एक भारतेन्दु भवन भी है जो हिन्दी पुरोधा की स्मृति है !

आलोक पराड़कर

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपनी आत्मकथात्मक रचना में अपने आसपास की तस्वीर प्रस्तुत करते हुए लिखा है, ‘एक दिन खिड़की पर बैठा था, वसंत ऋतु, हवा ठंडी चलती थी। सांझ फूली हुई, आकाश में एक ओर चन्द्रमा, दूसरी ओर सूर्य, दोनों लाल-लाल, अजब समां बंधा हुआ।’ कल्पना कीजिए, अपने भारतेन्दु भवन की खिड़की पर आज बैठ लिख रहे होते, तो वे क्या लिखते? वे तो शायद अपने भवन के प्रवेश द्वार को ही न पहचान पाते जहां तारों का जंजाल है, दरवाजा रोक खड़े खोमचे वाले हैं और हैं जहां तहां अड्डेबाजी कर गंदगी-दुर्गंध फैलाते अनाम लोग।

बनारस पहले भी बहुत साफ-सुथरा शहर तो नहीं था, खासकर पुराने बनारस और गलियों का जीवन। तभी तो भारतेन्दु को ‘मैली गली भरी कतवारन..देखी तुम्हरी कासी लोगों, देखी तुम्हरी कासी’ जैसी पंक्तियां लिखनी पड़ी थीं। लेकिन जब भारतेन्दु थे तब उनका भवन उनकी शान-शौकत, साहित्य-संगीत, कलाकृतियों-ग्रंथों, संग्रहालय-पुस्तकालय, दुर्लभ वस्तुओं से सजा, सुर-ताल में रचा-बसा बनारस का एक महत्वपूर्ण केन्द्र था।

भारतेन्दु भवन बनारस के चौखम्भा में स्थित है। ये वे गलियां हैं जो चौक और नीची बाग के बीच आरंभ होकर गंगा घाट तक जाती हैं। भारतेन्दु भवन के पीछे अग्रसेन महाजनी महाविद्यालय स्थित है। भारतेन्दु परिचय देते हुए खुद लिखते हैं, ‘यहां जिस मुहल्ले में मैं रहता हूं उसके एक भाग का नाम चौखम्भा है। इसका कारण यह है कि वहां एक मसजिद कई सौ बरस की परम प्राचीन है।

उसका कुतबा कालबल से नाश हो गया है पर लोग अनुमान करते हैं कि 664 बरस की बनी है और मसजिद चिहल सुतून, यही उसकी तारीख है पर यह दृढ़ प्रमाणी भूत नहीं है। इस मसजिद में गोल गोल एक पंक्ति में पुराने चाल के चार खंभे बने हैं। अतएव यह नाम प्रसिद्ध हो गया है। यही व्यवस्था प्राचीन ढाई कनगूरे के मसजिद की है। अनुमान होता है कि मुगलों के काल के पूर्व की है। इसकी निर्मिति का काल 1059 ई. बतलाते हैं। इससे निश्चय होता है कि इस मुहल्ले में आगे अब सा हिंदुओं का प्राबल्य नहीं था, पर यह मुहल्ला प्राचीन समय से बसा है।’

तो क्या उस भवन को, जो हिन्दी के एक इतने विख्यात रचनाकार से जुड़ा है, उनके जीवन का साक्षी है, हिन्दी की कितनी ही कालजयी रचनाओं की सृजन स्थली है, उनकी स्मृति है, जो उनके जीवन में भी साहित्य, कला, संगीत के प्रोत्साहन का केन्द्र रहा है, उसे यूं ही उपेक्षित बिसरा दिया जाना चाहिए? क्या कॉरिडोर बनाकर काशी विश्वनाथ मंदिर के पुनरुत्थान के उद्घोष में उसी से चंद किलोमीटर की दूरी पर स्थित हिन्दी साहित्य के इस तीर्थ की उपेक्षा की कराह दबकर रह जाएगी? वैसे भी, यह नगर धर्म के साथ ही साहित्य और संगीत का भी केन्द्र है लेकिन उन दिग्गज साहित्यकारों और संगीतकारों की स्मृतियां यहां आज भी उपेक्षित ही हैं। लंबी उपेक्षा और सुर्खियों में आने के बाद प्रेमचंद की लमही की तो जैसे-तैसे बदली लेकिन तुलसी- कबीर से लेकर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जयशंकर प्रसाद जैसे साहित्यकार हों या अनोखेलाल, बिस्मिल्लाह खान, सितारा देवी, गिरिजा देवी, किशन महाराज, गुदई महाराज, महादेव प्रसाद मिश्र जैसे दिग्गज संगीतकार, नगर उनकी स्मृतियों को सहेज नहीं सका है।

भारतेन्दु भवन में घुसते ही आज भी पुरानी शान-शौकत की झलक तो मिलती है। मुख्य प्रवेश द्वार से आते ही आपका सामना पुरानी पालकी से होता है। भीतर बड़ा आंगन है और आंगन से पहले ही एक कमरा है जिसमें ढेरों तस्वीरें लगी हैं। इनमें भारतेन्दु के साथ ही उनके पूर्वजों और परिवारीजनों के चित्र हैं। कुछ चित्र बुढ़वा मंगल के हैं। नौकाओं की इस संगीत महफिल में भारतेन्दु का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा है। भारतेन्दु के वंशज दीपेश चन्द्र चौधरी कहते हैं, ‘लोग भारतेन्दु भवन आना चाहते हैं लेकिन उन्हें पता नहीं चल पाता कि किधर से आना-जाना है। अगर आसपास की सड़कों पर इसका उल्लेख हो जाए तो आसानी रहेगी। भवन के बाहर भी शिलापट लगाया जा सकता है जिसमें उनके योगदान की विस्तार से चर्चा हो। बहुत कुछ हो सकता है इस प्राचीन भवन को संरक्षित करने के लिए। ‘

लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ ने अक्तूबर 2019 में इस भवन में अपने उपन्यास ‘मल्लिका’ का वाचन किया था। पिछले वर्ष भवन में प्रेमचंद की कहानियों का मंचन करने वाले नगर के संस्कृतिकर्मी और इप्टा के नगर महासचिव सलीम राजा भी कहते हैं, ‘भारतेन्दु भवन संस्कृति का केंद्र हो सकता है । यहां से जो सामग्री पाण्डुलिपि, भारतेन्दु की हस्तलिपि या उनके रोजमर्रा के उपयोग की चीजें भारत कला भवन ( बीएचयू ) गई हैं उन्हें पुनः संजोकर अन्य सामग्रियों के साथ एक उम्दा केन्द्र की स्थापना की जा सकती है। यहां एक भारतेन्दु चबूतरे का निर्माण कर कहानियों का मंचन और नाट्य प्रदर्शन किया जा सकता है। ‘

महज 34 वर्ष की छोटी-सी आयु में, जिस आयु में की गई रचनाओं को पीछे मुड़कर देखते हुए अक्सर कोई दिग्गज रचनाकार आरंभ की अपरिपक्व मानता है, भारतेन्दु ने जो लिखा वह मील का पत्थर बन गया। आलोचकों ने उन्हें आधुनिक हिन्दी का जनक कहा। उनकी तुलना तुलसीदास से लेकर शेक्सपियर तक से की गई। सहसा विश्वास नहीं होता कि इस रचनाकार ने इतनी कम आयु में इतना कुछ लिखा, इतना अधिक काम किया।

‘काशी का इतिहास’ जैसी चर्चित पुस्तक लिखने वाले डॉक्टर मोतीचंद्र ने लिखा है, ‘हिन्दी के लिए भारतेन्दु को भारी कीमत चुकानी पड़ी। इसके विकास के लिए उन्होंने काफी धनराशि खर्च की। साथ ही उनकी अपनी जीवन शैली काफी विलासितापूर्ण थी और उन्हें दानशीलता का व्यसन भी था। इस कारण आर्थिक विपन्नता की ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई जिसमें उन्हें कर्जदार तक होना पड़ा। लेकिन वे न बाधाओं से डरे न कभी निराश हुए और न ही कभी उन्हें अपने किए पर रंचमात्र पश्चाताप रहा। उन्हें अन्त तक अपने लक्ष्यों की सफलता का पूरा विश्वास रहा।’ (इलेस्ट्रेटेड वीकली, 16 फरवरी 1964)

हिन्दी की सेवा ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को कर्जदार बना दिया था लेकिन भारतेन्दु ने हिन्दी की जो सेवा की, उसका समूचा हिन्दी समाज कर्जदार है। क्या भारतेन्दु भवन की ओर ध्यान देकर, उसे हिन्दी के इस शिखर पुरुष की स्मृति, स्मारक का रूप देकर हमें कृतज्ञता ज्ञापित नहीं करनी चाहिए?

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