जियुतीया व्रत 2025 : संतान रक्षा के लिए माताओं का निर्जला तप, जानिए तिथि, नियम, कथा और महत्व
हिंदू धर्म के पर्वों में एक ऐसा व्रत है, जिसे मातृत्व की अटूट आस्था और संतान की दीर्घायु का प्रतीक माना जाता है। यह है जियुतीया व्रत (जीवित्पुत्रिका या जितिया व्रत)। इस व्रत में माताएं अपने बच्चों की लंबी उम्र, सुख-समृद्धि और जीवन रक्षा की कामना करते हुए निर्जला उपवास रखती हैं। खास बात यह है कि इस दिन भोजन और जल दोनों का त्याग किया जाता है। धार्मिक मान्यता है कि इस व्रत से संतान पर आने वाले हर संकट टल जाते हैं और परिवार में सुख-शांति बनी रहती है। बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और नेपाल के कई हिस्सों में यह पर्व विशेष उत्साह से मनाया जाता है।
व्रत की तिथि और समय
- नहाय-खाय (पहला दिन): 13 सितंबर 2025 (शनिवार)
- निर्जला व्रत (मुख्य दिन): 14 सितंबर 2025 (रविवार)
- व्रत पारण (तीसरा दिन): 15 सितंबर 2025 (सोमवार) सुबह ब्रह्म मुहूर्त के बाद
- अष्टमी तिथि: 14 सितंबर को सुबह 05:04 बजे से शुरू होकर शाम 03:06 बजे तक रहेगी।
क्यों रखा जाता है जियुतीया व्रत
यह व्रत माताएं अपनी संतान की लंबी आयु, उत्तम स्वास्थ्य और जीवन रक्षा के लिए रखती हैं। मान्यता है कि इस व्रत के प्रभाव से संतान पर कोई बड़ा संकट नहीं आता। यह व्रत न केवल बच्चों की रक्षा करता है बल्कि मातृ-पुत्र के रिश्ते को और भी पवित्र बनाता है।
व्रत का नियम
1. नहाय-खाय (सप्तमी): माताएं शुद्ध जल से स्नान कर सात्विक भोजन ग्रहण करती हैं।
2. ओठगन (सरगई): ब्रह्म मुहूर्त में हल्का भोजन (दही-चूड़ा, फल, शरबत) लेकर संकल्प किया जाता है।
3. निर्जला उपवास (अष्टमी): पूरे दिन जल तक का त्याग।
4. पारण (नवमी): अगले दिन व्रत तोड़ा जाता है, ब्राह्मणों और गरीबों को दान दिया जाता है।
पूजा सामग्री
- मिट्टी/गोबर से बना तालाब
- भगवान जीमूतवाहन की प्रतिमा या चित्र
- कुशा-माला, दीपक, रोली, अक्षत, जलपात्र
- पीपल पत्ता, फूल, धूप-अगरबत्ती
- फल, दही-चूरा, झिंगुनी पत्ते पर प्रसाद
पूजा विधि और समय
- प्रातःकाल स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- मिट्टी या गोबर से छोटा तालाब बनाकर उसमें भगवान जीमूतवाहन की प्रतिमा स्थापित करें।
- भगवान शिव-पार्वती और पीपल वृक्ष की पूजा करें।
- व्रत कथा का पाठ करें और संतान की रक्षा का संकल्प लें।
- संध्या समय दीपक जलाकर आरती करें।
व्रत पारण का समय
अगली सुबह (15 सितंबर) ब्रह्म मुहूर्त के बाद व्रत का पारण किया जाता है। इस समय ब्राह्मणों को भोजन, वस्त्र और फल अर्पित किए जाते हैं।
व्रत की कथा
कथा के अनुसार गंधर्व राजकुमार जीमूतवाहन ने एक नागपुत्र की रक्षा हेतु स्वयं को गरुड़ को भक्षण हेतु अर्पित कर दिया। उनकी निःस्वार्थ भक्ति से गरुड़ प्रसन्न हुए और संतान रक्षा का वरदान दिया। तब से यह व्रत माताओं द्वारा संतान की लंबी उम्र और सुरक्षा के लिए रखा जाने लगा।
व्रत की आरती
जीमूतवाहन प्रभु की आरती
संतान रक्षा करहूँ भारी।”
(आरती का पाठ क्षेत्र विशेष में प्रचलित भक्ति गीतों के अनुसार किया जाता है।)
पौराणिक महत्व
यह व्रत संतान-रक्षा का सबसे प्रभावशाली पर्व माना गया है।
मातृत्व और त्याग की मिसाल पेश करता है।
धार्मिक दृष्टि से व्रत करने वाली स्त्रियों को सुख-समृद्धि, संतान की रक्षा और परिवार में शांति का आशीर्वाद मिलता है।
व्रत का महात्म्य
- संतान की दीर्घायु: बच्चों पर आने वाले संकट दूर होते हैं।
- पारिवारिक सुख-शांति: घर में कलह, अशांति दूर होती है।
- आध्यात्मिक लाभ: माता-संतान का बंधन मजबूत होता है।
शुरुआत और शास्त्रों में उल्लेख
- व्रत की शुरुआत प्राचीन काल में हुई, इसकी जड़ें पुराणों और लोककथाओं में मिलती हैं।
- जीमूतवाहन की कथा इसका मूल आधार है।
- विशेष रूप से बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखंड और नेपाल में यह व्रत पीढ़ियों से परंपरा बन चुका है।
व्रत में भोजन नियम
- नहाय-खाय दिन: केवल सात्विक भोजन (दलिया, सब्जी, दाल-चावल)।
- ओठगन: हल्का भोजन (दही-चूड़ा, शरबत, फल)।
- निर्जला व्रत: अन्न और जल दोनों वर्जित।
- पारण: दाल-भात, सब्जी, हलवा या पूड़ी-कचौड़ी, मिठाई।
डिस्क्लेमर :यह जानकारी धार्मिक मान्यता और परंपरा पर आधारित है। इसे अपनाने से पहले अपने परिवार या क्षेत्र के विद्वान आचार्य से परामर्श अवश्य लें।
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