आ रहा है वीरों का त्योहार !
इसी माह में युद्ध की प्रबल होती संभावनाएं दिख रही हैं. युद्ध हुआ तो चीन अपनी मिसाइलों, एयरफोर्स का उपयोग हमारे सैनिकों और देश भर में फैले रक्षा संस्थानों, सैन्य मुख्यालयों, औद्योगिक केंद्रों पर कर सकता है. चाइना सी में वह हमारी नेवी को भी लक्षित कर सकता है. हमारे कम्प्यूटर नेटवर्क पर लगातार साइबर हमले होंगे. यह भी हो सकता है कि वे अपने कोरोना टाइप जैविक युद्ध की शक्तियां गुप्त रूप से भारत की ओर विशेष लक्षित कर दें. वे पूरी कोशिश करेंगे कि अगले अक्टूबर-नवंबर से पहले ही, जब पहाड़ियों पर बर्फ पड़ने से तापमान माइनस में चला जाता है, स्थितियों को अपने पक्ष में ले आएं.
लेकिन जमीन पर वो बुरी तरह हारेंगे. युद्ध हुआ तो वह लद्दाख तक सीमित न रहेगा. तिब्बत का इलाका भी युद्ध की जद में आएगा. 29/30 अगस्त को उन्हें पहली बार उनकी भाषा में जवाब मिला है. युद्ध हुआ तो शहादतें हमारी भी होंगी लेकिन ये जो लद्दाख तिब्बत की पहाड़ियां हैं वे चीनियों की लाशों से पट जाएंगी. उठाने वाले न मिलेंगे.यदि वे सही आकलन करेंगे तो जो होने वाला है, उसका अंदाज उन्हें लग जाएगा. यह अमेरिका की जिम्मेदारी होगी कि वह पाकिस्तान को बलपूर्वक इस युद्ध से अलग रखे. आणविक युद्ध ? नही. उसकी आशंका नहीं है. क्योंकि दोनों में से किसी के सामने अस्तित्व का संकट नहीं है. भारत-अमेरिका धुरी पर बहुत कुछ निर्भर है.
युद्ध का अवसर शूरवीरों को भाग्य से मिलता है. मेरी आर्टिलरी यूनिट 65 फील्ड रेजीमेंट, जाट जवानों की यूनिट है. अफसर अपने जवानों जैसा हो जाता है. मैं अवध का ठाकुर, अपने जवानों में वहां जाट हो गया. कोई जाट मुझे कभी भी मिलता है तो हमेशा लगता है कि घर-गांव का आदमी मिल गया.वैश्य अफसर राजपूत पलटन में जाते हैं तो वे राजपूत हो जाते हैं. पुराने लोग बताते है कि 1971 की लड़ाई में कोई जवान पीछे मुख्यालय में रहने को तैयार ही नहीं था. कि इधर पीछे हेडक्वार्टर की चौकीदारी में रह गया तो लड़ाई के बाद गांव जाकर लड़ाई के कौन से किस्से, किस मुंह से बताऊंगा. सब हंसेंगे, लुगाइयां हसेंगी. मेडिकल केटेगरी वाले भी जिद करके पलटन के साथ गये. मैंने देखा है कि सेना में भय का भाव होता ही नहीं. पलटन, रेजिमेंट की, देश की इज्जत बहुत बड़ी होती है वहां.
यह कुरुक्षेत्र युद्धक्षेत्र के भगवान श्रीकृष्ण का देश है. गीता में धर्मयुद्ध का उनका दिया आदेश हमें शिरोधार्य है. हम मरेंगे तो फिर यहीं जन्म लेंगे. जो भी शहीद हुए हैं वे सब हमारे ही परिवारों में आये है. यह जीवन तो एक श्रृंखला है.हमारी सेनाएं तो सबसे आगे होंगी लेकिन यह हम सबका युद्ध है. तन मन धन से सबका योगदान आवश्यक है. वे राष्ट्ररक्षा के फंड में योगदान देंगे जो युद्ध में सीमाओं पर नहीं जा सकेंगे. हम सब अपनी क्षमता के अनुसार दायित्व का निर्वहन करेंगे. इसे हम ऐसे लें कि जैसे हमारे सामने 1962 के कलंक को धोने और एशिया में अपनी असल हैसियत हासिल करने का बड़ा अवसर आ रहा है…!
एक बात और, हम ऐसे देश हैं जहां चीन से सहयोग करने वाले गद्दार भी बसते हैं जो अक्सर सत्ताओं में भी आ जाते हैं. गद्दारों की पूरी फेहरिस्त है. जैसा जनरल रावत ने ढाई मोर्चे पर युद्ध की बात कही थी, वह एक अलग बड़ी समस्या है. शांति और अहिंसा की बातें करने वाले, लद्दाख-कश्मीर को बांट कर शांति खरीदने वाले बुद्धिजीवी अब नेपथ्य में चले जाएं और पिछली सीटों पर जाकर बैठें. फिलहाल इस आने वाले समर में उनकी कोई आवश्यकता नहीं है …! ( सेना के दिन 1983/84. )
आर. विक्रम सिंह.
पूर्व सैनिक, पूर्व प्रशासक