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धनतेरस, हनुमान पूजा, नरक चतुर्दशी, दीपावली, कथा, पूजा विधि, सामग्री और शुभ मुहूर्त

दीपावली 2025 का पांच दिवसीय महापर्व 18 से 22 अक्तूबर तक उल्लास और श्रद्धा के साथ मनाया जाएगा। धनतेरस से शुरू होकर नरक चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा और भैया दूज तक यह पर्व भारतीय संस्कृति, परंपरा और अध्यात्म का उजियारा फैलाता है। दीपों की जगमगाहट, लक्ष्मी-गणेश की आराधना, अन्नकूट के भोग और भाई-बहन के स्नेह का यह उत्सव हर दिल में आशा, आस्था और आनंद का प्रकाश जगाता है।

  • “धन, आरोग्य और आलोक का उत्सव – जब हर दीप में जगमगाता है विश्वास”
  • गोवर्धन पूजा से अन्नकूट तक – प्रकृति, परोपकार और आभार का पर्व
  • “जब अन्नकूट के भोग से गूंजती है भक्ति और कृतज्ञता की भावना”

-आशुतोष गुप्ता

वाराणसी । कार्तिक अमावस्या की अंधेरी रात में जब दीपों की श्रृंखलाएँ जगमगाने लगती हैं, तो लगता है जैसे पूरा भारत एक साथ श्रद्धा, उल्लास और उम्मीद की रोशनी से नहा उठा हो। दीपावली, जिसे दीपोत्सव कहा जाता है, न केवल हिंदू पंचांग का सबसे बड़ा पर्व है, बल्कि यह संस्कृति, अर्थव्यवस्था, परिवार और अध्यात्म – सभी को एक सूत्र में बाँधने वाला उत्सव है। इस वर्ष दीपावली का मुख्य पर्व 20 अक्तूबर 2025 (सोमवार)*को मनाया जाएगा, जबकि इसकी शुरुआत 18 अक्तूबर से धनतेरस के साथ होगी। पांच दिनों तक चलने वाला यह उत्सव धनतेरस, हनुमान पूजा , नरक चतुर्दशी (छोटी दीपावली), मुख्य दीपावली (लक्ष्मी-पूजन), गोवर्धन पूजा और अन्नकूट के रूप में मनाया जाता है। हर दिन की अपनी कथा, परंपरा और पौराणिक महत्ता है।

धनतेरस : आरोग्य और समृद्धि का प्रथम दीप

दीपावली पर्व की शुरुआत धनतेरस से होती है। यह दिन आरोग्य, धन और समृद्धि की देवी लक्ष्मी तथा आयुर्वेद के देवता भगवान धनवंतरी को समर्पित है। पौराणिक कथा के अनुसार, समुद्र मंथन के समय जब देवताओं और असुरों ने मिलकर अमृत प्राप्त किया, तब भगवान धनवंतरी अपने हाथों में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए। यही दिन धनत्रयोदशी के रूप में जाना गया और तब से यह आरोग्य एवं दीर्घायु की आराधना का पर्व बन गया। एक अन्य कथा के अनुसार, इसी दिन देवी लक्ष्मी भी क्षीरसागर से प्रकट हुईं। इसीलिए व्यापारी वर्ग और गृहस्थजन इस दिन सोना-चाँदी, नए बर्तन या कोई मूल्यवान वस्तु खरीदते हैं, ताकि वर्षभर समृद्धि का संचार बना रहे।

लोक परंपरा और पूजा विधि:

धनतेरस के दिन घरों की साफ-सफाई और सजावट का विशेष महत्त्व है। प्रातः स्नान के बाद लक्ष्मी, गणेश और कुबेर की मूर्तियाँ स्थापित की जाती हैं। पूजा के समय पीत वस्त्र धारण करना शुभ माना जाता है। दीप जलाकर देवी लक्ष्मी का आवाहन किया जाता है – “ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्री सिद्ध लक्ष्म्यै नमः।” इसके बाद कुबेर जी की पूजा कर धन के सही प्रयोग और आशीर्वाद की प्रार्थना की जाती है।

शुभ मुहूर्त: धनतेरस पूजा का शुभ समय इस वर्ष 18 अक्तूबर को शाम 7:16 से 8:20 बजे तक रहेगा। इसी अवधि में दीपदान और पूजा करना सर्वश्रेष्ठ फलदायी माना गया है।

विशेष मान्यता – यमदीपदान: धनतेरस की रात्रि यमराज के नाम दीपदान करने की भी परंपरा है। घर के बाहर दक्षिण दिशा में दीप जलाकर यह प्रार्थना की जाती है कि घर में अकाल मृत्यु या अनिष्ट न आए। इसे “यमदीपदान” कहा जाता है।

हनुमान पूजा : शक्ति और सुरक्षा की आराधना

दीपावली से एक दिन पूर्व कई स्थानों पर विशेष रूप से हनुमान जी की पूजा का विधान होता है। मान्यता है कि प्रभु श्रीराम के अयोध्या लौटने से पहले हनुमान जी ने अशुभ शक्तियों का नाश कर मार्ग को सुरक्षित किया था। इसी भाव से नरक चतुर्दशी की संध्या पर “हनुमान पूजा” करने का विधान है। उत्तर भारत के कई क्षेत्रों में इस दिन हनुमान चालीसा, सुंदरकांड पाठ और श्रीराम जय राम जय जय राम* का जप किया जाता है। हनुमान जी को सिंदूर, तेल, लड्डू, गुड़ और तुलसी पत्र अर्पित किए जाते हैं। पूजन के बाद भक्तों द्वारा “भूत पिशाच निकट नहिं आवै, महाबीर जब नाम सुनावै” का जप कर घर के चारों ओर दीप जलाए जाते हैं ताकि घर का वातावरण पवित्र बना रहे।

शुभ मुहूर्त: इस वर्ष हनुमान पूजा का श्रेष्ठ समय 19 अक्तूबर की रात 11:41 से 20 अक्तूबर की 12:31 बजे तक*रहेगा।

नरक चतुर्दशी : बुराई पर अच्छाई की विजय

दीपावली के ठीक एक दिन पूर्व नरक चतुर्दशी, जिसे छोटी दीपावली भी कहा जाता है, मनाई जाती है। पौराणिक कथा के अनुसार, इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने राक्षस नरकासुर का वध किया था, जिसने देवताओं और ऋषियों को भयभीत कर रखा था। नरकासुर का वध “अंधकार पर प्रकाश, अधर्म पर धर्म” की विजय का प्रतीक बन गया।

अभ्यंग स्नान की परंपरा: नरक चतुर्दशी की सुबह सूर्योदय से पहले तेल स्नान करने की परंपरा है, जिसे *अभ्यंग स्नान* कहा जाता है।
ऐसा माना जाता है कि इस स्नान से शरीर के साथ मन भी शुद्ध होता है और सभी पापों का नाश होता है। नारियल या तिल के तेल से शरीर का अभ्यंग कर स्नान करने के बाद दीप जलाकर श्रीकृष्ण और यमराज की पूजा की जाती है।

शुभ मुहूर्त: अभ्यंग स्नान का श्रेष्ठ समय इस वर्ष 20 अक्तूबर की सुबह 5:13 से 6:25 बजे तक रहेगा।

दीपावली : लक्ष्मी का आगमन और श्रीराम की स्मृति

दीपावली का मुख्य दिन, जिसे अमावस्या की रात कहा गया है, 20 अक्तूबर को मनाया जाएगा।पौराणिक मान्यता है कि इस दिन भगवान श्रीराम चौदह वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे। अयोध्यावासियों ने उनके स्वागत में अपने घरों और गलियों में दीप जलाए थे – तभी से यह पर्व *दीपोत्सव* के रूप में मनाया जाने लगा।

इसी रात देवी लक्ष्मी और भगवान गणेश की पूजा का विधान है। अमावस्या के अंधकार में जब दीपक जलते हैं, तो माना जाता है कि लक्ष्मी स्वयं घर-घर विचरण करती हैं और जिन घरों में स्वच्छता, श्रद्धा और प्रकाश होता है, वहाँ स्थायी निवास करती हैं।

पूजा विधि:

शाम को प्रदोषकाल में स्नान कर शुद्ध वस्त्र पहनें।घर के उत्तर-पूर्व कोने में लकड़ी की चौकी पर लाल कपड़ा बिछाकर लक्ष्मी और गणेश की मूर्तियाँ स्थापित करें। दीपक, अगरबत्ती, धूप, गुलाल, चावल, फूल, पान-सुपारी, खील-बताशे, मिठाई और सोने-चांदी के सिक्के रखें। पहले गणेश जी का आवाहन करें, फिर लक्ष्मी जी का पूजन करें – “ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्री सिद्ध लक्ष्म्यै नमः।” इसके बाद आरती करें और घर के सभी कोनों में दीप जलाएँ।

शुभ मुहूर्त:

दीपावली की मुख्य लक्ष्मी पूजा*का श्रेष्ठ समय इस वर्ष 20 अक्तूबर की शाम 7:08 से 8:18 बजे तक रहेगा। इस अवधि में की गई पूजा अत्यंत शुभ मानी जाती है।

लोक मान्यता: कहा जाता है कि जिस घर में अमावस्या की रात दीपक बिना बुझाए जलते रहते हैं, वहाँ लक्ष्मी सदा स्थायी रूप से निवास करती हैं। लोग इस रात लक्ष्मी के स्वागत में गीत गाते हैं -“लक्ष्मी जी आयी हैं घर द्वारे, दीप जले हर आँगन प्यारे।”

दीपावली का सांस्कृतिक और सामाजिक पक्ष

दीपावली केवल धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है। यह समय रिश्तों को जोड़ने, पुराने विवादों को भुलाने और जीवन में नई शुरुआत का है। व्यवसायिक जगत के लिए यह नया वित्तीय वर्ष प्रारंभ करने का भी दिन है – गुजरात और महाराष्ट्र में चोपड़ा पूजा इसी अवसर पर की जाती है। उत्तर भारत में इसे राम के आगमन की स्मृति में, तो दक्षिण भारत में नरकासुर वध दिवस के रूप में मनाया जाता है। बंगाल में इस रात काली पूजा होती है, जबकि जैन धर्मावलंबी इस दिन महावीर निर्वाण दिवस मनाते हैं।

दीपावली भारतीय समाज के हर वर्ग को एक सूत्र में बाँधती है – दीपों की रोशनी, मिठाईयों की मिठास और शुभकामनाओं की गर्माहट में पूरा देश एक हो जाता है।

दीपावली 2025 का पंचांग और विशेष मुहूर्त सारांश

पर्व ————| तिथि (2025) | ———प्रमुख मुहूर्त ———-| पूजन विशेषता |

धनतेरस           | 18 अक्तूबर            | शाम 7:16–8:20   | लक्ष्मी-कुबेर पूजन, यमदीपदान |
हनुमान पूजा      | 19 अक्तूबर           | रात 11:41–12:31 | भय-निवारण, शक्ति-प्राप्ति |
नरक चतुर्दशी     | 20 अक्तूबर (सुबह) | 5:13–6:25           | अभ्यंग स्नान, शुभ आरंभ |
दीपावली (मुख्य) | 20 अक्तूबर (शाम) | 7:08–8:18            | लक्ष्मी-गणेश पूजन, दीपदान |

दीपावली केवल उत्सव नहीं, आत्म-जागरण का क्षण है।हर दीप हमें यह संदेश देता है कि अंधकार चाहे कितना भी गहरा क्यों न हो, एक छोटी सी लौ भी प्रकाश फैला सकती है।हर दीपक में ईश्वर की ऊर्जा, हर आरती में श्रद्धा और हर मिठाई में प्रेम का संदेश समाया है।दीपावली का यह पर्व 2025 में भी भारतीयता, सामूहिकता और आध्यात्मिकता का वही उजाला लेकर आए – यही शुभकामना।

जब अन्नकूट के भोग से गूंजती है भक्ति और कृतज्ञता की भावना

दीपावली के पांच दिवसीय महोत्सव का चौथा दिन “गोवर्धन पूजा” और “अन्नकूट” के नाम से जाना जाता है। यह पर्व न केवल धार्मिक दृष्टि से, बल्कि सामाजिक, पर्यावरणीय और सांस्कृतिक रूप से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। जहां दीपावली की रात लक्ष्मी-गणेश की आराधना से घरों में सुख-समृद्धि का आह्वान होता है, वहीं अगले दिन गोवर्धन पूजा में प्रकृति, अन्न और गौ-सेवा के प्रति आभार व्यक्त किया जाता है।

गोवर्धन पूजा : प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का उत्सव

पौराणिक कथाओं के अनुसार, ब्रजवासियों की यह परंपरा तब शुरू हुई जब भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्र देव की पूजा करने से लोगों को रोका और कहा कि “हमारा पालन-पोषण यह गोवर्धन पर्वत करता है – वर्षा, अन्न और वनस्पति इसी के कारण हैं, अतः हमें इसी की पूजा करनी चाहिए।” इंद्र के क्रोधित होने पर भयंकर वर्षा आरंभ हो गई, तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी कनिष्ठिका (छोटी उंगली) पर गोवर्धन पर्वत उठा लिया और पूरे ब्रज को वर्षा से बचा लिया। सात दिन बाद इंद्र ने हार मानकर श्रीकृष्ण की स्तुति की और तब से “गोवर्धन पूजा” का पर्व हर वर्ष अमावस्या के अगले दिन मनाया जाता है।

पूजा का प्रतीकात्मक रूप और परंपरा

गोवर्धन पूजा में पर्वत का प्रतीकात्मक निर्माण किया जाता है। मिट्टी या गोबर से पर्वताकार आकृति बनाकर उसे फूल, पत्तियाँ, धान, गुड़, दूध और अन्न से सजाया जाता है। इसके चारों ओर दीपक रखे जाते हैं और परिवारजन मिलकर उसकी परिक्रमा करते हैं। गायों को सजाकर उनके सींगों पर रंग लगाना, माला पहनाना और उन्हें मीठा गुड़ व चारा खिलाना भी इस दिन की मुख्य परंपरा है। ब्रजभूमि, मथुरा, वृंदावन, बरसाना और गोकुल में इस दिन विशेष उत्सव होता है। श्रीकृष्ण मंदिरों में अन्नकूट महोत्सव आयोजित किया जाता है, जिसमें सैकड़ों प्रकार के पकवान बनाकर ठाकुरजी को भोग लगाया जाता है।

अन्नकूट महोत्सव : अर्पण और आभार का पर्व

अन्नकूट का शाब्दिक अर्थ है – “अन्न का पर्वत”। इस दिन श्रद्धालु घरों में और मंदिरों में विविध प्रकार के व्यंजन बनाते हैं – खीर, पूड़ी, लड्डू, चावल, मिठाइयाँ, दालें, सब्जियाँ, हलवा, पापड़, चटनी, और फल। इन सभी पकवानों को एकत्र कर भगवान श्रीकृष्ण को भोग लगाया जाता है। कथाओं में कहा गया है कि जब श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत की आराधना का संदेश दिया, तो ब्रजवासी अन्नकूट का विशाल भोग लेकर गोवर्धन पर्वत के पास पहुँचे। भगवान स्वयं गोवर्धन के रूप में प्रकट हुए और सारा अन्न स्वीकार किया। अन्नकूट के आयोजन के माध्यम से मनुष्य यह स्वीकार करता है कि पृथ्वी, जल, वायु और पशुधन हमारे जीवन के वास्तविक आधार हैं, और इन सबके प्रति आभार व्यक्त करना हमारा धर्म है।

पूजा विधि और सामग्री

सुबह सूर्योदय से पहले स्नान कर घर की साफ-सफाई की जाती है। गोवर्धन पर्वत का प्रतीक बनाकर उसके चारों ओर दीपक जलाए जाते हैं। फूलों, चावल, गुड़, दूध, दही और जल से अभिषेक कर “गोवर्धन पर्वत महाराज की जय” का उद्घोष किया जाता है।गौ-पूजन के समय गायों को हल्दी-कुंकुम लगाकर तुलसी और गुड़ खिलाया जाता है। पूजा में यह मंत्र बोला जाता है – “गिरिराज गोवर्धन, कृपया करहि, नाथ! हमारे गृह में सदा सुख-संपत्ति बरसाइए।” भोजन में सादगी और पवित्रता रखी जाती है। भोग लगने के बाद प्रसाद स्वरूप सभी भक्त अन्न ग्रहण करते हैं, जिसे अन्नकूट प्रसाद कहा जाता है।

गोवर्धन पूजा का शुभ मुहूर्त

इस वर्ष गोवर्धन पूजा 22 अक्तूबर 2025 (बुधवार) को मनाई जाएगी। पूजन का शुभ समय सुबह 6:15 से 8:42 बजे तक रहेगा। इस समय में पूजा, पर्वत परिक्रमा और अन्नकूट भोग का विधान करना सर्वोत्तम माना गया है।

बाली प्रतिपदा : गोवर्धन पूजा का एक अन्य स्वरूप

भारत के कुछ हिस्सों – विशेषकर महाराष्ट्र और दक्षिण भारत — में इस दिन बाली प्रतिपदा भी मनाई जाती है। कथा के अनुसार, इसी दिन भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण कर राजा बलि को पाताल लोक भेजा था, लेकिन उनके दानशील स्वभाव से प्रसन्न होकर विष्णु ने उन्हें प्रतिवर्ष पृथ्वी पर आने का वरदान दिया। महाराष्ट्र में इसे “दिवाली पदवा” कहा जाता है और इस दिन पति-पत्नी एक-दूसरे के प्रति सम्मान और प्रेम का प्रतीक स्वरूप आरती करते हैं।

दीपावली का समापन : भैया दूज का स्नेह पर्व

दीपावली के पांचवें दिन भैया दूज मनाई जाती है।यह पर्व भाई-बहन के प्रेम और सुरक्षा के भाव को समर्पित है। पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान सूर्य की पुत्री यमुना ने अपने भाई यमराज को अपने घर आमंत्रित किया था और स्नेहपूर्वक भोजन कराया था। उस दिन यमराज ने वचन दिया कि जो बहन अपने भाई के मस्तक पर तिलक लगाएगी, उसके भाई की आयु दीर्घ होगी। तब से यह परंपरा चली आ रही है कि बहनें भाई के मस्तक पर तिलक लगाकर उनकी दीर्घायु की कामना करती हैं। भाई बहन को उपहार देते हैं और बहन उन्हें मिठाई खिलाती है।

दीपोत्सव का सामाजिक और सांस्कृतिक संदेश

दीपावली का यह पाँचवाँ दिन केवल धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि सामाजिक संबंधों को सशक्त करने का माध्यम भी है। जहां गोवर्धन पूजा प्रकृति और पर्यावरण के प्रति सम्मान का प्रतीक है, वहीं भैया दूज पारिवारिक प्रेम का उत्सव है। अन्नकूट में अन्न का आदर सिखाया जाता है और गोवर्धन पूजा में धरती व पशुधन के महत्व को याद किया जाता है। आज जब आधुनिक जीवन में प्रकृति और परंपरा से दूरी बढ़ रही है, दीपावली का यह चरण हमें याद दिलाता है कि सच्चा प्रकाश केवल दीये में नहीं, हमारे कर्म और कृतज्ञता में है।

दीपावली का संदेश : दीपावली के पांचों दिन हमें जीवन के पाँच सूत्र सिखाते हैं –

  • धनतेरस सिखाती है स्वास्थ्य और समृद्धि का संतुलन।
  • छोटी दीपावली बताती है कि हर अंधकार मिटाया जा सकता है।
  • मुख्य दीपावली हमें ईश्वर और आत्मा के उजाले का संदेश देती है।
  • गोवर्धन पूजा प्रकृति के प्रति कृतज्ञता जगाती है।
  • भैया दूज प्रेम, सुरक्षा और संबंधों की मिठास बढ़ाती है।

दीपावली का यह पर्व केवल दीये जलाने का नहीं, बल्कि मन के दीप जलाने का है – जहां श्रद्धा, सद्भाव और सेवा की रोशनी फैलती है।

डिस्क्लेमर: यह लेख हिंदू पंचांग और परंपरागत स्रोतों पर आधारित है। क्षेत्रीय समय और मान्यताएँ भिन्न हो सकती हैं। पाठकों से निवेदन है कि अपने स्थानीय पंचांग या पुजारी से तिथियों और मुहूर्त की पुष्टि अवश्य करें। 

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