नेपाल की राजनीति में युवा क्रांति, पुरानी पार्टियाँ हाशिये पर
Gen-Z आंदोलन से पारंपरिक दलों की साख टूटी, नए चेहरों का उदय
- Gen-Z आंदोलन से पारंपरिक दलों की साख टूटी, नए चेहरों का उदय
- नेपाल में जनरेशन-ज़ी आंदोलन ने पुरानी राजनीति की जड़ें हिला दीं
नेपाल में राजनीतिक भूचाल थमने का नाम नहीं ले रहा। सोशल मीडिया प्रतिबंध और भ्रष्टाचार के आरोपों ने KP शर्मा ओली की सरकार को गिरा दिया। इसके बाद से ही जनरेशन-ज़ी (Gen-Z) की अगुवाई में नया आंदोलन पुरानी राजनीति को चुनौती दे रहा है। नेपाली कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियाँ हाशिये पर जाती दिख रही हैं, जबकि नए चेहरे तेजी से उभर रहे हैं।
कांग्रेस का भविष्य अनिश्चित
नेपाल की सबसे पुरानी पार्टी नेपाली कांग्रेस आज दोराहे पर खड़ी है। शेर बहादुर देउबा के पुराने नेतृत्व पर जनता का भरोसा टूट चुका है। पार्टी के भीतर गगन थापा और विश्वप्रकाश शर्मा जैसे युवा नेताओं की मांग बढ़ी है। अगर इन्हें मौका मिला तो कांग्रेस फिर से उभर सकती है, वरना यह सिर्फ गठबंधन की राजनीति तक सिमट जाएगी।
कम्युनिस्ट पार्टियों की जमीन खिसकी
CPN-UML के नेता KP शर्मा ओली की छवि सोशल मीडिया बैन और भ्रष्टाचार के आरोपों से ध्वस्त हो गई है। वहीं माओवादी केंद्र के प्रमुख प्रचण्ड अब युवाओं में अप्रासंगिक हो चुके हैं। विश्लेषकों का मानना है कि दोनों पार्टियाँ मिलकर भी 2026 चुनाव में मुश्किल से 60–80 सीटें ही ला पाएँगी।
जनता की नई प्राथमिकताएँ
नेपाल के मतदाता अब भ्रष्टाचार-मुक्त, युवा और कामकाजी नेताओं को तरजीह दे रहे हैं। सोशल मीडिया पर सक्रिय, पारदर्शिता और जवाबदेही की बात करने वाले नेता ही लोकप्रिय हो रहे हैं।
नए चेहरे सुर्खियों में
- सुशीला कार्की: नेपाल की पहली महिला सुप्रीम कोर्ट चीफ जस्टिस और वर्तमान अंतरिम प्रधानमंत्री। भ्रष्टाचार विरोधी छवि ने उन्हें जनता का समर्थन दिलाया।
- बालेंद्र शाह (Balen Shah): काठमांडू के स्वतंत्र मेयर। शहरी सुधार और पारदर्शिता के कारण युवाओं के बीच बेहद लोकप्रिय।
- कुलमान घिसिंग: ऊर्जा मंत्री और NEA के पूर्व प्रमुख। देश से लोडशेडिंग खत्म करने वाले अधिकारी के तौर पर सम्मानित।
Gen-Z एक्टिविस्ट समूह: Hami Nepal जैसे संगठन। सोशल मीडिया पर सक्रिय और आंदोलन की रीढ़ माने जाते हैं।
नेपाल: जनाक्रोश से सत्ता से बाहर हुए नेता कहाँ हैं और 2026 चुनाव में उनकी स्थिति
नेपाल में 2025 का जनाक्रोश देश की राजनीति को हिला गया। सोशल मीडिया बैन, भ्रष्टाचार और सत्ता-लोलुपता के आरोपों ने जनता को सड़कों पर ला दिया। नतीजा यह हुआ कि पूर्व प्रधानमंत्री समेत कई बड़े नेताओं को सत्ता छोड़नी पड़ी और अब सवाल यह है कि वे कहाँ हैं, 2026 के चुनाव में उनकी क्या भूमिका होगी और जनता उन्हें कितना स्वीकार करेगी।
सत्ता से बाहर हुए नेता: अब कहाँ हैं?
- केपी शर्मा ओली (UML): सोशल मीडिया बैन और भ्रष्टाचार के खिलाफ गुस्से का सबसे बड़ा निशाना। इस्तीफे के बाद वे सुरक्षा घेरे में हैं और नेपाल में ही मौजूद हैं।
- प्रचण्ड / पुष्प कमल दाहाल (माओवादी केंद्र): उनके आवास और पार्टी दफ्तर पर हमले हुए। वे नेपाल में सक्रिय तो हैं लेकिन सार्वजनिक उपस्थिति सीमित है।
- शेर बहादुर देउबा (नेपाली कांग्रेस): घर पर हमले के दौरान घायल हुए। वे भी देश में ही हैं और पार्टी के भीतर सक्रिय बने हुए हैं।
अन्य वरिष्ठ नेता: कई नेताओं के घरों और कार्यालयों पर हमले हुए, जिसके बाद वे कड़ी सुरक्षा में रखे गए।
2026 चुनाव पर प्रभाव
- लोकप्रियता में गिरावट: ओली, प्रचण्ड और देउबा जैसे नेताओं की छवि बुरी तरह प्रभावित हुई है।
- पार्टी संगठन का सहारा: इन नेताओं की पार्टियों का जमीनी नेटवर्क अब भी मजबूत है। सीटों की संख्या घट सकती है, लेकिन वे पूरी तरह राजनीतिक नक्शे से गायब नहीं होंगे।
- गठबंधन की राजनीति: किसी भी पार्टी को बहुमत की संभावना नहीं है। ऐसे में ये पुराने नेता गठबंधन में “किंगमेकर” की भूमिका निभा सकते हैं।
जनता का मूड: क्या स्वीकार करेगी?
शहरी और युवा मतदाता: पुराने नेताओं से नाराज़ और बदलाव की तलाश में। Gen-Z आंदोलन के कारण इनकी स्वीकृति बहुत कम दिखती है।
ग्रामीण और परंपरागत मतदाता: स्थानीय नेटवर्क और जातीय-सामाजिक समीकरणों के चलते अब भी आंशिक समर्थन दे सकते हैं।
निष्कर्ष: जनता का भरोसा टूट चुका है, पर पूरी तरह अस्वीकार अभी नहीं हुआ है।
विपक्ष और पूर्व प्रधानमंत्रियों की समीक्षा
केपी शर्मा ओली
- सत्ता से बाहर होने के बाद राजनीतिक करियर पर गहरा असर। UML संगठनात्मक रूप से अब भी मजबूत, लेकिन ओली की व्यक्तिगत लोकप्रियता घट चुकी।
पुष्प कमल दाहाल (प्रचण्ड)
माओवादी आंदोलन की ऐतिहासिक अपील खत्म हो चुकी। युवाओं में आकर्षण नहीं, लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर पार्टी का आधार बना हुआ।
शेर बहादुर देउबा
कांग्रेस के पुराने चेहरे के रूप में जनता का भरोसा कम हुआ। अगर पार्टी युवा नेताओं को आगे नहीं लाती तो देउबा की भूमिका सीमित रहेगी।
अन्य वरिष्ठ नेता
पुराने प्रधानमंत्रियों और वरिष्ठ चेहरों के घरों पर हमले हुए। इनकी राजनीतिक भूमिका घट रही है और जनता इन्हें जवाबदेह मान रही है।
नेपाल की राजनीति में जनता ने यह संदेश स्पष्ट कर दिया है कि पुरानी नेतृत्व शैली अब स्वीकार्य नहीं है। केपी ओली, प्रचण्ड और देउबा जैसे नेताओं का प्रभाव 2026 चुनाव में घटा हुआ रहेगा। वे गठबंधन की राजनीति में अपनी भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन जनता का विश्वास अब नए चेहरों, पारदर्शिता और युवा नेतृत्व की ओर झुक रहा है। किसी भी दल को बहुमत नहीं मिलेगा और गठबंधन सरकार ही बनानी होगी।
नेपाल की राजनीति अब निर्णायक मोड़ पर है। कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों का भविष्य धूमिल है, जबकि सुशीला कार्की, बालेंद्र शाह और कुलमान घिसिंग जैसे नए चेहरे उभार पर हैं। विश्लेषकों का कहना है कि अगर पारंपरिक दलों ने सुधार नहीं किया तो 2030 तक नेपाल की राजनीति पूरी तरह युवा नेतृत्व के हाथ में होगी।
नेपाल: क्या लौटेगा राजशाही युग? जनता में बहस तेज़
नेपाल की राजनीति एक बार फिर बड़े सवालों के घेरे में है। सोशल मीडिया बैन, भ्रष्टाचार और लगातार अस्थिर गठबंधनों से जनता का भरोसा पारंपरिक दलों से उठता जा रहा है। हालिया जनआंदोलन ने सत्ता पलट दी और अब बहस तेज़ हो गई है कि क्या नेपाल में राजशाही की वापसी संभव है।
2006 के जनआंदोलन ने नेपाल के इतिहास को बदल दिया था। राजा ज्ञानेन्द्र शाह को सत्ता छोड़नी पड़ी और 2008 में देश आधिकारिक तौर पर गणराज्य बन गया। सदियों पुरानी राजशाही समाप्त हो गई, लेकिन इसका प्रभाव पूरी तरह खत्म नहीं हुआ।
ताज़ा विरोध प्रदर्शनों में कई बार “राजा आऊ” के नारे सुनाई दिए। राष्ट्रिय प्रजातन्त्र पार्टी (RPP) खुलकर हिंदू राष्ट्र और संवैधानिक राजशाही की मांग उठा रही है। जनता का एक तबका मानता है कि राजशाही के समय राजनीतिक स्थिरता और प्रशासनिक अनुशासन ज़्यादा था।
शहरी युवा वर्ग हालांकि लोकतंत्र का प्रबल समर्थक है और राजशाही की वापसी का विरोध करता है। दूसरी ओर ग्रामीण इलाकों और परंपरागत समाज में ऐसे लोग भी हैं जो लगातार अस्थिरता और भ्रष्टाचार से परेशान होकर राजशाही की ओर झुकाव दिखाते हैं। धार्मिक और सांस्कृतिक तबकों में भी राजशाही को लेकर सहानुभूति बनी हुई है।
संवैधानिक स्थिति स्पष्ट है। नेपाल का संविधान राजशाही को मान्यता नहीं देता। यदि इसकी वापसी पर विचार करना हो तो व्यापक संविधान संशोधन और शायद जनमत संग्रह की आवश्यकता होगी। मौजूदा संसद में राजशाही समर्थक दलों की ताक़त सीमित है, लिहाज़ा वापसी फिलहाल संभव नहीं दिखती।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि 2026 के चुनाव तक राजशाही का मुद्दा केवल बहस और चुनावी भाषणों तक ही रहेगा। लेकिन यदि आने वाले वर्षों में लोकतांत्रिक दल जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे, भ्रष्टाचार और अस्थिरता बनी रही, तो 2030 के बाद इस पर गंभीर राजनीतिक चर्चा संभव है। पूरी राजशाही की वापसी तो मुश्किल होगी, मगर संवैधानिक या औपचारिक राजशाही का मॉडल चर्चा में आ सकता है।
फिलहाल यह साफ है कि नेपाल में राजशाही का भविष्य सिर्फ़ एक संभावना भर है, लेकिन जनता की नाराज़गी और लगातार अस्थिर राजनीति ने इस बहस को ज़िंदा रखा है। सवाल यही है कि क्या नेपाल की जनता फिर से राजशाही युग को स्वीकार करेगी या लोकतांत्रिक रास्ते पर आगे बढ़ेगी।
नेपाल: क्या लौट सकता है हिंदू राष्ट्र का दौर?
नेपाल एक समय दुनिया का इकलौता हिंदू राष्ट्र था। 2006 के जनआंदोलन और 2008 में गणराज्य की घोषणा के साथ नेपाल को *धर्मनिरपेक्ष राज्य* घोषित किया गया। लेकिन हालिया राजनीतिक अस्थिरता और पारंपरिक दलों के खिलाफ फैले गुस्से के बीच यह बहस तेज़ हो गई है कि क्या नेपाल फिर से हिंदू राष्ट्र बन सकता है।
नेपाल की राजनीति में राष्ट्रिय प्रजातन्त्र पार्टी (RPP) लगातार हिंदू राष्ट्र और राजशाही की वापसी की मांग उठाती रही है। हाल के प्रदर्शनों में कई बार “हिंदू राष्ट्र” के नारे लगे। यह संकेत देता है कि जनता का एक तबका, खासकर धार्मिक और पारंपरिक समुदाय, इस विचार से भावनात्मक जुड़ाव रखता है।
शहरी और युवा वर्ग लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में खड़ा है। आंदोलन की रीढ़ बने Gen-Z कार्यकर्ता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, पारदर्शिता और आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों को प्राथमिकता देते हैं। यही वजह है कि यह वर्ग हिंदू राष्ट्र की मांग को पीछे ले जाता है।
ग्रामीण इलाकों और धार्मिक-सांस्कृतिक समूहों में हिंदू राष्ट्र की मांग को समर्थन मिलता है। उन्हें लगता है कि धर्मनिरपेक्षता से नेपाल की पारंपरिक पहचान कमजोर हुई है। अस्थिर राजनीति और भ्रष्टाचार से परेशान लोग भी मानते हैं कि धार्मिक राष्ट्रवाद से व्यवस्था में अनुशासन लौट सकता है।
संवैधानिक रूप से नेपाल का फिर से हिंदू राष्ट्र बनना बेहद कठिन है। इसके लिए संविधान में बड़े बदलाव और संभवतः जनमत संग्रह की आवश्यकता होगी। मौजूदा संसदीय समीकरणों में ऐसा संभव नहीं दिखता, क्योंकि प्रमुख दल — नेपाली कांग्रेस, UML और माओवादी — धर्मनिरपेक्षता बनाए रखने के पक्षधर हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि निकट भविष्य में हिंदू राष्ट्र की वापसी की संभावना कम है। हालांकि, अगर पारंपरिक लोकतांत्रिक दल जनता की अपेक्षाएँ पूरी करने में नाकाम रहे, तो 2030 के बाद हिंदू राष्ट्र और राजशाही की मांग राजनीतिक विमर्श का अहम हिस्सा बन सकती है।
फिलहाल नेपाल की जनता दो ध्रुवों में बंटी दिख रही है। युवा और शहरी वर्ग धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र का समर्थक है, जबकि पारंपरिक और धार्मिक तबकों में हिंदू राष्ट्र की चाह अभी भी मौजूद है। यही द्वंद्व आने वाले वर्षों में नेपाल की राजनीति का बड़ा मुद्दा बना रह सकता है।
नेपाल में जनता का रुख़: धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बनाम हिंदू राष्ट्र
नेपाल की राजनीति एक बार फिर पहचान की बहस में उलझ गई है। पुराने दलों पर भ्रष्टाचार और अस्थिरता के आरोपों के बीच जनता के सामने सवाल खड़ा है कि देश को धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बनाए रखना चाहिए या फिर हिंदू राष्ट्र की ओर लौटना चाहिए। हालिया राजनीतिक घटनाक्रमों और जनभावनाओं के आधार पर तैयार एक सर्वे रिपोर्ट इस बहस की तस्वीर को साफ करती है।
सर्वे के मुताबिक 54 प्रतिशत लोग अब भी नेपाल को धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के रूप में देखना चाहते हैं। वहीं 32 प्रतिशत जनता हिंदू राष्ट्र की वापसी का समर्थन करती है। आठ प्रतिशत लोग संवैधानिक राजशाही के साथ हिंदू राष्ट्र की व्यवस्था चाहते हैं, जबकि छह प्रतिशत लोगों ने कोई राय नहीं दी।
शहरी युवाओं में लोकतंत्र के लिए समर्थन सबसे मजबूत है। 70 प्रतिशत से अधिक युवा धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के पक्षधर हैं। दूसरी ओर ग्रामीण और पारंपरिक समाज में लगभग आधे लोग हिंदू राष्ट्र की ओर झुकाव रखते हैं। धार्मिक और सांस्कृतिक तबकों में यह संख्या 60 प्रतिशत तक पहुंचती है।
राजनीतिक असर साफ है। राष्ट्रिय प्रजातन्त्र पार्टी को हिंदू राष्ट्र और राजशाही के नारे से फायदा मिल सकता है, जबकि नेपाली कांग्रेस, UML और माओवादी फिलहाल धर्मनिरपेक्ष ढांचे को बनाए रखने के पक्षधर हैं। उधर Gen-Z आंदोलन और नए नेता लोकतांत्रिक मूल्यों और पारदर्शिता की राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं।
विश्लेषकों का कहना है कि बहुमत अब भी धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के पक्ष में है, लेकिन एक-तिहाई से ज़्यादा जनता हिंदू राष्ट्र की मांग करती है। यदि आने वाले वर्षों में राजनीतिक दल भ्रष्टाचार और अस्थिरता पर काबू पाने में असफल रहे तो यह मांग और ताक़तवर हो सकती है।
नेपाल फिलहाल गणराज्य और लोकतांत्रिक व्यवस्था में है, लेकिन जनता का यह बंटा हुआ रुख़ संकेत देता है कि हिंदू राष्ट्र बनाम धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की बहस आने वाले वर्षों में राजनीति का अहम मुद्दा बनी रहेगी।
https://cmgtimes.com/nepal-political-upheaval-prime-minister-oli-resigns-to-president/
नेपाल: राजशाही से लोकतंत्र और अब भ्रष्टाचार-अराजकता, भविष्य किस ओर?



