चर्यजनक रूप से पूरी तरह सुरक्षित अवस्था में मिला है। इसमें मौजूद कांटों के अतिप्राचीन निशान वैज्ञानिकों के लिए बेहद महत्वपूर्ण साबित हुए हैं, क्योंकि अब तक बांस में कांटेदार संरचनाओं का जीवाश्म प्रमाण कभी नहीं मिला था। यह खोज एशिया सहित विश्व के वनस्पति इतिहास का एक नया अध्याय खोल सकती है।

कैसे मिली यह अनमोल खोज

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (DST) के स्वायत्त संस्थान बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान (BSIP) के वैज्ञानिकों ने चिरांग नदी क्षेत्र के क्षेत्रीय सर्वे के दौरान यह नमूना प्राप्त किया। वैज्ञानिकों ने बताया कि बांस का तना सामान्यतः खोखला और रेशेदार होता है, जिसके कारण यह बहुत जल्दी सड़ जाता है और जीवाश्म के रूप में संरक्षित होना बेहद दुर्लभ है। इसलिए इतनी अच्छी स्थिति में मिला यह नमूना वैज्ञानिक दृष्टि से असाधारण है।

प्रयोगशाला में इसके गांठों, कलियों और कांटों के आकृतिगत विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकला कि यह चिमोनोबाम्बुसा (Chimonobambusa) वंश का बांस है। इसकी तुलना बैम्बुसा बैम्बोस (Bambusa bambos) और चिमोनोबाम्बुसा कैलोस (Chimonobambusa callosa) जैसी वर्तमान प्रजातियों से की गई, जिससे इसके रक्षात्मक गुणों और पारिस्थितिक भूमिका को समझने में सहायता मिली।

क्यों है यह खोज महत्वपूर्ण

* यह खोज दुनिया में पहली बार बांस में कांटों के जीवाश्म प्रमाण उपलब्ध कराती है।
* यह सिद्ध करती है कि हिमयुग (Ice Age) के दौरान बांस ने स्वयं को शाकाहारी जानवरों से बचाने के लिए कांटों का विकास किया था।
* उस समय अत्यधिक ठंडी और शुष्क वैश्विक जलवायु के कारण यूरोप और अन्य क्षेत्रों में बांस लगभग समाप्त हो गया था।
* इसके विपरीत, पूर्वोत्तर भारत की गर्म और आर्द्र परिस्थितियों ने बांस को सुरक्षित आश्रय दिया, जहाँ वह निरंतर फलता-फूलता रहा।

वैज्ञानिक दृष्टि से बड़ा योगदान

अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका “रिव्यू ऑफ पैलियोबॉटनी एंड पैलिनोलॉजी” में प्रकाशित यह अध्ययन वैज्ञानिक समुदाय में विशेष चर्चा का विषय बना हुआ है। यह अध्ययन हिमयुग के दौरान भारत-बर्मा क्षेत्र की जैव विविधता के महत्व को मजबूती से प्रस्तुत करता है।

यह शोध:

* बांस के विकासवादी इतिहास (Evolutionary development) को समझने में नया दृष्टिकोण देता है।
* पुराजलवायु (Paleoclimate) और जैव-भौगोलिक (Biogeographic) शोध में महत्वपूर्ण योगदान देता है।
* एशिया के इस भाग को प्लांट रिफ्यूज (Plant Refuge Zone) के रूप में स्थापित करता है।

शोधकर्ता और उनके निष्कर्ष

इस महत्वपूर्ण शोध को एच. भाटिया, पी. कुमारी, एन.एच. सिंह और जी. श्रीवास्तव ने संयुक्त रूप से पूरा किया। उनका मानना है कि यह खोज भविष्य में:

* पौधों की विलुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण की रणनीति बनाने,
* हिमयुग की पारिस्थितिकी का पुनर्निर्माण करने,
* और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को समझने में मदद करेगी।

यह खोज केवल एक जीवाश्म की खोज भर नहीं है, बल्कि बांस के विकास इतिहास, पुराभूगोल और जैव विविधता संरक्षण की दिशा में एक ऐतिहासिक उपलब्धि है। यह विश्व को यह भी याद दिलाती है कि पूर्वोत्तर भारत जैसे क्षेत्रों ने हजारों वर्षों से जैव विविधता की रक्षा में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।(वार्ता)

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