Opinion

चीनी तुष्टीकरण : सन् 62 की हार का आमंत्रण 

आर. विक्रम सिंह.
पूर्व सैनिक, पूर्व प्रशासक.

1962 के बाद लद्दाख की पहाड़ियों पर युद्ध के बादल एक बार फिर घुमड़ने लगे हैं. देश में तब अहिंसक तुष्टीकरणवादियों का राज था. 02 सितंबर 1946 को वायसराय वेवल ने नेहरू जी को वायसराय कौंसिल का सदस्य व प्रधानमंत्री नियुक्त किया था. जनरल लोकहार्ट ने उनके सामने उत्तरी सीमाओं की सुरक्षा योजना प्रस्तुत की तो नेहरू बिफर गये,’बकवास ! कोई सुरक्षा योजना नहीं चाहिए. हम अहिंसक देश हैं, हमें कोई खतरा नहीं है.खत्म कर दो सेना को. हमारा काम पुलिस से चल जाएगा.’ ब्रिटिश सेक्रेटरी आफ स्टेट कैरो ने आकलन किया था कि तिब्बत की सुरक्षा कितनी आवश्यक है. रूस या चीनी हमले की स्थिति में ल्हासा हवाई पट्टी पर सेनाओं को उतारने के लिए कितने ट्रांसपोर्ट वायुयानों की आवश्यकता पड़ेगी. तिब्बत को स्वायत्तशासी बफर राज्य बनाए रखना ब्रिटिश नीति थी और उसी दृष्टि से उन्होंने 1914 का त्रिपक्षीय सीमा समझौता हस्ताक्षरित किया था जिसे मैकमोहन लाइन के नाम से जाना गया.

चीन में अक्टूबर 1949 में माओ सत्ता में आ गये थे. अक्टूबर 1950 में चीन कोरिया में अमेरिका से विरुद्ध युद्ध में कूद पड़ा. साथ ही उसने तिब्बत पर नियंत्रण के लिए सेनाएं पहले ही रवाना कर दीं. वे सेनाएं हमारे अक्साई चिन के एक पुराने अविकसित मार्ग से होते हुए तिब्बत पहुंची. चीनी आक्रमण के जिस मार्ग को विश्व ने जाना,उसे हमने न जानने का नाटक किया. सरदार पटेल ने भारत की तिब्बत नीति पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए 07 नवंबर को नेहरू को पत्र लिखा, ‘हमें पहले कभी तिब्बत सीमा की चिंता नहीं करनी पड़ी. पहली बार यह स्थिति बन रही है जब हमें दो मोर्चों पर लड़ना पड़ सकता है.’ देश का दुर्भाग्य कि सरदार पटेल एक माह बाद नहीं रहे.
ब्रिगेडियर दलवी अपनी पुस्तक ‘हिमालयन ब्लंडर’ में स्टाफ कालेज वेलिंगटन का अपना संस्मरण लिखते हैं, अक्टूबर 1950 की बात है. एक दिन अचानक जनरल लेंटेन उद्विग्न होकर उन लोगों के लेक्चर हाल में आये और कहा तुम्हारे नेताओं की अकर्मण्यता के कारण चीन ने भारत के उत्तर में आज एक बड़ा दरवाजा खोल लिया है. तुम्हारी मुश्किलें कितनी बढ़ जाएंगी, इसका तुम्हें अंदाजा ही नही है. वह दिन दूर नहीं है जब तुम में से ही कई अफसर चीन से युद्ध लड़ते दिखाई देंगे. यह मानना कि भारत सरकार को अक्साई चिन में बन रही इस सड़क की जानकारी नहीं थी, स्वीकार्य नहीं है. एयरफोर्स के पास द्वितीय विश्वयुद्ध से ही एयर रिकानेसेंस के कैमरों से लैस कैनबरा बाम्बर्स थे. सीमाक्षेत्रों की नियमित फोटोग्राफी व उनकी आकलन इंटेलिजेंस रिपोर्ट सामान्यतः प्रधानमंत्री को प्रेषित होती थी. अक्साई चिन में बन रही सड़क की फोटो और रिपोर्ट नेहरू को प्रस्तुत न की गई हो, यह असंभव है. लेकिन नेहरू के लिए अक्साई चिन ऐसा पथरीला इलाका था जहां घास का तिनका तक नहीं उगता.
चीन कोरिया युद्ध में फंसा था. उस समय उसे भारत की ओर से अक्साई चिन छोड़ देने की एक चेतावनी भी पर्याप्त होती. हमारी एयरफोर्स इतनी सक्षम तो थी ही कि चीन को सड़क का काम रोकना पड़ता. लेकिन वह सड़क बनने दी गई. कारण ? नेहरू चीन को साथ लेकर ‘एशिया फार एशियंस’ अर्थात एशिया एशियावालों के लिए, जैसा दिवास्वप्न देख रहे थे.वे दोनों एशिया के देशों को पश्चिम के साम्राज्यवादी प्रभाव से मुक्त करने का कार्य करेंगे.चीन में भारत के राजदूत के. एम.पनिक्कर अपनी पुस्तक ‘इन टू चाइना’ में लिखते हैं कि ‘चीन और भारत को संयुक्त होकर पश्चिमी प्रभुत्व से लड़ना चाहिए और तिब्बत का मुद्दा दोनों देशों की दोस्ती के रास्ते में नहीं आना चाहिए.’ चीन का तुष्टीकरण हमारी नीति बन गई. 1957 में उस सड़क का उद्घघाटन हुआ. विश्व भर में समाचार फैला तो हमारे नेतृत्व ने भी आश्चर्यचकित होने का ड्रामा किया.
दूसरी बात, हमारे नेतृत्व द्वारा तिब्बत को स्वायत्तशासी राज्य के स्थान पर चीन के आधिपत्य का प्रदेश मानने का परिणाम यह हुआ कि तिब्बत से भारत के जो भी परंपरागत सीमा, व्यापार, सांस्कृतिक समझौते हुए थे वे सब अर्थहीन हो गये. यदि तिब्बत चीन का प्रदेश है तो एक प्रदेश को तो दूसरे देश से समझौतों का अधिकार ही नहीं होता. इसीलिए चीन के लिए 1914 के शिमला सीमा समझौता, मैकमोहन लाइन व लद्दाख की परंपरागत सीमा रेखाओं को अस्वीकार करना आसान हो गया. अब जो भारत तिब्बत सीमा थी वह भारत चीन सीमा हो गई. फिर पंचशील जैसा आदर्शवादी समझौता कर तिब्बत में जो भी हमारे अधिकार थे, सब छोड़ दिये गये. तिब्बत की प्रताड़ना प्रारंभ हो गई थी. एक अध्ययन के अनुसार विद्रोह में शांतिपूर्ण तिब्बती भिक्षुओं और लामाओं सहित करीब एक लाख आठ हजार तिब्बती मारे गये. 6 हजार मोनेस्ट्री ध्वस्त की गई. नेहरू की इस नीति का भारत में भी विरोध हुआ. आचार्य कृपलानी ने 1954 के पंचशील समझौते पर कहा था कि यह समझौता एक प्राचीन राष्ट्र के विनाश पर हमारी सहमति के पाप से उत्पन्न हुआ है.
ब्रिटिश भारत की योजना तो यह थी कि तिब्बत पर चीनी आक्रमण की स्थिति में लेह-गरारसा-नागचुक-चामडो रेखा की प्रत्येक दशा में रक्षा की जाएगी जिससे तिब्बत का स्वायत्त बफर स्टेटस बना रहे.
.युद्ध 20 अक्टूबर को प्रारंभ होता है, 03 अक्टूबर को चीन से थागला रिज खाली कराने के मुद्दे पर जनरल थापर से नेहरू कहते हैं कि हमारी इस कार्यवाही पर चीन कोई प्रतिक्रिया नहीं करेगा. 12अक्टूबर को प्रेस को उनका बयान है कि सेनाएं चीनियों से अपना इलाका खाली करायेंगी. वे मानते रहे कि चीन बड़ी प्रतिक्रिया नहीं करेगा !
उस समय शीतयुद्ध के दौर में दुनिया दो खेमों में बंट रही थी. पाकिस्तान, अमेरिकी पैक्ट सेण्टो सीटो में शामिल हो गया और उसे शस्त्रों की आपूर्ति भी प्रारंभ हो गई. सन् 1959 के बाद परिस्थितियां हमें बड़ी तेजी से दो मोर्चों पर युद्ध की दिशा ले जा रही थीं, हम सपनों में थे. जनरल थिमैया ने अपने रिटायरमेंट पर बड़ी मायूसी से सैनिकों से कहा था, कहीं मैं तुम्हें सिर्फ मरने के लिए नहीं छोड़ कर जा रहा हूं ? और नेहरू थे कि वे राष्ट्रीय सुरक्षा को हाशिये पर छोड़ एशिया, एशियावालों के लिए जैसे अमूर्त विचारों, विश्वशांति की मृगमरीचिका के पीछे दौड़ रहे थे. विश्वयुद्ध में पूरी तरह बरबाद हो गये देश जापान, जर्मनी, फ्रांस प्राणपण से विकास में लगे थे और हम ? न विकास, न संसाधन, न जनशक्ति, न रक्षा. मात्र आदर्शवादी गुटनिरपेक्ष नीति ही हमारी उपलब्धि थी. 1962 की भीषण पराजय के बाद हम अकेले पड़ गये. हमारी ओर से एक भी देश नहीं बोला. गुटनिरपेक्षता की असलियत सामने आ गई. दलाईलामा अपनी पुस्तक ‘फ्रीडम इन एक्जाइल’ में लिखते हैं कि ‘1962 के बाद नेहरू ने उनसे स्वयं स्वीकार किया था कि ‘मैंने स्वतंत्र एशिया का सपना देखा था. हम ‘फूल्स पैराडाइज’ मूर्खों की दुनिया में रह रहे थे.’
समाधान की सोच का अभाव, एक बड़ी समस्या थी. अहिंसक विचारधारा समस्याओं का समाधान तुष्टीकरण व विभाजन में देखती है. भारत विभाजन, कश्मीर विभाजन, तिब्बत समस्या ये सब तुष्टीकरण की नीति के परिणाम थे. समाधान तो यह था कि अमेरिका, ब्रिटेन के साथ संयुक्त रूप से तिब्बत को स्वतंत्र देश स्वीकार कर सैन्य सहायता दी जाती. कोरियन युद्ध में व्यस्त चीन के लिए बहुत कुछ कर पाना संभव न होता. तिब्बत के लिए भी कोरिया की तरह शांति सेनाएं भेजी जा सकती थीं, इसमें सबसे बड़ी बाधा हम थे.
हमारी सेनाएं सैन्य समाधान की ओर तेजी से बढ़ रही थीं. सुरक्षा परिषद में स्वयं प्रयास करके लाये गये युद्धविराम के कारण कश्मीर विवाद अनिस्तारित रह गया. नेहरू ने स्वयं दो मोर्चे बना लिए थे. हमारी यह विषम कश्मीर-चीन-तिब्बत समस्या नेहरू के नीतिगत पक्षाघात का परिणाम है. चीन से उत्तरी सीमा पर युद्ध की स्थितियां ही न बनतीं यदि पूर्व की ब्रिटिश तिब्बत नीतियों और शीत युद्ध के दौर के जमीनी सत्ता-शक्ति के समीकरणों को संतुलित करते हुए राष्ट्रहित के लक्ष्य को प्राथमिकता दी गई होती.
गलवान की शहादतों के बाद नया अवतार ले चुकी भारतीय सेना द्वारा 29/30 अगस्त की रात कैलाश रेंज की तीस चोटियों पर एक साथ चढ़ाई कर रणनीतिक पहल को नियंत्रण में ले लेना अकल्पनीय था. चीनी रणनीतिकार गुरंग हिल से लेकर रेकिन ला और भी आगे तक भारतीयों को इन स्ट्रेटेजिक चोटियों से हटाने के लिए सब कुछ करेंगे. सैन्य कमांडर स्तरीय वार्ताएं असफल रही हैं. चीन पैंगांग व स्पैंगुर झील क्षेत्र में 50 हजार अतिरिक्त सेनाओं के साथ जबरदस्त एयर सपोर्ट, मिसाइलें, राकेट इकाइयां, टैंक बढ़ा रहा है. चीनी प्रत्याक्रमण पर भारत से बड़ी प्रतिक्रिया होनी निश्चित है. चुशूल सेक्टर का स्थानीय युद्ध एक बड़े युद्ध में बदल जाने की पूरी आशंका है. लेकिन अक्साई चिन अभियान नहीं रुकेगा, यह तय है. एक बड़ा युद्ध हमारे सामने खड़ा है और नया भारत अब नेहरू का भारत नहीं है.
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आर. विक्रम सिंह.
पूर्व सैनिक पूर्व प्रशासक.
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