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गोरक्षपीठ की परंपरा, सोशल इंजीनियरिंग और चुनावी नतीजे

उत्तर प्रदेश की राजनीति में तीन दशक तक प्रभावशाली भूमिका निभाने के बाद मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) हाशिये पर चली गई है। हालिया विधानसभा चुनावों में बसपा ने अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन किया है। आखिर बहुजन समाज पार्टी की इस तरह बुरी हार की वजहें क्या हैं? जिनके वोटों पर बहन जी को बहुत नाज था, वे कहां चले गए? क्या कोई अदृश्य सोशल इंजीनियरिंग भाजपा खासकर गोरक्षपीठ से ताल्लुक रखने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए काम कर रही थी !  संभव है, मेरी बातों पर बहुत लोग यकीन न करें, पर यह 100 फीसद सच है कि जिस दलित समाज को अपने वोट बैंक में बदलकर मायावती चार बार सबसे बड़े प्रदेश के सत्ता की कमान संभाल चुकी हैं, उसे समाज की मुख्य धारा में लाने का प्रयास गोरक्षपीठ बहुत पहले से कर रही है।

नाथपंथ के इतिहास को सिलसिलेवार देखें तो या बात साफ भी हो जाती है। गोरखपुर के सांसद के रूप में योगी आदित्यनाथ की लगातार पांच बार भारी मतों से जीत और वर्ष 2022 के विधानसभा चुनावों में उनको मिले 1 लाख 2 हजार से अधिक वोट खुद में बहुत कुछ कह देते हैं। चुनाव के ये आंकड़े बताते हैं कि जिस तरह गुरु गोरक्षनाथ के दरबार में कोई भेदभाव नहीं होता, हर कोई खिचड़ी के चावल-दाल की तरह अभिन्न हो जाता है, उसी तरह समय आने पर लोग भी सारे समीकरणों से परे हटकर पीठ के पीठाधीश्वर या उत्तराधिकारी को वोट देते रहे हैं। संभव है अपने पीठाधीश्वर मुख्यमंत्री के लिए भी लोगों ने यही किया हो। ऐसा होने के लिए पीठ के इतिहास पर एक नजर डालनी होगी।

मालूम हो कि नाथ पंथ के प्रवर्तक गुरु गोरक्षनाथ ने जिस योग को लोकप्रिय बनाया उसका उद्देश्य भी लोक कल्याण ही था। मन को स्थिर और तन को निरोग रखने वाला उनका योग देश, काल, जाति-धर्म और लिंग से परे सबके लिए समान रूप से उपयोगी था। गुरु गोरखनाथ से लोककल्याण का शुरू सिलसिला तबसे जारी है। हाल के 100 वर्षों के इतिहास को देंखे तो पीठ की तीन पीढियां (ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ, ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ और मौजूदा पीठाधीश्वर एवं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ) खुद में बेमिसाल हैं। लोककल्याण के लिए जब भी रूढ़ियों को तोड़ने की बात आई इस पीठ के पीठाधीश्वरों ने तनिक भी हिचक नहीं दिखाई। योगी आदित्यनाथ के दादा गुरु के बारे में तो वीर सावरकर ने लिखा था कि, यदि महंत जी की तरह अन्य धर्माचार्य भी धर्म, जाति एवं देश की सेवा में लग जाएं तो भारत पुनः जगतगुरु के रूप में प्रतिष्ठित हो सकता है।

मार्च 2000 में गोरखपुर नगर निगम की 125 वीं सालगिरह पर नगर निगम की ओर से प्रकाशित स्मारिका में योगी जी ने एक लेख (युग पुरुष महंत दिग्विजय नाथ) लिखा था। उसके मुताबिक अपने समय में महंत जी उन सभी रूढ़ियों के विरोधी रहे जो धर्म के नाम पर समाज को तोड़ने का काम करती थीं। मंदिरों में अछूतों का प्रवेश और छुआछूत ऐसी ही घातक रूढ़ि है। उस समय काशी विश्वनाथ मंदिर में अछूतों के प्रवेश के लिए महन्तजी जी ने जबरदस्त आंदोलन किया था। उस दौरान वे गिरफ्तार भी हुए थे। तबके अछूतों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए वह ताउम्र संघर्षरत रहे। स्वामी दयानंद सरस्वती एवं विवेकानंद के बाद हिंदुओं के सामाजिक एकता के वह सबसे बड़े उन्नायक थे।

यह सिलसिला उनके शिष्य और योगीजी के गुरुदेव ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ ने भी जारी रखा। 80 के दशक में मीनाक्षीपुरम की धर्मांतरण की घटना के बाद 90 के उत्तरार्द्ध में काशी में डोमराजा के घर संतों के साथ भोजन करके वह सुर्खियों में आए। उसके बाद से तो महंत अवेद्यनाथ अपने हर प्रवचन में श्रीराम के उदात्त चरित्र (निषादराज, गिद्धराज जटायु, शबरी के झूठे बेर, गिरिजनों से मित्रता) के जरिये समाज को सामाजिक समरसता का संदेश देते रहे।अयोध्या में जब उनकी मौजूदगी में प्रतीकात्मक रूप से भूमि पूजन हुआ तो उनकी पहल पर पहली शिला रखने का अवसर कामेश्वर चौपाल को मिला। एक दलित से ऐसा करवाकर उन्होंने पूरे समाज को सामाजिक समरसता का संदेश दिया। पटना के एक मंदिर में दलित पुजारी की नियुक्ति उनकी ही पहल से हुई।लोककल्याण की इसी भावना को जारी रखते हुए योगीजी ने इस वर्ष गोरखपुर में मकर संक्रांति के पावन पर्व पर दलित समाज के अमृतलाल भारती के घर जाकर भोजन किया। 2019 के आम चुनावों में अयोध्या में दलित महाबीर और अमरोहा में प्रियंका (प्रधान) के घर भोजन किया था। दलित वोटों पर अपना एकाधिकार मानने वाली मायावती का 2022 में तिलस्म टूटने के पीछे पीठ के इस सामाजिक सरोकार की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

90 के दशक तक यूपी में दलित वोट कांग्रेस का ही वोट बैंक माना जाता रहा है। 90 के दशक में जब पूरे देश में सियासत का चेहरा बदला, तो यूपी में दलित समाज बहुजन समाज पार्टी के साथ गोलबंद हुआ और बसपा की सबसे बड़ी ताकत बना। लेकिन 2014 से देश में जो मोदी लहर चली, उसका असर उत्तर प्रदेश में भी देखने को मिला है। यूपी में बीजेपी के पक्ष में पहले से ज्यादा दलित समाज के वोट जाने लगे हैं। बसपा के कोर वोटर कहे जाने वाले जाटव समाज में भी बिखराव देखने को मिला है, जो बहुजन समाज पार्टी के लिए खतरे की घंटी है। 2017 में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद लोककल्याण की नीतियों और गोरक्षपीठ से सर्वजन के गहरे जुड़ाव ने बसपा की रही-सही ताकत भी छीन ली। और अब उत्तर प्रदेश में दलित वर्ग योगी के कोर वोटर के रूप में लामबंद हुआ। इसमें लाभार्थीपरक योजनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही। चूंकि इन योजनाओं का सर्वाधिक लाभ इसी वर्ग को हुआ। लिहाजा उनका भाजपा के प्रति रुझान गेमचेंजर साबित हुआ। इस सबका नतीजा उप्र विधानसभा चुनाव के नतीजों के रूप में आपके सामने है।

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