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पितृपक्ष 2025: श्राद्ध और तर्पण की परंपरा, शास्त्रीय नियम, तीर्थ और वैज्ञानिक दृष्टि

पूर्वजों को कहाँ और कैसे बैठाया जाता है : धार्मिक और पौराणिक महत्व

  • पितरों को कहाँ और कैसे बैठाया जाता है, क्या है धार्मिक महत्व
  • श्राद्ध व तर्पण की विधि, सामग्री और शास्त्रीय नियम
  • बिना ब्राह्मण और धनाभाव में श्राद्ध के उपाय
  • वाराणसी का पिशाच मोचन और गया जी का विशेष महत्व

हिन्दू धर्म में प्रत्येक पर्व और उपवास का अपना महत्व है, लेकिन भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर आश्विन अमावस्या तक चलने वाले *पितृपक्ष* का स्थान सबसे अलग और विशिष्ट है। यह वह समय है, जब जीवित लोग अपने दिवंगत पूर्वजों का स्मरण करते हैं, उन्हें श्रद्धा अर्पित करते हैं और उनके आशीर्वाद की कामना करते हैं। शास्त्रों के अनुसार, हर मनुष्य तीन ऋणों के साथ जन्म लेता है—*देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण*। इनमें पितृ ऋण सबसे महत्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि पूर्वजों के बिना किसी का अस्तित्व ही संभव नहीं। पितरों का स्मरण और तर्पण करके वंशज न केवल कृतज्ञता प्रकट करते हैं बल्कि इस जीवन और अगले जीवन के लिए आशीर्वाद भी प्राप्त करते हैं।

पौराणिक मान्यता है कि पितृपक्ष के दौरान पितृलोक के द्वार खुल जाते हैं और पितर पृथ्वी पर अपने-अपने वंशजों से मिलने आते हैं। वे यह प्रतीक्षा करते हैं कि उनके उत्तराधिकारी उन्हें याद करें, उनका श्राद्ध करें, तर्पण और पिंडदान द्वारा उन्हें तृप्त करें। यदि यह अनुष्ठान श्रद्धापूर्वक किया जाता है, तो पितर आशीर्वाद देकर वंशजों को संतान, सुख-समृद्धि और दीर्घायु प्रदान करते हैं। लेकिन यदि उपेक्षा की जाती है तो पितरों की नाराज़गी भी झेलनी पड़ सकती है। यही कारण है कि पितृपक्ष केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं बल्कि आस्था, परंपरा, सामाजिक एकजुटता और पर्यावरणीय संतुलन का प्रतीक माना जाता है।

पितृपक्ष 2025 की तिथियाँ और विशेषताएँ

  • पितृपक्ष आरंभ : 7 सितम्बर 2025
  • सर्वपितृ अमावस्या (समापन) : 21 सितम्बर 2025

पंडितों के अनुसार इस बार पितृपक्ष की शुरुआत भाद्रपद पूर्णिमा से हो रही है और समाप्ति आश्विन अमावस्या को होगी। अमावस्या को सर्वपितृ अमावस्या कहा जाता है, जिस दिन जिनके पितरों की तिथि ज्ञात नहीं होती, वे भी श्राद्ध कर सकते हैं।

पूर्वजों को कहाँ और कैसे बैठाया जाता है

धार्मिक स्वरूप

  • दक्षिण दिशा का महत्व: शास्त्रों के अनुसार, दक्षिण दिशा यम की दिशा है और इसी ओर पितरों का वास माना गया है। इसलिए श्राद्ध के समय पितरों को दक्षिण की ओर आसन देकर बैठाया जाता है।
  • कुशा आसन: पितरों को बैठाने के लिए कुशा (दरभा घास) का आसन सबसे पवित्र माना जाता है।
  • आंगन और द्वार: घर के आंगन या मुख्य द्वार पर पवित्र स्थान बनाकर पितरों का आह्वान किया जाता है।

पौराणिक मान्यता

कौवे, गाय, कुत्ते और चींटी को भोजन कराना इसलिए आवश्यक है क्योंकि पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि पितर इन रूपों में आकर अन्न ग्रहण करते हैं। ब्राह्मण को भोजन कराने की परंपरा इसलिए है क्योंकि श्राद्ध के समय ब्राह्मणों में पितरों का वास होता है।

श्राद्ध और तर्पण की विधि व सामग्री

मुख्य सामग्री

कुशा
तिल (काले तिल)
जल
चावल, जौ
पुष्प
पका हुआ अन्न (खीर, पूरी, कचौड़ी, दाल)
वस्त्र और दक्षिणा

विधि

1. प्रातः स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण करें।
2. दक्षिण दिशा की ओर मुख करके आसन पर बैठें।
3. संकल्प लें और पितरों का ध्यान करें।
4. जल, तिल और कुशा से “ॐ पितृभ्यः स्वधा” मंत्र के साथ तर्पण करें।
5. पिंडदान करें और ब्राह्मण को भोजन कराएँ।
6. अंत में कौवे, गाय, कुत्ते और चींटी को अन्न दें।

पौराणिक कथाएँ और शास्त्रों में श्राद्ध का महात्म्य

1. कर्ण की कथा: कर्ण ने जीवन भर दान किया, लेकिन श्राद्ध नहीं किया। मृत्यु के बाद पितृलोक में उसे भोजन के स्थान पर केवल रत्न मिले। तब भगवान ने उसे 15 दिन के लिए पृथ्वी पर भेजा ताकि वह श्राद्ध कर सके।
2. भीष्म की शिक्षा: महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठिर को श्राद्ध का महत्व बताते हुए कहा कि पितरों की तृप्ति से वंश की समृद्धि होती है।
3. गरुड़ पुराण: इसमें कहा गया है कि श्राद्ध करने से पितर प्रसन्न होकर वंशजों की रक्षा करते हैं।
4. गंगा अवतरण कथा: माना जाता है कि गंगा अवतरण भी पितरों की मुक्ति के लिए हुआ।
5. बलि और वामन: पितृपक्ष की परंपरा असुरराज बलि और वामन अवतार से भी जुड़ी मानी जाती है।

बिना ब्राह्मण और धनाभाव में श्राद्ध

कई लोग गरीबी या असमर्थता के कारण ब्राह्मण नहीं बुला पाते। शास्त्रों ने उनके लिए भी सरल उपाय बताए हैं।

केवल जल और तिल से तर्पण करना भी श्राद्ध है।
‘ॐ पितृभ्यः स्वधा’ मंत्र उच्चारण कर जल अर्पित करना पर्याप्त है।
ज्येष्ठ सदस्य संकल्प लेकर यह अनुष्ठान कर सकता है।
खीर, तिल-गुड़ बनाकर गाय या कौवे को अर्पित करें।

श्राद्ध का वैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय पहलू

मनोविज्ञान

पूर्वजों को याद करना कृतज्ञता की भावना को मजबूत करता है। इससे मानसिक शांति मिलती है और जीवन में संतुलन आता है।

पर्यावरण

कौवे, गाय और चींटी को अन्न देना पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में सहायक है।

स्वास्थ्य

तिल, गुड़ और दूध रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं।
ऋतु परिवर्तन के समय सात्विक भोजन शरीर को स्वस्थ रखता है।

समाजशास्त्र

सामूहिक श्राद्ध और दान की परंपरा समाज में सहयोग और समानता की भावना को मजबूत करती है।

वाराणसी का पिशाच मोचन

काशी के पिशाच मोचन कुंड पर श्राद्ध करने का महत्व सर्वोपरि है। मान्यता है कि यहाँ श्राद्ध कराने से पितर पिशाच योनि से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। पुरोहितों के अनुसार, पिशाच मोचन पर एक बार श्राद्ध कराने से जीवन भर के श्राद्ध का फल मिलता है। पितृपक्ष में यहाँ बड़ी संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं।

गया जी का पिंडदान

गया (बिहार) पितृपक्ष में पिंडदान का सबसे प्रसिद्ध तीर्थ है। फल्गु नदी और विष्णुपद मंदिर यहाँ मुख्य केंद्र हैं। कथा है कि स्वयं भगवान विष्णु ने यहाँ पितरों को मोक्ष का आशीर्वाद दिया। गया में पिंडदान कराने से सात पीढ़ियों तक के पितर तृप्त माने जाते हैं। पितृपक्ष के दौरान गया में लाखों श्रद्धालु पहुँचते हैं।

खानपान और सावधानियाँ

खानपान

खाएँ: सात्विक भोजन (दाल, चावल, खिचड़ी, दूध, खीर, फल)।
न खाएँ: प्याज, लहसुन, बैंगन, मांसाहार, शराब, मसूर, चना, कटहल।

सावधानियाँ

  • मांगलिक कार्य न करें।
  • झगड़ा और क्रोध से बचें।
  • श्रद्धा पर ध्यान दें, दिखावे पर नहीं।

पितृपक्ष भारतीय संस्कृति का अद्वितीय पर्व है। यह केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं बल्कि पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता, सामाजिक उत्तरदायित्व और पर्यावरणीय संतुलन का प्रतीक है। यह पर्व हमें अपनी जड़ों से जोड़ता है और बताता है कि जीवन की पूर्णता बिना पूर्वजों की स्मृति और आशीर्वाद के संभव नहीं।

डिस्क्लेमर :यह लेख धार्मिक मान्यताओं, पौराणिक ग्रंथों और सामाजिक परंपराओं पर आधारित है। पाठकों से अनुरोध है कि किसी भी धार्मिक अनुष्ठान को करने से पहले अपने पारिवारिक पुरोहित, स्थानीय पंचांग या विद्वान आचार्य से परामर्श अवश्य लें। वैज्ञानिक पहलुओं का उल्लेख शोध और सामाजिक दृष्टि पर आधारित है।

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