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दीपावली का रहस्य: क्यों बंद हुई इंद्र-कुबेर पूजा और कैसे शुरू हुआ लक्ष्मी-गणेश पूजन

वाराणसी के प्रसिद्ध ज्योर्तिविद पं. रमन जी बताते हैं कि दीपावली के प्रारंभिक स्वरूप में लक्ष्मी, इंद्र और कुबेर की पूजा की जाती थी। त्रेतायुग में रावण द्वारा कुबेर के पराभव और द्वापरयुग में श्रीकृष्ण द्वारा इंद्र के मानमर्दन के बाद इन दोनों देवताओं की पूजा का प्रभाव समाप्त हो गया। इसके बाद लक्ष्मी के साथ गणेश पूजन की परंपरा शुरू हुई। पं. रमन जी के अनुसार, दीपावली की रात्रि गृहस्थों के लिए सात्त्विक साधना और श्रीसूक्त हवन का श्रेष्ठ समय है। यही दीपों के इस पर्व का वास्तविक अर्थ है।

  • प्राचीन ग्रंथों और युग परिवर्तनों में छिपा है दीपावली के पूजन का रहस्य। पं. रमन जी के अनुसार गृहस्थों के लिए सात्त्विक पूजन ही श्रेष्ठ मार्ग है 

दीपावली का नाम सुनते ही आँखों के सामने दीपों की झिलमिलाहट, घर-आँगन की सजावट और लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियाँ उभर आती हैं। यह दृश्य हर भारतीय के लिए उत्सव और उल्लास का प्रतीक है। लेकिन वाराणसी के ज्योर्तिविद पं. रमन जी बताते हैं कि दीपावली का यह स्वरूप वैसा नहीं था जैसा आज हम देखते हैं। प्राचीन समय में दीपावली पर लक्ष्मी, इंद्र और कुबेर – इन तीनों देवताओं का पूजन होता था। समय के साथ युगों के परिवर्तन ने इस परंपरा को नया रूप दिया और आज यह पर्व लक्ष्मी और गणेश की आराधना के रूप में स्थापित हो गया।

त्रेतायुग का परिवर्तन: जब कुबेर का पूजन थम गया

त्रेतायुग में लंका के राजा रावण ने अपने पराक्रम के बल पर धन के अधिपति कुबेर को पराजित किया और उनसे पुष्पक विमान छीन लिया। यह घटना केवल एक दैवी संघर्ष नहीं थी, बल्कि धर्म और अधर्म के मध्य धन की मर्यादा का प्रतीक भी बन गई। रावण के द्वारा कुबेर का पराभव होने के बाद लोकमानस में यह विश्वास गहराने लगा कि धन का उपयोग तभी सार्थक है जब उसमें शुभता, विवेक और संयम जुड़ा हो। पं. रमन जी कहते हैं कि उसी युग से कुबेर की पूजा धीरे-धीरे कम होती गई। लोगों ने यह मान लिया कि जिस देवता से धन का वरदान मिलता है, उससे भी अधिक आवश्यक वह शक्ति है जो धन के सदुपयोग का मार्ग दिखाए। इसी भावना ने गणेश को लोकपूज्य बना दिया। गणेश ज्ञान, विवेक, और शुभारंभ के देवता हैं। इसलिए धीरे-धीरे दीपावली पर कुबेर के स्थान पर गणेश का पूजन प्रारंभ हुआ और यह परंपरा आज तक चली आ रही है।

द्वापरयुग का प्रभाव: इंद्र की पूजा क्यों बंद हुई

त्रेता के बाद द्वापरयुग आया। इस युग में भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्र के अहंकार को तोड़ा। जब इंद्र ने गोकुलवासियों पर वर्षा का प्रकोप ढाया, तब श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठाकर लोगों को बचाया। यह घटना देवता और मानव के संबंधों को पुनर्परिभाषित करने वाली थी। इंद्र का मानमर्दन होने के बाद उनके पूजन की परंपरा समाप्त हो गई। पं. रमन जी कहते हैं, “इंद्र उस समय शक्ति और अहंकार के प्रतीक बन गए थे। श्रीकृष्ण ने यह दिखाया कि धर्म केवल भय से नहीं, बल्कि प्रेम और करुणा से चलता है। इसी कारण दीपावली से इंद्र पूजा का संबंध टूट गया और लोक में लक्ष्मी-गणेश की आराधना ने स्थायी स्थान पा लिया।”

दीपावली की रात क्यों कहलाती है कालरात्रि

दीपावली की रात्रि को शास्त्रों में कालरात्रि कहा गया है। पं. रमन जी बताते हैं कि इस रात में ब्रह्मांड की ऊर्जाएँ अत्यंत सक्रिय रहती हैं। यही वह क्षण होता है जब अंधकार अपने चरम पर होता है और प्रकाश की पहली किरण जागृत होती है। इसी कारण इस रात्रि में तंत्र और साधना करने वाले साधक महाकालिका की उपासना करते हैं।

महाकालिका की आराधना में समय, दिशा और ग्रहों का सटीक संयोजन आवश्यक होता है। यह पूजा अत्यंत ऊर्जाशील होती है और साधक वर्ग के लिए ही उपयुक्त है। गृहस्थ लोगों को ऐसी पूजा से दूर रहना चाहिए, क्योंकि इसका प्रभाव सामान्य जीवन पर भारी पड़ सकता है।

पं. रमन जी कहते हैं, “गृहस्थ को अपनी पूजा में सात्त्विकता रखनी चाहिए। तंत्र की साधना विशेष ऊर्जा को जगाती है, जो साधक के लिए उपयुक्त तो होती है, पर गृहस्थ के लिए नहीं। यदि इसका अनुचित प्रयोग हुआ तो इससे मानसिक असंतुलन, अस्थिरता या आर्थिक अवरोध तक हो सकते हैं।”

गृहस्थों के लिए सरल और फलदायी विधि

पं. रमन जी गृहस्थों को दीपावली की रात्रि में सरल और सात्त्विक विधि से पूजन करने की सलाह देते हैं। उनके अनुसार, महालक्ष्मी का अष्टक स्तोत्र और श्रीसूक्त के सोलह श्लोक गृहस्थ परिवारों के लिए अत्यंत शुभ फलदायक हैं। वे कहते हैं, “यदि कोई गृहस्थ दीपावली की रात श्रीसूक्त के सोलह श्लोकों का उच्चारण करते हुए हवन करे, तो उसके जीवन में धन, शांति और स्थायित्व प्राप्त होता है। यह पूजा पूर्णतः सात्त्विक होती है और किसी भी प्रकार के तांत्रिक प्रभाव से रहित रहती है।”

श्रीसूक्त हवन की विधि

हवन की तैयारी के लिए घर का उत्तर-पूर्वी कोना या पूजास्थान सबसे उपयुक्त माना जाता है। अग्नि के लिए आम की लकड़ी और गाय के उपले का उपयोग करें। हवन सामग्री में लाल चंदन का चूर्ण, कमल गट्टा, किशमिश, बेल का मुरब्बा, नारियल का चूरा, देवदार की लकड़ी का बुरादा, गुड़, मखाना और शुद्ध गाय का घी रखें। श्रीसूक्त के सोलह श्लोक बोलते हुए प्रत्येक श्लोक के अंत में ‘स्वाहा’ कहकर एक आहुति दें। इस प्रकार कुल सोलह आहुति दी जानी चाहिए। यह विधि केवल लगभग तीस मिनट में पूर्ण हो जाती है और इसके बाद वातावरण में अद्भुत शांति और ऊर्जा का अनुभव होता है।

पूजन का समापन और आरती

हवन के पश्चात पहले श्रीगणेश की आरती करें। उसके बाद महालक्ष्मी की आरती संपन्न करें और परिवार सहित प्रसाद ग्रहण करें। पं. रमन जी कहते हैं, “दीपावली की रात जब घर में दीप जल रहे हों, परिवार के सभी सदस्य एक साथ आरती करें, तो वह दृश्य केवल धार्मिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक भी होता है। यह वह क्षण है जब गृहस्थ जीवन में दिव्यता उतरती है।”

दीपावली का वास्तविक संदेश

दीपावली केवल धन प्राप्ति का पर्व नहीं, बल्कि आत्मप्रकाश का पर्व है। यह वह क्षण है जब मनुष्य अपने भीतर के अंधकार को दूर कर ज्ञान और सद्बुद्धि के दीप जलाता है। पं. रमन जी बताते हैं कि इस पर्व का वास्तविक उद्देश्य भौतिक समृद्धि नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक संतुलन है। वे कहते हैं, “दीपावली हमें यह सिखाती है कि धन तभी शुभ है जब वह धर्म से जुड़ा हो। बुद्धि तभी सार्थक है जब वह लोभ से रहित हो, और पूजा तभी पूर्ण है जब उसमें श्रद्धा और सात्त्विकता हो।”

इंद्र, कुबेर और गणेश-लक्ष्मी की आराधना का दार्शनिक अर्थ

पं. रमन जी इस परिवर्तन के पीछे छिपे गहरे दार्शनिक अर्थ को भी स्पष्ट करते हैं। उनके अनुसार, इंद्र शक्ति का, कुबेर धन का और लक्ष्मी-गणेश क्रमशः समृद्धि व विवेक का प्रतीक हैं। जब युग बदलते हैं, तब पूजा के देवता भी बदलते हैं। आज का समाज विवेक, संतुलन और सदाचार को सर्वोपरि मानता है। इसीलिए लक्ष्मी के साथ गणेश की पूजा आज सबसे उपयुक्त प्रतीत होती है।

तंत्र और गृहस्थ धर्म का अंतर

तंत्र साधना और गृहस्थ धर्म में बहुत सूक्ष्म परंतु महत्वपूर्ण अंतर है। तंत्र मार्ग त्याग और साधना का मार्ग है, जबकि गृहस्थ मार्ग संयम और कर्तव्य का। तंत्र में शक्ति का जागरण होता है, पर गृहस्थ जीवन में शक्ति का संतुलन आवश्यक है। पं. रमन जी का मानना है कि गृहस्थ को धन, बुद्धि और धर्म – इन तीनों का संतुलन साधना चाहिए। यही सच्ची लक्ष्मी-गणेश आराधना है।

कालरात्रि की आध्यात्मिक व्याख्या

शास्त्रों में कहा गया है कि दीपावली की रात्रि कालरात्रि होती है क्योंकि यह ब्रह्मांडीय ऊर्जा के संपूर्ण उत्कर्ष का समय होता है। यह वह क्षण है जब आत्मा और प्रकृति का मिलन होता है। इस समय की साधना साधक के लिए मुक्ति मार्ग खोलती है, पर गृहस्थ के लिए यह ध्यान और पूजन का समय है। जब घर-आँगन में दीपक जलते हैं, तो वे केवल रोशनी नहीं फैलाते, वे मनुष्य के भीतर की अंधकार शक्तियों को भी परास्त करते हैं।

दीपों से अधिक मन का प्रकाश

पं. रमन जी कहते हैं, “दीपावली केवल बाहरी जगमगाहट का पर्व नहीं है। यह आत्मा के दीप को प्रज्वलित करने का समय है। जब हम गणेश और लक्ष्मी की आराधना करते हैं, तो हम धन और बुद्धि के संतुलन की प्रार्थना करते हैं। जब हम दीप जलाते हैं, तो हम अपने भीतर के अंधकार को समाप्त करते हैं।”

वाराणसी के इस ज्योर्तिविद के अनुसार, यदि दीपावली की रात को गृहस्थ सात्त्विक भावना से, श्रद्धा और संयम के साथ पूजा करें, तो वर्ष भर घर में सौभाग्य, शांति और समृद्धि बनी रहती है। दीपावली का अर्थ केवल धनी होना नहीं, बल्कि मन से प्रकाशमान होना है। यही इस पर्व का असली संदेश है – कि हर घर में केवल दीप नहीं, बल्कि आत्मा का प्रकाश जले।

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डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार, मत और धार्मिक विश्लेषण वाराणसी के ज्योर्तिविद पं. रमन जी के अध्ययन एवं परंपरागत मान्यताओं पर आधारित हैं। लेख का उद्देश्य भारतीय संस्कृति, परंपरा और ज्योतिषीय दृष्टिकोण का सामान्य ज्ञान प्रदान करना है। इस लेख का उद्देश्य किसी धर्म, संप्रदाय या व्यक्ति विशेष की भावना को ठेस पहुँचाना नहीं है। पाठकों से अनुरोध है कि किसी भी धार्मिक अनुष्ठान या पूजा-विधि को करने से पूर्व योग्य पंडित या आचार्य से परामर्श अवश्य लें। CMG TIMES इस विषयवस्तु से संबंधित किसी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष परिणाम के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।

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