बागी बलिया बलिदान दिवस : जब बलिया ने फूंका था आज़ादी का बिगुल
बलिया की धरती ने 19 अगस्त 1942 को वह इतिहास रचा, जिसने अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी। भारत छोड़ो आंदोलन के बीच बलिया के वीरों ने अंग्रेजी शासन को चुनौती देकर बलिया को स्वतंत्र घोषित कर दिया। इस बलिदान दिवस पर उन शहीदों को नमन, जिनकी बदौलत आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं।
- 1857 से 1942 तक : मंगल पांडे से बलिया के रणबांकुरों तक का सफ
- “19 अगस्त 1942 : बागी बलिया बना स्वतंत्र भारत की पहली झलक”
- “बलिया बलिदान दिवस : अंग्रेजी हुकूमत हिलाकर रख देने वाला संग्राम”
भारत की स्वतंत्रता केवल दिल्ली, मुंबई या कोलकाता के सभागारों में नहीं लिखी गई थी। यह कहानी गाँव-गाँव, खेत-खलिहानों, आंगनों और गलियों में गढ़ी गई थी। 1857 में मंगल पांडे ने जिस पहली चिंगारी को जलाई थी, उसी का विस्तार 1942 में बलिया की धरती पर दिखाई दिया। मंगल पांडे, जो बलिया जिले के नगवा गाँव के निवासी थे, ने ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज में रहते हुए विद्रोह कर यह बता दिया था कि अंग्रेजों की सत्ता सदा कायम नहीं रह सकती। उनकी शहादत ने पूरे देश में एक तूफान खड़ा कर दिया था। और उसी परंपरा को बलिया ने 85 साल बाद और भी ऊंचाई पर पहुंचाया, जब 19 अगस्त 1942 को इस धरती ने अंग्रेजों की हुकूमत को ध्वस्त कर खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया।
“बागी बलिया” का यह गौरवशाली अध्याय आज भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सबसे उज्ज्वल पृष्ठ है। बलिया न केवल विद्रोह का प्रतीक बना बल्कि भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान स्वतंत्रता की पहली झलक भी दिखा गया। इस क्रांति में चुन्नी लाल मिश्र, चित्तरंजन तिवारी, मथुरा प्रसाद मिश्र, जगदीश पांडे और शहीद विजय सिंह जैसे नायकों ने अपनी जान न्योछावर की। यह कहानी केवल इतिहास का हिस्सा नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
बलिया की पहचान ‘बागी बलिया’ के रूप में क्यों हुई, इसका उत्तर 19 अगस्त 1942 की घटनाओं में छिपा है। 8 अगस्त को बंबई (मुंबई) से महात्मा गांधी ने “भारत छोड़ो आंदोलन” का आह्वान किया। अंग्रेजी साम्राज्य डगमगा उठा। पूरे देश में गिरफ्तारी, लाठीचार्ज और गोलियों का दौर शुरू हुआ। लेकिन बलिया की धरती ने कुछ अलग किया। यहाँ के युवाओं और किसानों ने न केवल विरोध किया बल्कि अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंका। कलेक्टरेट भवन पर कब्जा कर लिया गया और राष्ट्रीय सरकार का गठन किया गया। इस सरकार की बागडोर चुन्नी लाल मिश्र ने संभाली। उनके साथ चित्तरंजन तिवारी, मथुरा प्रसाद मिश्र, जगदीश पांडे और शहीद विजय सिंह जैसे रणबांकुरे खड़े थे। बलिया की इस क्रांति ने पूरे भारत को यह संदेश दिया कि स्वतंत्रता अब दूर नहीं है।
1857 से 1942 तक : मंगल पांडे से बलिया के रणबांकुरों तक
1857 का विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम शंखनाद था। बलिया के नगवा गाँव के मंगल पांडे इस क्रांति के प्रथम शहीद के रूप में आज भी अमर हैं। उन्होंने बैरकपुर छावनी में विद्रोह का बिगुल बजाया और अंग्रेजी शासन को खुली चुनौती दी। भले ही 1857 की क्रांति असफल रही, लेकिन इसने पूरे देश में स्वतंत्रता की चेतना भर दी। बलिया की धरती ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। यहाँ स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वालों की लंबी श्रृंखला रही—गाँव-गाँव से लोग जेल गए, संपत्तियाँ जब्त हुईं, गोलियों का सामना किया गया। यही परंपरा 1942 में चरम पर पहुँची, जब बलिया ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया।
भारत छोड़ो आंदोलन और बलिया की पृष्ठभूमि
1942 में जब गांधी जी ने “करो या मरो” का नारा दिया, तो पूरा देश आंदोलित हो उठा। अंग्रेजों ने कांग्रेस के बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। लेकिन यह दमन आंदोलन को रोक नहीं सका। गाँव-गाँव में लोग सड़कों पर उतर आए।बलिया भी इस आंदोलन का केंद्र बन गया। यहाँ के लोग अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ वर्षों से तैयार थे। आंदोलन की लहर जब बलिया पहुँची, तो हजारों लोग कलेक्टरेट की ओर कूच कर गए।
19 अगस्त 1942 का दिन
बलिया में हज़ारों स्वतंत्रता सेनानी इकट्ठा हुए। क्रांतिकारियों ने कलेक्टरेट पर कब्ज़ा किया। अंग्रेज अफसर भाग खड़े हुए। बलिया को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया गया। चुन्नी लाल मिश्र की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सरकार बनी।
अंग्रेजों की बर्बरता
कुछ ही दिनों में अंग्रेजी सेना ने बलिया पर फिर से कब्ज़ा कर लिया।आंदोलनकारियों पर गोलियाँ चलाई गईं। दर्जनों वीर शहीद हुए और सैकड़ों को जेल में डाल दिया गया।
19 अगस्त 1942 : बलिया का स्वतंत्र गणराज्य
19 अगस्त को बलिया में अंग्रेजी हुकूमत धराशायी हो गई। हजारों क्रांतिकारियों ने कलेक्टरेट भवन पर कब्जा कर लिया। सरकारी दफ्तरों में ताले लगा दिए गए। अंग्रेज अधिकारी भाग खड़े हुए। बलिया ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया। इस दौरान एक “राष्ट्रीय सरकार” का गठन हुआ, जिसकी अध्यक्षता चुन्नी लाल मिश्र ने की। यह सरकार जनता के समर्थन से बनी और पूरे जिले में प्रशासनिक कार्यभार संभाला।
वीर नायक : बलिया के रणबांकुरे
चुन्नी लाल मिश्र
19 अगस्त को बलिया में बनी राष्ट्रीय सरकार का नेतृत्व चुन्नी लाल मिश्र ने किया। यह अपने आप में ऐतिहासिक घटना थी, क्योंकि ब्रिटिश शासन के दौरान किसी जिले ने इस तरह स्वतंत्र सरकार की घोषणा नहीं की थी। मिश्र जी का नेतृत्व बलिया की धरती के लिए गौरवपूर्ण क्षण था।
चित्तरंजन तिवारी
चित्तरंजन तिवारी बलिया के उन युवाओं में से थे जिन्होंने आंदोलन की अगुवाई की। वे भी राष्ट्रीय सरकार के महत्वपूर्ण स्तंभ थे। अंग्रेजों ने इन्हें कठोर यातनाएँ दीं, लेकिन उनकी जिजीविषा डिगी नहीं।
मथुरा प्रसाद मिश्र
मथुरा प्रसाद मिश्र स्वतंत्रता आंदोलन के सक्रिय सेनानी थे। वे बलिया की क्रांति में अग्रिम पंक्ति में रहे। उनकी भूमिका संगठनात्मक थी, उन्होंने ग्रामीण जनता को संगठित किया और आंदोलन में जोड़ दिया।
जगदीश पांडे
जगदीश पांडे भी बलिया की इस ऐतिहासिक क्रांति के अग्रणी सेनानियों में से एक थे। उन्होंने जनता को सड़कों पर लाने और अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने में अहम योगदान दिया।
शहीद विजय सिंह
विजय सिंह ने बलिया की धरती पर शहादत दी। वे आंदोलन के दौरान अंग्रेजों की गोली का शिकार बने और बलिया की पहचान को “बलिदान की धरती” बना दिया।
अंग्रेजों की बर्बरता और बलिया पर दमन
बलिया की स्वतंत्र सरकार अधिक दिनों तक टिक नहीं पाई। कुछ ही दिनों बाद अंग्रेजों ने सेना और पुलिस के साथ हमला बोला। गाँव-गाँव में छापे मारे गए, गोलियाँ चलाई गईं। कई लोग शहीद हुए, सैकड़ों को जेल में डाल दिया गया। लेकिन बलिया का यह विद्रोह इतिहास में अमर हो गया।
बलिया : क्यों कहलाया ‘बागी बलिया’
बलिया की पहचान “बागी” इसलिए बनी क्योंकि यहाँ के लोगों ने बार-बार अंग्रेजों को चुनौती दी। 1857 में मंगल पांडे की चिंगारी और 1942 का विद्रोह इस जिले को अद्वितीय बना देता है। आज भी बलिया को “बागी बलिया” कहा जाता है।
आज की पीढ़ी के लिए संदेश
बलिया की यह कहानी आने वाली पीढ़ियों को यह सिखाती है कि स्वतंत्रता बलिदानों से मिली है। चुन्नी लाल मिश्र, चित्तरंजन तिवारी, मथुरा प्रसाद मिश्र, जगदीश पांडे और शहीद विजय सिंह जैसे वीरों की गाथाएँ हमें हमेशा प्रेरित करती रहेंगी।
बलिया की 19 अगस्त 1942 की क्रांति भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अनूठा अध्याय है। इसने पूरे देश को यह विश्वास दिलाया कि आज़ादी अब दूर नहीं। इस धरती के सपूतों ने जो बलिदान दिए, वह आज भी हर भारतीय के दिल में गर्व भर देते हैं।
“बलिया की धरती बागी है, यही उसकी पहचान है।”
डिस्क्लेमर : यह रिपोर्ट ऐतिहासिक घटनाओं और उपलब्ध संदर्भों पर आधारित है। कुछ स्वतंत्रता सेनानियों के व्यक्तिगत जीवन से जुड़ी जानकारी (जन्मस्थान, माता-पिता का नाम, निधन आदि) सार्वजनिक अभिलेखों में स्पष्ट रूप से उपलब्ध नहीं है। इसलिए इस आलेख में उनका विवरण सामान्य ऐतिहासिक उल्लेखों के आधार पर दिया गया है। यदि पाठकों के पास प्रमाणिक विवरण हों तो उन्हें शामिल करना इस गाथा को और अधिक संपूर्ण बना देगा।
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