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भोजपुरी फिल्मों की कहानी और संवाद में गिरावट: संस्कृति की आत्मा को चोट

  • पटकथा से गायब हो गया गाँव, खेत-खलिहान और लोकसंस्कृति
  • दोअर्थी संवादों से परिवार के साथ फिल्म देखना हुआ मुश्किल
  • कहानी की जगह फूहड़ हास्य और हिंसा परोसने का चलन

भोजपुरी फिल्मों की पहचान कभी गाँव-देहात की सादगी, पारिवारिक रिश्तों की गहराई और लोकजीवन की मिठास से होती थी। खेत-खलिहान, कुएँ का पानी, दाल-भात की खुशबू और भोजपुरी बोली की सहजता – यही सब मिलकर दर्शकों को खींच लाती थी। लेकिन आज की हकीकत कड़वी है। कहानी और संवाद इतने खोखले हो गए हैं कि दर्शक सिर पकड़कर हॉल से बाहर निकलने को मजबूर हो जाता है।

एक समय था जब भोजपुरी फिल्मों की पटकथा में माँ-बेटे के रिश्ते, भाईचारे की मजबूती और सामाजिक मुद्दों को उठाया जाता था। 1963 में आई “गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ाइबो” से लेकर 80 और 90 के दशक तक फिल्मों में कहीं न कहीं समाज की झलक मिलती थी। लेकिन 2004 के बाद फिल्मों की बाढ़ में कहानी पीछे छूट गई और सिर्फ मसाला हावी हो गया।

आज स्थिति यह है कि पूरी फिल्म किसी एक गाने या दो-चार भड़काऊ संवादों के इर्द-गिर्द बुनी जाती है। न कथानक में दम होता है, न संवाद में गंभीरता। हाल यह है कि परिवार के साथ बैठकर भोजपुरी फिल्म देखना मुश्किल हो गया है।

कहानी का सुनहरा अतीत

  • शुरुआती दौर की फिल्मों में गरीबी, भक्ति और सामाजिक संघर्ष की झलक मिलती थी।
  • गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ाइबो और नदिया के पार जैसी फिल्मों में गाँव और परंपरा की आत्मा थी।
  • दर्शकों को लगता था कि यह फिल्म उनके ही जीवन की कहानी कह रही है।

गिरावट की शुरुआत

  • 2004 के बाद व्यावसायिकता हावी हुई।
  • फिल्मों में तुकबंदी वाली कहानियाँ लिखी जाने लगीं।
  • निर्देशक मानने लगे कि “दर्शक को कहानी नहीं, सिर्फ मसाला चाहिए।”
  • नतीजा: कहानी गायब, बस गाने और एक्शन का तड़का।

संवादों की हालत

  • पुराने संवाद: परिवारिक, भावनात्मक और संस्कारों से जुड़े।
  • आज के संवाद: दोअर्थी, भद्दे और फूहड़।
  • हॉल में बैठे लोग हँसते कम, झेंपते ज़्यादा हैं।

उदाहरण:

  • जहाँ पहले संवाद होता था – “माई, तोहर लाल तोहरा खातिर जान दे देगा।”
  • आज सुनाई देता है – “तोहर जवानी आग लगावत बा।”

दर्शकों की परेशानी

  • पारिवारिक दर्शक थिएटर से दूर हो गए।
  • गाँव की महिलाएँ और बुजुर्ग अब भोजपुरी फिल्म देखने से कतराते हैं।
  • बच्चे संवाद सुनकर गलत बातें सीख रहे हैं।

वाराणसी के अनिल कुमार का कहना है— “भोजपुरी फिल्मों ने संवादों को हथियार की तरह इस्तेमाल करना बंद कर दिया है। अब ये सिर्फ हँसी उड़ाने का जरिया बन गए हैं।”

पटकथा लेखन की कमजोरी

  • लेखक और निर्देशक रिसर्च नहीं करते।
  • गाँव-समाज की असली कहानियाँ पर्दे पर नहीं आतीं।
  • हर फिल्म की कहानी लगभग एक जैसी – *नायक, खलनायक, हीरोइन और बदला।*

असर – समाज और इंडस्ट्री दोनों पर

  • भोजपुरी सिनेमा को “फूहड़” का टैग मिल गया।
  • अच्छी पटकथा वाले लेखक किनारे कर दिए गए।
  • निवेशक मानने लगे कि अच्छी कहानी में पैसा नहीं है।
  • कलाकार भी गहराई से काम करने से बचने लगे।

बॉक्स आइटम – सेंसर बोर्ड की चुप्पी

  • संवादों पर कोई सख्त नियंत्रण नहीं।
  • डबल मीनिंग डायलॉग आसानी से पास हो जाते हैं।
  • सेंसर बोर्ड की लचर निगरानी ने समस्या बढ़ाई।

समाधान क्या है?

  • नए लेखकों को मौका देना होगा।
  • लोककथाओं, लोकगीतों और समाज की असली कहानियाँ पर्दे पर लानी होंगी।
  • संवादों को साफ-सुथरा और भावनात्मक बनाना होगा।
  • निर्देशक और निर्माता को यह समझना होगा कि *फूहड़ता से कमाई भले हो जाए, लेकिन पहचान नहीं बच सकती।*

भोजपुरी फिल्मों की कहानी और संवाद आज सबसे कमजोर कड़ी बन चुके हैं। दर्शक सिर्फ गाने और मसाले के लिए फिल्म देखने नहीं आता, उसे अपनी ज़िंदगी की झलक भी चाहिए। यदि कहानी और संवाद की यह हालत रही, तो आने वाले समय में भोजपुरी फिल्में पूरी तरह मज़ाक बनकर रह जाएँगी।

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