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लाल सिंह चड्ढा की विफलता से बदलाव की आहट

  • विकास सक्सेना

हिन्दी फिल्मों की सफलता की गारंटी माने जाने वाले सिने जगत में ‘‘मिस्टर परफेक्शनिस्ट’’ के तौर पर ख्यातिलब्ध अभिनेता आमिर खान की फिल्म लाल सिंह चड्ढा को दर्शकों ने पूरी तरह नकार दिया है। इस फिल्म को खराब कथानक, संवाद, संगीत, फिल्मांकन या अभिनय जैसे कारणों से लोगों ने नापसंद नहीं किया है, बल्कि इस फिल्म के सह निर्माता और मुख्य कलाकार आमिर खान के कुछ पुराने बयानों और उनकी फिल्मों के माध्यम से सनातन धर्म के प्रतीकों और अनुयायियों को लेकर किए गए दुष्प्रचार से गुस्साए लोगों ने इस फिल्म पर पैसा खर्च करने में रुचि नहीं दिखाई। हालांकि आमिर खान ने पिछले सात सालों में ऐसा कुछ भी नहीं कहा या किया है जो कि स्वयंभू उदारवादी आमतौर पर कहते या करते न रहे हों। ऐसे में सनातन संस्कृति और उसके प्रतीकों के उपहास को बुद्धिजीविता का पर्याय मानने वालों के लिए विचार करना होगा कि लाल सिंह चड्ढा की विफलता कहीं देश में बड़े बदलाव की आहट तो नहीं है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय धार्मिक आधार पर देश के बंटवारे के बावजूद यहां के बहुसंख्यक समुदाय ने उदारता दिखाते हुए भारत में सभी धर्मों के अनुयायियों को समान अधिकार दिए जिसमें इस्लाम के मतावलंबी भी शामिल थे जो अपने हिस्से की भूमि लेकर पाकिस्तान बना चुके थे। तमाम विद्वान इस बात को स्वीकार करते हैं कि इस देश का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप सिर्फ बहुसंख्यक हिन्दुओं की उदारता और सहृदयता के कारण ही बचा हुआ है। लेकिन हिन्दू धर्म के अनुयायियों की उदारता को मूर्खता और कायरता मानकर सनातन संस्कृृति के विरुद्ध नफरत का भाव रखने वाले सुनियोजित षड़यंत्र के तहत सनातन धर्म के अनुयायियों में हीनभावना भरने के लिए उनके धर्मग्रंथों के खिलाफ दुष्प्रचार करने लगे। तथ्यों और ऐतिहासिक साक्ष्यों के बिना ही ऐसी बातें पढ़ाई और बताई गईं जिससे लोगों के बीच जातीय विद्वेष बढ़े।

सिनेमा और थियेटर जैसे मनोरंजन के साधनों पर कब्जा करके हास्य और विनोद के नाम पर उनके प्रतीकों और मान्यताओं का मखौल उड़ाया। प्रगतिशील दिखने की होड़ में बहुसंख्यक समाज के लोग अपनी संस्कृति, देवता, पहनावे, त्यौहार और परम्पराओं के उपहास को देखने के लिए अपना पैसा खर्च करते और ठहाके लगाकर तालियां बजाते रहे। मनुष्य को कम्प्यूटर से तेज गणना करने में सक्षम बनाने वाली वेदिक गणित हो या आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में असाध्य माने जाने वाले रोगों का उपचार करने में समर्थ आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को पोंगा पंडित और नीम हकीम खतरा ए जान जाने जैसे जुमले गढ़कर उपेक्षित करने का कुचक्र रचा गया। जिस हिन्दू धर्म में जन्म से लेकर मृत्यु तक का कोई भी संस्कार शूद्रों के बिना पूर्ण नहीं होता उसे दलित विरोधी साबित करने की कोशिश की गई। घोषा, अपाला, लोपामुद्रा और गार्गी सरीखी विद्वानों को भुलाकर ये समझाने का प्रयास किया गया कि सनातन धर्म नारी के प्रगति में वाधक है। महिलाओं का सिर्फ भोग की वस्तु मानने वालों ने कभी स्वीकार नहीं किया कि एकमात्र हिन्दू धर्म ही है जिसमें वर्ष में दो बार कन्या का पूजन किया जाता है।

मनोरंजन के साधन ही नहीं बल्कि विद्यालयी शिक्षा के माध्यम से भी लोगों के मन में यह बात बैठा दी गई कि सनातन संस्कृति इसका साहित्य, ज्ञान परम्परा और इतिहास निकृष्ट है और बुद्धिजीवियों के वर्ग में शामिल होने के लिए इसका उपहास उड़ाना आवश्यक है। इसी का नतीजा था कि वर्ष 2014 में रिलीज हुई फिल्म ‘‘पीके’’ में शिवलिंग और भगवान शिव को लेकर किए गए भोंडे प्रस्तुतिकरण के विरोध में लोगों ने जब आवाज उठाई तो फिल्म के मुख्य कलाकार आमिर खान ने साफ कह दिया कि जिसे अच्छा लगे वो फिल्म देखे और जिसे पसंद न हो वह फिल्म देखने न जाए। हिन्दू नेताओं की ओर से की गई बहिष्कार की तमाम अपीलों के बावजूद पीके ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 340 करोड़ से ज्यादा रुपये की कमाई की। लेकिन हाल ही में प्रदर्शित हुई फिल्म लाल सिंह चड्ढा के बहिष्कार की जब लोगों ने अपील की तो उन्होंने इस फिल्म को हिन्दू विरोधी नहीं बताया बल्कि फिल्म के मुख्य कलाकार और सह निर्माता आमिर खान के विरोध में इस फिल्म के बहिष्कार की अपील की गई। पीके के बहिष्कार की अपील पर दृढ़ता दिखाने वाले आमिर खान के सुर इस बार बदले हुए थे। उन्होंने लोगों को याद दिलाया कि वह भारत से प्रेम करते हैं। लेकिन इसका कोई लाभ नहीं हुआ और फिल्म बुरी तरह विफल साबित हुई।

लाल सिंह चड्ढा की विफलता को समझने के लिए लिए बीते कुछ सालों में हुए बदलावों पर नजर दौड़ानी होगी। बीते दशक में इंटरनेट डेटा की कीमत 90 प्रतिशत से ज्यादा घट गई है। इसके चलते सोशल मीडिया पर आम लोगों की सक्रियता बहुत तेजी से बढ़ी है। अब तक उनकी पहुंच से दूर रहा ज्ञान उनके मोबाइल पर सहज उपलब्ध है। हालांकि स्वयंभू उदारवादियों ने सोशल मीडिया और इंटरनेट के माध्यम से मिलने वाली जानकारियों को व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी का ज्ञान बताकर उसे खारिज करने का भरसक प्रयास किया लेकिन तथ्यों, तर्कों, साहित्य और साक्ष्यों के आधार पर प्रमाणित बातों पर लोग तेजी से विश्वास करने लगे हैं। उन्हें समझ आने लगा है कि किस तरह कठुआ में बकरवाल समुदाय की मासूम से बलात्कार के मामले में निर्दोष को फंसाने का प्रयास किया गया। इस तरह की घटनाओं पर स्वयंभू उदारवादियों की धारणा के अनुरूप विमर्श खड़ा करने के लिए आमिर खान ने अपनी पूर्व पत्नी किरण राव के हवाले से यहां तक कह दिया कि भारत में हिन्दू इतने असहिष्णु हो गए हैं कि यहां रहने में डर लगने लगा है।

फिलस्तीनी मुस्लिमों पर इजराइल के हमलों के विरोध में दहाड़ें मार कर रोने वाले स्वयंभू उदारवादियों के विमर्श का आगे बढ़ाने वाले आमिर खान कभी भी हमास, बोको हराम, अल कायदा, आईएसआईएस या तालिबान की करतूतों के खिलाफ मुखर होकर नहीं बोले। उन्होंने अपनी फिल्मों के माध्यम से लोगों को यह बताने की आवश्यकता नहीं समझी आखिर वो कौन सा विचार है जिसके आधार पर बोको हराम और तालिबान महिलाओं की शिक्षा और स्वतंत्रता पर पाबंदी लगाते हैं। एकतरफा सनातन विरोधी विमर्श खड़ा करने वाले आमिर खान और उनके साथियों को कभी हलाला, तीन तलाक या मुताह में महिलाओं का शोषण नजर नहीं आया। खुद को इस्लामिक विद्वान कहने वालों की नूपुर शर्मा और उनके समर्थकों को जान से मारने की अपील पर कई हत्याएं हुईं लेकिन ये स्वयंभू उदारवादी उनकी आलोचना से साथ किन्तु परन्तु लगाते रहे।

कश्मीर में हिन्दुओं के नरसंहार पर बनी फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ के खिलाफ भी इन लोगों ने जमकर विषवमन किया। कश्मीरी हिन्दुओं पर इस्लामिक जिहादियों की क्रूरता को फिल्मी पर्दे पर देखकर भावुक हुए लोगों की निर्लज्जतापूर्वक खिल्ली उड़ाने की कोशिश की गई। इस तरह की तमाम घटनाओं का असर सनातन संस्कृति को मानने वाले देश के बहुसंख्यक समुदाय पर दिखने लगा है। उसने न तो सिर तन से जुदा के नारे लगाए हैं और न ही सड़कों पर उतरकर पत्थरबाजी की, लेकिन 180 करोड़ रुपये की लागत से बनी लाल सिंह चड्ढा 60 करोड़ रुपये की कमाई के लिए भी तरस गई है जबकि महज 14करोड़ की लागत से बनी ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने 250 करोड़ रुपये से ज्यादा की कमाई की। लोगों के इस रुख से सनातन विरोधी तबका तिलमिला गया है। दरअसल लाल सिंह चड्ढा, रक्षाबंधन या दोबारा की विफलता किसी आमिर खान, अक्षय कुमार, तापसी पन्नू या अनुराग कश्यप का विरोध नहीं है बल्कि उस बवंडर की आहट है जो स्वंयभू उदारवादियों और जिहादियों के खिलाफ खड़ा हो रहा है।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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