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मथुरा में आठ दिवसीय “सांझी महोत्सव” का हुआ रंगारंग आगाज

बृज की प्राचीन 'सांझी' कला को सहेज रही योगी सरकार.योगी सरकार में हो रहा ब्रज की प्राचीन लोक कलाओं का संरक्षण एवं संवर्धन."उत्तर प्रदेश ब्रज तीर्थ विकास परिषद" की ओर से की जा रही अनूठी पहल.भगवान श्रीकृष्ण के भक्त रसखान की समाधि और ताज बीवी स्मारक पर होंगे विभिन्न कार्यक्रम.

मथुरा। ब्रज की संस्कृति, कला और धरोहरों को सहजने और संवारने के लिए उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने उत्तर प्रदेश बृज तीर्थ विकास परिषद का गठन किया है। भगवान कृष्ण से संबंधित सांस्कृतिक पृष्ठभूमि होने के फलस्वरूप ब्रज क्षेत्र प्राचीन काल से ही विभिन्न लोक शैलियों का महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। हस्तकला, संगीत, वास्तुकला, शिल्पकला इत्यादि उनमें प्रमुख हैं। ब्रज में प्रचलित अनेक कलाओं में से एक है सांझी कला। ब्रज की इस प्राचीन कला को सहजने में अब उत्तर प्रदेश बृज तीर्थ विकास परिषद जुट गया है। प्रदेश सरकार का उद्देश्य लोगों को उनकी संस्कृति एवं इतिहास से जोड़ना है। यह पहल उसी दिशा में उठाया गया कदम है।

कृष्ण प्रेम एवं भक्ति का केंद्र

भगवान श्री कृष्ण का नाम कानों में गूंजते ही हरे भरे उद्यान, यमुना नदी, नदी के तीर पर उनका क्रीड़ा स्थल, ब्रज की पावन भूमि जैसे सारे दृश्य आंखों के समक्ष प्रकट होने लगते हैं। ब्रज के सांस्कृतिक एवं कलात्मक आभूषणों के धागे-डोरे इसी पावन क्रीड़ा स्थल और लीला स्थल से निकल कर आते हैं। 16 वीं सदी में व्याप्त भक्ति आंदोलन के काल में इन कला क्षेत्रों में तीव्र गति से प्रगति हुई थी। इसका प्रमुख कारण था कि भारत के विभिन्न क्षेत्रों से अलग-अलग कला में निपुण कला प्रेमी ब्रज में एकत्र होते थे।

कृष्ण के प्रेम एवं भक्ति के परमानन्द में सराबोर भक्तों का यह प्रमुख केंद्र बन गया था। कृष्ण के प्रति भक्तों का स्नेह अपनी चरम सीमा में होता था। 16वीं सदी में ही ब्रज विभिन्न कला शैलियों एवं सांस्कृतिक परंपराओं का गढ़ बन गया था। ऐसी ही एक कला शैली है सांझी। यह कला शैली मूलतः राधा-कृष्ण से संबंधित पवित्र ग्रंथों से संबंध रखती है।

स्वयं राधा रानी ने की शुरुआत

सांझी शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘संध्या ’ शब्द से हुई है। संध्या, गोधूलि की वह बेला है जब गायें गो शालाओं में लौटती हैं। भारतीय धर्म ग्रन्थों में किसी भी अनुष्ठान के लिए इसे अत्यंत पवित्र समय माना जाता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार, राधा रानी ने स्वयं सांझी की परंपरा का आरंभ किया था जब गोपियों के संग उन्होंने सांझी की अप्रतिम आकृतियों की रचना की थी। रूठे कृष्ण को मनाने के लिए उन्होंने वन जाकर रंग-बिरंगे फूल एकत्र किये थे तथा भूमि पर उन फूलों से उनके लिए सुंदर आकृतियां बनायी थीं। यही से इस धार्मिक परंपरा की ‘सांझी’ शुरुआत हुई थी।

श्राद्ध पक्ष में होता है उत्सव

ब्रज में विलुप्त होती जा रही सांझी कला के संरक्षण एवं संवर्धन का बीड़ा अब उत्तर प्रदेश ब्रज तीर्थ विकास परिषद ने उठाया है। उ०प्र० ब्रज तीर्थ विकास परिषद के डिप्टी सीईओ पंकज वर्मा ने बताया कि श्राद्ध पक्ष में जब कोई उत्सव नहीं होते, तब ब्रज में सांझी उत्सव मनाया जाता है। शहरी इलाकों में रंग व फूल, जल की सांझी बनाई जाती है। वहीं ग्रामीण अंचलों में गोबर से सांझी बनाकर महोत्सव मनाया जाता है।

ब्रज के मंदिरों, कुंज और आश्रमों में मिट्टी के ऊंचे अठपहलू धरातल पर रखकर छोटी-छोटी पोटलियों में सूखे रंग भर कर इस कला का चित्रण किया जाता है, जिसे सांझी कला कहते है। इसके तहत भगवान श्रीकृष्ण के भक्त रसखान की समाधि पर आज से 8 दिवसीय सांझी महोत्सव की शुरुआत हो गई है। जो
25 सितम्बर तक चलेगा।

शुरू हुए कार्यक्रम

उ०प्र० तीर्थ विकास परिषद द्वारा श्रीकृष्णभक्त रसखान एवं ताजबीबी उपवन महावन में पहली बार आयोजित किया गया है। आज राजकीय संग्रहालय, मथुरा और ब्रज संस्कृति शोध संस्थान के सहयोग से विभिन्न प्रकार की जल सांझी, फूलों की सांझी, गोबर सांझी, केले के पत्तों की सांझी, कैनवास सांझी और रंगों की सांझी का प्रदर्शन किया गया। वहीं शाम को भजन संध्या का आयोजन किया गया। इसके अलावा महोत्सव में अगले सात दिनों में सांझी सेमिनार और सांझी प्रतियोगिता भी आयोजित की जाएगी।

सांझी कला के साथ-साथ श्रद्धालुओं के मन को मोहित करने और ब्रज की संस्कृति के बारे में अवगत कराने के लिए रोजाना सायं 4 बजे से रात्रि 7 बजे तक भजन संध्या, सांझी समाज गायन, बनी-ठनी नाट्य रूपक, बेणी गूंथन रासलीला, लावनी लोकगीत, रसिया, ब्रज भाषा कवि सम्मेलन, लोक नृत्य और जिकड़ी भजन आदि सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। इस आयोजन की ख़ास बात यह है कि इस महोत्सव में ब्रज के कलाकार ही प्रतिभाग कर रहे हैं।

15 दिनों तक सांझी का चित्रण

बता दें कि ब्रज के मंदिरों में शरद उत्सव के अवसर पर सांझी का चित्रण किया जाता है। जो भाद्रपद की पूर्णिमा से अश्विन मास की अमावस्या तक यानि 15 दिनों तक मनाया जाता है। एक समय था जब अश्विन मास में वृंदावन के सभी मंदिरों में सांझी कलाकृति रची जाती थी। किन्तु अब वृंदावन के केवल तीन मंदिर ही 500 वर्ष प्राचीन इस परंपरा पालन करते हैं। जिनमें राधारमण मंदिर, भट्टाजी मंदिर तथा शाहजहाँ पुर मंदिर शामिल हैं।

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