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क्रांतिकारी कुंवर प्रताप सिंह बारहठ, जिन्हें अंग्रेज अंत तक न झुका सके

देश की आजादी में अनेक क्रांतिकारियों की भूमिका रही है। कुछ को हम जानते हैं और कुछ को नहीं। क्रांतिकारी कुंवर प्रताप सिंह बारहठ ऐसे ही देशभक्त थे। 24 मई 1893 को उदयपुर में जन्मे कुंवर प्रताप सिंह को देशभक्ति विरासत में मिली थी। इनके पिता केसरी सिंह एवं चाचा जोरावर सिंह प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे।

कुंवर प्रताप की पुश्तैनी जागीर का गांव शाहपुरा(भीलवाड़ा) के समीप देवी-खेड़ा है, लेकिन इनके दादा, मेवाड़ महाराणा के आग्रह के कारण उदयपुर में रहने लगे। कालांतर में इनके पिता महाराणा के परामर्शदाता बने और यहीं कुंवर प्रताप का जन्म हुआ। मेवाड़ महाराणा के जामाता, कोटा के महारावल साहब ने ठाकुर साहब की विद्वता, विलक्षण बुद्धि एवं प्रतिभा से प्रभावित होकर महाराणा मेवाड़ से इन्हें मांग लिया, जिसे न चाहते हुए भी महाराणा को स्वीकार करना पड़ा और परिवार कोटा आ गया।

विरासत में मिली देशभक्ति

राजस्थान का शहर शाहपुरा आज का भीलवाड़ा, उन महान वीरों की भूमि रहा है, जिन्हें दुनिया आज भारत के महान वीरों के नाम से जानती है। बारहठ परिवार ऐसा ही एक वीर परिवार घराना है, जिसने अपना पूरा परिवार अपने देश के लिए बलिदान कर दिया। प्रताप सिंह बारहठ, केसरी सिंह बारहठ और जोरावर सिंह बारहठ इसी परिवार की देन हैं।

प्रताप की शिक्षा और शुरुआती जीवन

प्रताप सिंह बारहठ की शिक्षा दयानंद स्कूल जैन बोर्डिंग में हुई थी। अल्पायु में पिताश्री ने बालक प्रताप को अर्जुनलाल सेठी की गोद में सौंप दिया, जिन्होंने उनको मास्टर अमीचंद के पास भेज दिया। अमीचंद ने क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से मिलकर प्रताप और उनके साथियों को रिवोल्यूशनरी पार्टी में भर्ती करवा दिया। बोस के निर्देशन में बालक प्रताप एक युवा क्रांतिकारी में परिवर्तित हो गया। रासबिहारी बोस ने अपने एक पत्र में लिखा है, “प्रताप को देखा था तो मालूम हुआ कि उसकी आँखों से आग निकल रही है। प्रतापसिंह प्रवृत्ति से ही सिंह था।”

1912 में वायसराय लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकते समय जोरावरसिंह के साथ प्रतापसिंह भी थे। वे बंदी बना दिए गये मगर प्रमाण के अभाव में अंग्रेज सरकार को रिहा करना पड़ा।

जेल की यातनाएं

एक साथी के धोखे देने के कारण प्रताप को पुलिस ने बनारस षड्यंत्र केस में गिरफ्तार कर लिया। उन्हें पाँच वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गई और बरेली की सेंट्रल जेल भेज दिया गया। वहां, उन्हें काल कोठरी में रखा गया। यह कोठरी 6’x3’ फुट की थी, इसमें रोशनदान तक नहीं था। काल कोठरी में करवट लेने में भी परेशानी होती थी। सर्वप्रथम अंग्रेज सरकार ने उन्हें प्रलोभन देने का यत्न किया। इनसे कहा गया कि यदि वे सरकार का सहयोग करते हैं तो सरकार उनके परिवार से सभी केस वापस ले लेगी, उनकी जागीर सहित सभी संपत्ति लौटा दी जाएगी और उन्हें तत्काल रिहा कर दिया जायेगा !

भावनात्मक प्रलोभन

शिकार जाल में फंसता है शिकारी नहीं और प्रताप तो खुद अंग्रेजों के शिकारी थे, सो भला कब जाल में फंसने वाले थे। सरकार को जब धन संपत्ति का प्रलोभन देने पर भी सफलता नहीं मिली तो उन्होंने भावनाओं को झकझोरने वाला पासा फेंका। सर चार्ल्स क्लीवलैंड ने प्रताप को उनकी माता के द्वारा सह जा रहे कष्टों के बारे में बताया, उनकी माता की विपत्तियों का सविस्तार वर्णन किया और कहा कि तुम्हारी मां तुम्हारी याद में हर क्षण रोती रहती है। अब तुम्हारा क्या जवाब है ? और प्रताप का वह जवाब तो इतिहास की धरोहर बनकर रह गया, उन्होंने कहा – “मैं अपनी एक माता को हंसाने के लिए तैंतीस कोटि पुत्रों की माताओं को रुलाना नहीं चाहता”। आपको बता दें, उस समय भारत की कुल जनसंख्या 33 करोड़ के आसपास ही थी।

पिता से सामना

पुलिस प्रशासन बौखलाया जरूर पर सोचा शायद पिता की दशा इनके दिमाग की दिशा बदल दे, यह सोच, उन्हें हजारी बाग जेल ले जाया गया, जहां उनके पिता श्री केसरी सिंह बारहठ सजा काट रहे थे। पुत्र को वहां देखते ही उनके माथे की त्यौरियां चढ़ गईं। उन्होंने प्रताप से कहा अगर तुम अपने पथ से भ्रष्ट हुए तो सरकार शायद तुम्हें माफ कर दे, पर मैं तुम्हारा प्राण-हन्ता बन जाऊंगा। प्रताप का प्रत्युत्तर भी निरुत्तर करने वाला था, कहा -क्या आपको अपने खून पर भरोसा नहीं रहा ?

शारीरिक यातनाएं

अंग्रेज सरकार की सहन-शक्ति जवाब दे चुकी थी और प्रताप की सहनशक्ति की परीक्षा बाकी थी। पुलिस ने मानसिक रूप से सबल प्रताप को, यह सोचकर की शायद शारीरिक यातना काम कर जाए, घोर अमानुषिक शारीरिक यातनाएं देना प्रारम्भ कर दिया। जैसे-जैसे यातनाएं बेअसर होती गईं, वैसे-वैसे जुल्मों की हदें बढ़ती गईं। शरीर की एक हद होती है। अमानुषिक यातनाओं के कारण 27 मई 1918 को प्रताप की मृत्यु हो गई।

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