Opinion

हिमालय का चन्दन हेमवती नन्दन

  • के. विक्रम राव

उन दिनों (1974) गोमती तट पर इस्लामी अध्ययन केन्द्र नदवा में अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित हो रहा था। साउदी अरब के शेख भी आये थे। उनका परिचय उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा से कराया गया। शेख ने उन पर तुरन्त टिप्पणी की: “वही वजीरे आला जिसने यहां इतना बेहतरीन इन्तजाम किया?” बहुगुणाजी ने आभार व्यक्त किया और एक अनुरोध किया: “कृपया वजीरे आजम से इस बात को मत कहियेगा।” दशकों के अनुभव के आधार पर उन्होंने यह कहा था। इन्दिरा गांधी तब प्रधानमंत्री थीं। बहुगुणाजी ने परिहास भी किया था। इन्दिराजी पहले पौधा बोतीं हैं। फिर कुछ वक्त के बाद उखाड़ कर परखती हैं कि कहीं जड़ जम तो नहीं गई! यही नियम वे नामित मुख्यमंत्रियों पर लगाती थीं। कुछ ही दिनों बाद बहुगुणाजी का कार्यकाल कट गया। इस घटना का भी ऐतिहासिक विवरण है। उनको मुख्यमंत्री पद से हटाने उनके कांग्रेसियों ने अभियान छेड़ दिया था।

अगुवाई गोरखपुर के सांसद नरसिंह नारायण पाण्डेय कर रहे थे। कई कांग्रेसी उन्हें नगद नारायण पाण्डेय, कुछ गांजा पाण्डे भी कहते थे। वे कांग्रेस चुनाव प्रचार हेतु बड़ौदा (मई 1975) आये थे। मैं वहां “टाइम आफॅ इण्डिया” का संवाददाता था। मेरा सवाल था कि वे बहुगुणाजी के विरूद्ध क्यों खड़े हैं? पाण्डेय का तर्क था: “यह मुख्यमंत्री अपनी जनसभाओं में प्रधानमंत्री की स्टाइल में बुलन्द बल्लियां लगवाता है, ऊंचा मंच बनवाता है।” फिलहाल नारायणदत्त तिवारी का विकल्प लेकर कांग्रेसी भी बदलाव में जुट गये। स्पष्ट था कि इन्दिरा गांधी को अपना सिंहासन डोलता नजर आया क्योंकि आन्ध्र प्रदेश के मुख्य मंत्री जलगम वेंगल राव के अलावा सारे मुख्यमंत्रियों में बहुगुणाजी निर्विवाद तौर पर एक गगनभेदी रहनुमा हो गये थे। उत्तर प्रदेश में बिजली का उत्पादन जरूरत से कहीं ज्यादा हुआ था। पहली बार ही ऐसा हुआ था। उनके प्रशासनिक नैपुण्य और संगठनात्मक क्षमता का लोहा सभी प्रदेश के लोग मानते थे। डाह और कुढ़न में कांग्रेसी लाजवाब होते हैं। बस प्रधान मंत्री के कान भरने शुरू हो गये।

उन्हीं दिनों बहुगुणा जी दिल्ली गये थे। इन्दिरा गांधी ने अपने चाकर यशपाल कपूर को भेजा कि मुख्यमंत्री का त्यागपत्र ले आये। कपूर से बहुगुणा जी ने कहा कि लखनऊ से भिजवा देंगे। पर इन्दिरा गांधी ने कपूर को दुबारा भेजा। तब आहत भाव से बहुगुणा जी इन्दिरा गांधी से मिलने आये और वादा किया कि अमौसी वायुयानस्थल से वे सीधे राजभवन जायेंगे और गवर्नर को त्यागपत्र थमा देंगे। नारीसुलभ आनाकानी को देखकर बहुगुणाजी बोलेः “आप चाहती हैं कि इतिहास दर्ज करे कि महाबली प्रधानमंत्री ने एक अदना मुख्य मंत्री से अपने आवास पर ही इस्तीफा लिखवा लिया?” इन्दिरा गांधी के मर्म पर यह चोट थी। बहुगुणा जी को मोहलत मिल गई। मगर नियति ने बदला लिया। साल भर बाद लखनऊ से बहुगुणा जी लोक सभा के लिये (मार्च 1977) अपार बहुमत जीते। बस सत्तर किलोमीटर दूर राय बरेली में इन्दिरा गांधी हार गई। इतिहास रच गया।

फिर दो और दिलचस्प घटनायें हुई। जनता पार्टी सरकार टूटने पर इंन्दिरा गांधी ने अपने दोनों पुत्रों को बहुगुणा जी को वापस कांग्रेस में लाने के लिये भेजा। दोनों भांजे रूठे मामा को अपने झांसे में ले आये। बहुगुणा जी अपनी सहज प्रवृत्ति के कारण आग्रह टाल नहीं पाये। पार्टी का नवसृजित प्रधान सचिव का पद मिला। नाममात्र का था। शेर बूढ़ा हो जाय पर दहाड़ तो मार सकता है। बहुगुणा जी पौड़ी गढवाल से लोकसभा उपचुनाव के प्रत्याशी थें। उसी समय पायलटी छोड़कर राजीव गांधी भी अमेठी के उपचुनाव में प्रत्याशी बने। शरद यादव ने टक्कर ली। प्रधान मंत्री अपने इकलौते जीवित पुत्र के लिये अभियान करने अमेठी आई। वापसी पर अमौसी हवाई अड्ड़े पर संवाददाता साथियों के साथ मैं भी था।

अमौसी से हेलिकाप्टर में आई फिर दिल्ली के लिये वायुसेना के जहाज में सवार होने के ठीक पहले दस मिनट का वक्त हमें मिला। साथियों ने मेरा आग्रह मानकर केवल पुत्र राजीव गांधी की विजय की बात की। मैं ने पूछा, “इन्दिरा जी, अगर गढ़वाल से बहुगुणा जी विजयी हुये तो?” वे ठिठकी, तिलमिलाईं, फिर रोष में बोली, “क्या होगा? लोकसभा में एक और बाधक आ जायेगा। व्यवधान करेगा। और क्या करेगा?” हमें सबको बढ़िया खबर तो मिल गई। पर ऐसा हुआ नहीं। मुख्य मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह थे। उपचुनाव ही निरस्त कर दिया गया। मगर बरेली कमिश्नरी के सूत्रों ने बताया कि बहुगुणा जी को भारी संख्या में मत मिलें थे।

बहुगुणा जी से हमारे संगठन (इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स) से काफी आत्मीय रिश्ते रहे। कारण भी था। इलाहाबाद में बहुगुणा जी दैनिक नेशनल हेरल्ड से जुड़े रहे। संपादक मेरे पिता स्व. श्री. के रामा राव थे। बहुगुणाजी से प्रथम भेंट मेंरी मुम्बई में 1964 में कांग्रेसी अधिवेशन में हुई थी। जवाहरलाल नेहरू के जीवन का यह अन्तिम था, उनके निधन के कुछ माह पूर्व। तब टाइम्स ऑफ इंडिया का संवाददाता होने के नाते नये प्रदेश हरियाणा पर मैं एक शोधवाली रपट तैयार कर रहा था। अविभाजित पंजाब तथा उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी नेताओं से साक्षात्कार किया । तब यूपी कांग्रेस के एक महामंत्री थे बहुगुणा जी और दूसरे थे बाबू बनारसी दास जी। बहुगुणाजी ने जाट-बहुल पश्चिम यूपी के भू-भाग के हरियाणा में विलय की संभावना से इन्कार कर दिया था।

उस दिन, 2 अक्टूबर 1978, के दिन बहुगुणा जी चित्रकूट आये थे। हमारे नवगाठित नेशनल कान्फेडरेशन ऑफ न्यजपेपर्स एण्ड न्यूज एजंसीस एम्प्लाइज आर्गेनिजेशंस का उद्घाटन करने। मीडिया कर्मियों की संगठानात्मक एकजुटता का सूत्र हमें सिखा गये। तभी लखनऊ दैनिक स्वतंत्र भारत के संपादक अशोकजी चित्रकूट में ही हृदयघात से पीड़ित हो गये। अपने वायुयान में बहुगुणाजी ने उन्हें लखनऊ अस्पताल पंहुचवाया।

हम पत्रकारों की स्वार्थपरता का एक नमूना दे दूँ। लखनऊ के करीब प्रत्येक संवाददाता ने मुख्य मंत्री बहुगुणा से लाभ उठाया होगा। हमारे संगठन की राज्य यूनियन का अधिवेशन अयोध्या में 1982 में तय था। मुख्य मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह द्धारा उद्घाटन होना था। राष्ट्रीय प्रधान सचिव (IFWJ) के नाते मैं ने बहुगुणा जी को मुख्य अतिथि के रूप में आंमत्रित किया। तब वे सांसद तक नही थे। बहुगुणा जी ने मुझे सचेत कर दिया था कि उनके आने से कांग्रेस सरकार असहयोग करेगी। मेरा निर्णय अडिग था। उधर मुख्य मंत्री सिहं ने मुझसे कहा कि यदि बहुगुणा जी आयेंगे तो वे नही आ पायेंगे। दुविधा की परिस्थिति थी।

अतः बहुगुणा जी को मैं ने समापन समारोह पर दूसरे दिन बुलवाया। मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करना चाहता था। सूरजमुखी उपासना की गन्दी परम्परा को मैं ने तोड़ी। फिर एक दिन (17 मार्च 1989) हजरतगंज की एक दुकान पर मैं था तो अचानक कांग्रेसी विधायक देवेन्द्र पाण्डेय ने बताया कि क्लीवलैण्ड (अमरीकी) अस्पताल में बहुगुणा जी का निधन हो गया। तब प्रतीत हुआ कि हमारे समाचारों का एक अहम स्त्रोत गुम हो गया। मेरा एक निजी प्रेरक और मित्र चला गया। राष्ट्र ने एक जननायक को खो दिया।

K Vikram Rao
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