
अनूठा काव्य संग्रह है “वासूनामा”
@शुभा द्विवेदी
आज ही के दिन दो काव्य संग्रह भेंट में मिले और दोनों ही बच्चों के प्रति लिखी गईं या उनको केंद्र में रखकर लिखी गईं कविताओं के संकलन थे। कॉलेज से निकलते हुए पहले तो विभागीय सहयोगी डॉ अचिंग्लू कमाय ने अपने सद्य प्रकाशित बाल कविता संग्रह “कौड़ियाँ और अन्य कविताएँ” की एक प्रति सस्नेह भेंट की और फिर घर पहुँचते ही प्रयागराज से आया, निखिल पब्लिशर्स आगरा से प्रकाशित एक अनूठा काव्य संग्रह “वासूनामा” शीर्षक के साथ, डॉ0 जगदीश गुप्त द्वारा उनके पौत्र वासू को केंद्र में रख के लिखित प्राप्त हुआ जिसको पढ़ने की शुरूआत खाने की टेबल पर बच्चों के साथ खाना खाते- खाते ही हो गई।
पहली ही कविता “मेरा पर्स और वासू” ने बाल सुलभ प्रवृत्तियों के साथ सहज ही प्रभावित कर लिया और वो सारे संदर्भ मेरी आँखों में कौंध गए जब मेरे भी बच्चे छुटपन में कभी नाना नानी के चश्मे, उनकी किताबें व पैन तो कभी दादा दादी के मोबाइल, टार्च आदि ज़रूरी सामान लेकर रफ़ू चक्कर हो जाते थे और उत्सुकतावश कोने में जाकर उनका गहन परीक्षण करते थे और थोड़ी देर बाद ही उकताकर उन्हें घर के किसी कोने में छोड़ आते थे… इन प्रसंगों से चेहरे पर मुस्कान का आ जाना स्वाभाविक ही था और मैं कल्पना करने लगी उन परिवारों की जहाँ बच्चों की कमी, अन्यत्र वासिता या नामौजूदगी से जीवन में एक तरह की उदासी नीरसता फीकापन सा महसूस होने लगता है।
असाधारण व्यक्तित्व और प्रतिभा के धनी डॉ जगदीश गुप्त की प्रसिद्धि एक शीर्ष कवि, चित्रकार और अध्यापक के रूप में है । नई कविता के प्रवर्तक के रूप में उनकी काव्य सर्जनाएँ काव्य रसिकों के लिए एक अनुपम मानक के तौर पर प्रतिष्ठित हैं। बौद्धिकता, यथार्थ चित्रण, प्रकृति के प्रति अकूत प्रेम और भाषा की पारदर्शिता के लिए जाने वाले जाने वाले डॉ0 जगदीश गुप्त की एक अलग ही सर्जनात्मकता यहाँ देखने को मिलती है जहाँ बुद्धि, हृदय, भावना,विचार और संवेदनाओं के बीच संतुलन स्थापित करते हुए एक बालपात्र के संदर्भ से वे चमत्कारिक ढंग से नई तरह की कविताएँ लिखते हैं जिनमें कलात्मकता तो है ही और सामाजिक प्रासंगिकता भी है। वयस्कों के आडंबर पूर्ण जीवन से हटकर वासू की बाल लीलाओं, क्रीड़ाओं व चेष्टाओं को केंद्र में रखकर लिखी गई इस संग्रह की दो सौ बासठ कविताएँ अपनी लयात्मकता,सहजता, चित्रात्मकता और भाषा की प्रयोगात्मकता से विशिष्ट बन जाती हैं।
वात्सल्य रस से सराबोर इन सरल परंतु प्रभावशाली कविताओं के ज़रिए कवि ने बच्चों के बचपन को बिना किसी कृत्रिमता और अतिरिक्त प्रयत्नों के उनके मौलिक रुप में संजोने का भरसक प्रयास किया है । विचारणीय है कि आज सुख समृद्धि में पल रहे बच्चे अपने आस पास के परिवेश-मानवता, जीव जन्तुओं ,प्रकृति के प्रति वो तारतम्य और संबंध नहीं महसूस कर पाते जो वासू अपने पारिवारिक और सामाजिक माहौल में स्वाभाविक ढंग से अनुभूत करता रहा। संयुक्त परिवार, पासपड़ोस, मेले ठेले, परंपरागत तीज त्यौहार,देशज और सांस्कृतिक,धार्मिक अनुभवों से समृद्ध ये कवितायें इस बात का भान कराती हैं कि बच्चों के शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक विकास और उनके जीवन में सौहार्द, प्रेम, सामाजिकता और नागरिकता के गुण स्वाभाविक रूप से विकसित करने के लिए जिस तरह के आदर्श वातावरण की ज़रूरत होती है वह वासू को एक वरदान की तरह मिला हुआ है और वासू भी अपनी पूरे परिवेश में उतनी ही तत्परता से रमा बसा हुआ है।
“बालू के ढेर पर बैठकर/ दोनों हाथों से/ उछालता है गीली बालू/ उसे माड़ता है आटे की तरह/ गाड़ता है अपने पैर/ उसी ढेर में/मैं कुर्सी पर बैठा/उसकी सारी मुद्राएँ ध्यान से निहारता हूँ/ ऐसा सुख कैसे मिलेगा/किसी को/ सोचता हूँ”(233) वासू की मौज को निहारते हुए कवि का मन वत्सलता से भर जाता है और उसे अपने और उसके बीच के अनोखे संबंध की बहुमूल्यता का भान हो आता हैः
बालपन हो या ‘जाठपन’
दोनों घुल मिल जाते हैं ।
मेरे और वासू की तरह
इधर से उधर तक
एक रेशमी डोर
बँधी रहती है
मानव संबंधों को
प्रेरक अनुबंधों को
धागा टूटकर भी जुड़ जाता है
और गाँठ भी नहीं पड़ती
वत्सलता
कितनी लाल होती है
और साल भी।”(354)
निश्चित रूप से बचपन के मूल्यों, भावनाओं और अनुभवों का वयस्कता में मनुष्य के व्यक्तित्व और व्यवहार पर गहरा प्रभाव पड़ता है और इसी परिप्रेक्ष्य में डॉ0 गुप्त अंग्रेज़ी कवि वर्ड्सवर्थ को उद्धृत करते हैं जिन्होंने सही कहा था, “चाइल्ड इस दि फ़ादर ऑफ़ द मैन” “ मेरा बचपन खेलता है” कविता में इस उक्ति की सार्थकता देखी जा सकती है जब कभी कहता है, “मुट्ठी में अमरूद कुतरता रहा/ चुपचाप/शरारतें सोचता हुआ/ मेरे कमरे से जाकर इधर/ अपने आप निकल आया उधर/ उसके साहस की सराहना/बाबा होकर कैसे न करूँ/मेरा बचपन खेलता है/ मेरे ही धूल भरे आँगन में“(298)
कवि का मन वासू के साथ अठखेलियाँ करते हुए निहाल हो जाता है-“ कितने दिनों बाद/ ननसाल से लौटा/पर बड़े कमरे में पहुँचते ही उसने/ सोफ़े पर पड़ा मेरा गाउन देखा/ और घसीटते हुए मेरे पास ले आया/ मेरा इतना ख्याल!/ पहनना ही था मुझे, पहन लिया मैंने/ नाच उठी उसकी आँखें/मैं भी निहाल हो गया! (31)
वासू के खेल खिलौने पूरे घर भर में हैं पर उसका मन तो पानी से खेलने में ही है-“आँख में पानी/ टब में पानी/ट्यूब में पानी/ बरामदे में पानी/ ख़ुद को भिगोता है/ नहीं तो आँसुओं से रोता है” ‘अपनी ही मौज का बादशाह’, ‘जोशीला वासू’ “अपनी ही सृष्टि का /विधाता है”(43) अपने शैतानियों और अन्यान्य कलाओं से सभी के चित्त को हर लेता है। वासू की शरारतें,उसके कारनामे, उसके मन की तरंग, माया, उसकी उदारता, हर्ष, मान, उत्सुकता, ज़िद, उत्कंठा, रोना, खिलखिलाना,आँसू, सौम्यता,सूझ-,बूझ और मनमानियाँ हतप्रभ करने के साथ ही मन को गहरे आनंदित भी करते हैं।
“कूद कूदकर कभी नाचता ।
कभी नोचता,कभी खींझता।
मनमानी का रुप बचपना ।
ईश्वर की छाया सा लगता।”
जल से उसका गहरा नाता है। घूमने फिरने में उसका मन रमता है। पर दादा के चश्मे, छड़ी,ओवरकोट, अख़बार की भी उसको पूरी फ़िक्र रहती है। कृष्णावतार वासू नए अनुभवों, नए दृश्यो, नई उत्सुकताओं, निश्चलता संवेदनशीलता और रचनात्मकता के साथ हमारे मन को मोह लेता है। पूरे परिवार के आह्लाद का संदर्भ वासू अपनी समझदारी और कारनामों से बाबा दादी की परछाईं बन पूरे घर में खुशियों का स्रोत बनता है। कवि मुदित मन से उसकी सारे क्रिया कलापों को बहुत ही सहज भाषा में छायांकित करता है। बाल कल्पनाशीलता व बाल मनोविज्ञान को आत्मांकित करती ये कविताएँ एक समय काल परिवेश में बड़े हुए बच्चों को उनके नैसर्गिक सौंदर्य, अबोधता और निष्कपटता के साथ चित्रित करती हैं । अपने चित्रांकनों के लिए प्रसिद्ध डॉ0 गुप्त इन कविताओं के ज़रिए एक सामाजिक परिदृश्य उपस्थित करते हैं जहाँ बच्चों को उनकी कल्पनाओं के साथ जीने और गलतियाँ करने की पूरी छूट है।
आज के समय में पारस्परिक प्रतिस्पर्धा, पारिवारिक उपेक्षा, सामाजिक अवहेलना, ख़राब रोल मॉडलिंग, हिंसा में बढ़ोतरी और मूल्यों में गिरावट के चलते बड़ों तो क्या बच्चों में भी अवसाद,एकाकीपन, अव्यावहारिकता, आत्म संहार जैसी प्रवृत्तियाँ उभरती दिखाई देती हैं ऐसे में पारिवारिक संबल परस्पर प्रेम और प्रोत्साहन और एक दूसरे को बातचीत से समझने की कोशिश जैसी प्रक्रियाओं को अपनाना ज़रूरी मालूम पड़ता है । बच्चों को दुत्कार,नैराश्य और हीनता से बचाने की कोशिश करते हुए उनके बीच अनेक संभावनाएँ तलाशता कवि का मन वासू के भीतर के पिकासो रेम्ब्राँ और स्टार को पहचानता है परिणामस्वरूप उसकी कल्पना जाग उठती है और उसकी प्रतिभा का उत्तरोत्तर विकास होता जाता है।
पारिवारिक मूल्यों को एक बार पुनः प्रतिष्ठित और स्थापित करती हुई डॉ0 जगदीश गुप्त की ये कविताएँ निश्चित रूप से हम सब के अंतर्मन को छूती हैं और बहुधा हमारी अंतरात्मा को कचोटती भी हैं। इन कविताओं में किसी भी तरह से नैतिक उपदेश देने की मंशा नहीं दिखती है। कवि बहुत प्रेम पूर्वक, सजगता से अपने पौत्र की सभी मनभावन लीलाओं को अंकित करता है और उसे उसके स्वाभाविक वातावरण में सजीवता के साथ प्रस्तुत करता है। सामान्य विचारधारा के विपरीत इन कविताओं के बाल नायक वासू को अपने बड़ों सा बनने या उनके जीवन में प्रविष्ट होने की जल्दी नहीं है। वह अपने परिवार, समाज, विद्यालय, पास पड़ोस के माहौल, स्त्री, पुरुष, पशुओं,पक्षियों, कीट पतंगों सभी से पूरी तरह संबद्ध है और बिना किसी भेदभाव के सभी के साथ एक तरह का रागात्मक संबंध स्थापित कर पाता है ।
नियमों नीतियों के बंधनों से मुक्त वासू का जीवन सुरक्षित और आदर्श है और सामाजिक संतुलन की राह भी दिखाता है जहाँ वयोवृद्ध और बच्चे एक दूसरे के मित्र और आश्रय होते हैं । ज़ाहिर है जिस तरह से वयस्क बच्चों के जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं बच्चे भी वयस्कों और वृद्धों के बीच तालमेल बनाने और उनके जीवन को एकरसता से बचाने और अर्थपूर्ण बनाने के लिए एक ज़रूरी रोल अदा कर सकते हैं।
काव्य संग्रह एक बहुत ही अनुपम रचना “विश्व संकट काटने को जब हुए पैदा मुरारी” के साथ समाप्त होता है जो कृष्ण की बाल लीलाओं का अद्भुत वर्णन है और कवि के प्रेरणा स्रोत सूर और तुलसी के काव्य में वर्णित प्रभु लीलाओं की स्मृति भी कराता है। ये कविताएँ बदलते संदर्भ में बाल मन को समझने उनके प्रति संवेदनशीलता जगाने में बहुत उपयोगी सिद्ध होंगी। जीवन के विविध रंगों से भरपूर यह कविता संग्रह हमें जीवन के क़रीब ले जाता है और नित नए अनुभवों से भरकर रोमांचित भी करता है। वासू नामा डॉ गुप्त कि बहुमुखी प्रतिभा का एक शाश्वत उदाहरण है और एक आदर्श समाज की पुनर्रचना करने में जिन मूल्यों की हमें ज़रूरत पड़ने वाली है उनकी ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है।
इस काव्य संग्रह के वाचक और मुख्य पात्र बहुत ही असाधारण व्यक्तित्व के धनी हैं और उनमें जो सदाशयता,अपनापन और हृदय की उदात्तता देखने को मिलती है वह अन्यत्र दुर्लभ है। देर से ही सही, पर डॉ0 जगदीश गुप्त की शताब्दी वर्ष में इन कविताओं को संकलित व प्रकाशित कर उनके पुत्र श्री विभू गुप्त ने हिन्दी साहित्य को एक मनोहर उपहार से नवाज़ने के साथ ही बाल साहित्य की विधा को भी बहुत समृद्ध किया है और इसके लिए उनका अतिशय आभार और नमन।संग्रह की सभी कविताएँ पठनीयता, शब्द सौष्ठव और वैचारिकता के स्तर पर भी उत्कृष्ट हैं ।